________________
२५४
परमवरित जइयर्ह करें बग्गड चन्दहासु। जब मन्दोयरि दिण्ण तासु ॥४ अइय? सुरसुन्दर वक्षु कण । जइबहुँ प्रोसारित समरें धणड ॥५॥ साइपहुँ जगभूसणु परिउ णाउ । अहमहुँ परिवविउ कियम्स-राउ ॥६॥ जझ्यहुँ सुन्तणूयरि मा । प्राण प्रणात कि ji तइग्रहुँ में णाहिजे णिहउ सप्तु । सं एवहि वडारउ पयत्तु' ॥८॥
घत्ता घुबह सहसपखें कि केसरि सिसु-करि बहह । पञ्चेल्लिज हुभवहु सुका पायउ सुहु बहा' ॥९॥
[५]
पच्चसह वैवि गइन्दनामणु । पुणु हुक्कु सक्कु एवन्त-भवणु ॥१॥ जहि भेउ न मिन्दर को वि सोट । अहिं सुअ-साग्यि विणाहिं दोउ ॥२॥ सहि पहसवि पमण अमर-राउ । 'रिउ दुज्जर एषहि को उबाउ ॥३॥ कि सामु भेस कि उवचयाणु । किं दण्ड बुझिय-परिपमाणु ॥४॥ किं कम्मारम्भुववाय-मन्छ। किं पुरिस-दष्व-संपति-वस्तु ॥५॥ किं देस-काल-पविहाय-सारु । विणिवाइय-पविहार चार ॥६॥ कि काज-सिद्धि, पामा मस्तु । को सुन्दरु सच-विसार-धन्तु' ॥७॥ तो भारदुवाएं कुसु एम। 'जं पई पारवड त जि देव ॥८॥ अजन्ते गवर णिवाद छे'। पर मन्तिहि संघलु मन्त-मज' ॥९॥ सं णिसुणे वि मणइ विसालचाखु । ' पई उम्गाहिउ कवणु एक्स्तु।।१०॥
सा मा सुरबह पहु मन्वि-विहणड
पत्ता
जो पीसेसु रज्जु करइ । चउरशिहि मि ण संघरह ॥१॥