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पउमचरित
कहें वि कसा रोमावलि दिही। काम-वेणि गं गले वि पट्टी कहें वि श्रणोपरि ललह नहोरण । णाई अगङ्गहों काउ तोरणु ॥८॥
। घत्ता कहे विस-हिरई दिछह जहर, धण-मिहरोवरि सु-पहुँतई । धेगेण यहाई : राण-तुराहो पाय, इन पर खुसर ॥१॥
[ ] तं जल-कील णिएवि पहाणहूँ। जाय बोल्ल पाहयले शिम्बाहुँ॥॥ पभणन एक हरिस-संपपाउ । 'तिहुश्रणे सहमकिरण पर धण्णव ॥२॥ जुबह-सहासु जासु स-वियारउ । विरुमम-हाव-भाव-जावारउ ||३|| नलिणि-त्रणु व विणयर-कर-इच्छङ । कुमुय-वणु व ससहर सणिणच्छउ (?) कालु जाइ जमुमयण-विलासें । माणिणि-पत्तिजवणायासें ॥4॥ अच्छउ सुरउ जण जगु मत्तड़। जल-कोला जि किण्ण पजत्ता' ||२|| सं णिसुणे वि अत्ररेक्छु पीछिन । 'सहमकिरणु केवल सलिलोल्लिज ॥७॥ इत्थु पवाहु मणोहर-वन्तः। जो जुबइहि गुमान्तु वि पत्तः ॥८॥
घत्ता जेण वणन्तरे सलिलभन्तर गलियंसु-धरण-धावारएँ । सरहसु ढुक्कर माणे वि मुक्का अन्तेउरु एकप धारएं ॥२॥
रायणो वि जल-कोल करेपिणु । सुन्दर सियय-त्रेइ विरएक्षिण ॥१॥ उपपरि जिणवर-पहिम चाववि । चिबिह-विताण-णिवहु अन्धा वि ॥ सुम्प-और-सिसिरहिं अहिसिझेवि । णाणाविह-मणि-यणेहि अवि।।३।। गाणाविहार विलेषण भएँ हि । दीव-धूव-पश्लि-फ्फ-णिबेहि ॥