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________________ सत्तरहमो संघि घता-गजकुम्भको विदीर्ण करनेवाले पुलकित शरीर जिसके सामने जो योद्धा आया, अप्सराओंको सन्तुष्ट करनेवाला वह मत्सरसे भरकर उसी प्रकार भिड़ गया, जिस प्रकार गिरिसे दावानल।" ॥१०॥ [१२] कोई सुरवधूको देखकर, कृपाण हाथमें लिये हुए आघात खाकर भी तलवारको नहीं छोड़ रहा है। कोई अपनी निकली हुई आँतोंसे विडल इस प्रकार घूम रहा था, जैसे शृंखलाओंसे हुआ समान हो, न भासदो विदीर्ण करनेवाले किसीका अस्त्र मोतियोंके समूहसे उज्ज्वल था। दन्त और मूसलोंके लिए निकाल रखा है आयुध जिसने, ऐसा कोई वीर मत्तगजके सम्मुख दौड़ता है। कट गया है सिर जिसका, ऐसा कोई धनुर्धारी मुड़ता है दौड़ता है और मत्सरसे भरकर बेधता है। किसीका वक्षस्थल तीरोंसे इतना विद्ध है कि उसके बाहर-भीतर पुंख आरपार लगे हुए हैं ? कोई रक्तसे लाल व्यक्ति ऐसा शोभित है मानो भ्रमरसहित रक्त कमलोंका समूह हो । कोई एक पैरके अश्वपर आसीन, विष्णुके समान ही एक कदम नहीं चल पाता। कोई अपने करतल सिर. तटपर रखकर शत्रुसेनामें युद्धकी भीख माँग रहा है ॥१-२|| घत्ता-कट चुका है सिर जिसफा, जिसके शरीरसे रक्तकी धाराएँ उछल रही हैं, तथा प्रति इच्छा रखनेवाला भट ऐसा दारुण दिखाई देता है, जैसे फागुनमें सिन्दूरसे लाल सूर्य हो ।।१०॥ १३ ] कहींपर जीवनसे त्यक्त मत्सगज ऐसे जान पड़ते हैं जैसे काले महामेघ धरतीपर आ गये हों। कहींपर दाँतों सहित कुम्भस्थल ऐसे जान पड़ते हैं मानो रणरूपी वधूके ऊखल और मूसल हो। कहींपर तलवारोंसे खण्डित अश्व स्खलित होते
SR No.090353
Book TitlePaumchariu Part 1
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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