SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 39
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पामो संधि त्रिलोक महाऋषियोंके कुलको धारण करनेवाले मलि तीर्थकर को प्रणाम करता हूँ। देव और असुर जिनकी प्रदक्षिणा देते हैं ऐसे मुनिसुव्रतको मैं प्रणाम करता हूँ। नमि और नेमि, तथा पार्थ और महावीर तीथंकरोंको मैं प्रणाम करत, हूँ ॥१-१८॥ - धत्ता- इस प्रकार चौबीस परम जिन तीर्थकरोंकी भाषपूर्वक वन्दना कर मैं स्वयंको रामायण कान्यके द्वारा प्रगट करता हूँ ॥१९॥ [२] वर्धमान ( तीर्थ कर महावीर ) के मुखरूपी पर्वतसे निकलकर, यह रामकथारूपी नदी कमसे चली आ रही है, जो अमरोंके विस्तारके जलसमूहसे सुन्दर है, जो सुन्दर अलंकार और छन्दरूपों मास्याको कारण करती है, वो वीर्ष समासोंके प्रवाहसे कुटिल है, जो संस्कृतप्राकृत रूपी किनारोंसे अंकित है, जिसके दोनों वट देशीभाषासे उज्ज्वल हैं, कहीं कहीं कठोर और धन शब्दोंकी चट्टाने है, अर्थोकी प्रचुर तरंगोंसे निस्सीम है, और जो आश्वासकों (सों) रूपी तीर्थोसे प्रतिष्ठित है। शोभित रामकथा रूपी इस नदीको गणधर देवोंने बहते हुए देखा। बादमें आचार्य इन्द्रभूतिने, फिर गुणोंसे विभूषित धर्माचार्य ने। फिर, संसारसे विरक प्रभवाचार्य ने । फिर अनुत्तरषाम्मी कीर्तिधर ने । तदनन्सर आचार्य रविषेणके प्रसादसे कविराजने इसका अपनी बुद्धिसे अवगाहन किया। स्वयम्भू माँ पलिनीके गमसे जन्मा। पिता भारतदेवके रूपके लिए उसके मनमें अत्यन्त अनुराग था। अत्यन्त दुषला, लम्बा शरीर, चिपटी नाक, और दूर-दूर दाँत ॥१-११॥ घता-निर्मल और पुण्यसे पवित्र कथाका कीर्तन किया जाता है, जिसको समाप्त करनेसे स्थिर कीर्ति प्राप्त होती है॥१२॥
SR No.090353
Book TitlePaumchariu Part 1
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy