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________________ सप्तमो संधि "हम वहाँ क्यों न जायें जहाँ किष्किन्धराज है ?" यह सुनकर पिता बोला, "हम यहाँ उस साँपकी तरह हैं, जिसकी दाद उखाड़ ली गयी है, पाताल-लंका को छोड़कर कहाँ जाये, चारों ओरसे दुश्मनोंकी शंका है? मेघवाइन प्रमुख, राज्यान्तर यहाँ जबतक निरन्तर बने हुए हैं, जिस लंका नगरीका हमने कामिनी की तरह भोग किया है, वहीं हमसे छीन ली गयी है" ॥१-८॥ - घत्ता-यह वचन सुनकर मालि दावानलकी तरह प्रदीप्त हो उठा, "हे तात, राज्यके छोन लिये जाने पर एक पल भी किस प्रकार जिया जाता है ? IR|| [१२] हे आदरणीय, आपने ही यह नीति मुझे बतायी है. कि उस प्रकार जीना चाहिए जिससे कीर्ति फैले, उस प्रकार हँसो कि जिससे लोग हसी न उड़ा सकें, इस प्रकार भोग करो कि धन समाप्त न हो, इस प्रकार लड़ो कि शरीरको सन्तोष प्राप्त हो, इस प्रकार त्याग करो कि फिरसे संग्रह न हो, इस प्रकार बोलो कि लोग वाह-वाह कर उठे, ऐसा चलो कि स्वजनोंको डाह न हो, इस प्रकार सुनो जिस प्रकार गुरुके पास रह सको, इस प्रकार मरो कि पुनः गर्भवासमें न आना पड़े। इस प्रकार तप करो कि शरीर तप जाये, इस प्रकार राज्य करो फि शत्रु झुक जाये । शत्रुसे आशंकित्त होकर जीनेसे क्या ! मानसे कलंकित होकर जीनेसे क्या? दानसे रहित धनसे क्या? वंशको कलंकित पुत्रके होनेसे क्या? ॥१-८॥ __घत्ता हे तात, यदि कल मैं लंकानगरीमें प्रवेश न करूँ, तो अपनी माँ इन्द्राणीको अपनी हथेली पर रखू" ॥९॥ [१३] रात बीत गयी, दिन आ गया। नगाड़े बज उठे, रसातल विदीर्ण हो उठा । समस्त सेना चल पड़ी। वे दोनों भी गजवरपर आरूद हो गये। कोई अश्वोपर, कोई रथोपर। कोई शिविकाओंमें। कोई सिंहोंपर। उन्होंने लकानगरीको
SR No.090353
Book TitlePaumchariu Part 1
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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