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'पटमचरित' और 'रामचरितमानस'
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प्रथा थी। सबसे बड़ी बात यह थी कि उस समय चीजों में मिलावट होती श्री । गुलसीले सात-आठ सौ साल पहले, स्वयम्भूने लिखा था कि कलियुगमें धर्म क्षीण हो जाता है, इससे स्पष्ट है कि कलियुगकी धारणा संसारके प्रति भारत वामियों के निराशावादी दृष्टिकोणका परिणाम है, उसका विदेशी आक्रान्ताओंसे कोई सम्बन्ध नहीं। __जहाँ तक 'मानस' में समकालीन 'सांस्कृतिक चित्र' के अंकनका प्रश्न है, वह स्पष्ट रूपस उभरकर नहीं आता। परन्तु ध्यानसे देखने पर लगता है कि समूचा रामचरितमानस युगके यथार्थकी हो प्रतिक्रिया है। उनके अनुमार वंद विरोधी ही निशाचर नहीं हैं, परन्तु जो दूसरेकै धन और पर डाका डालते हैं, आड़ी है. माँ बापली सेवा नहीं करते, वे भी निशाचर है । इस परिभाषाके अनुसार नैतिक आचरणसे भ्रष्ट प्रत्येक व्यक्ति निशाचर है। तुलसी के समय आध्यात्मिक शोषण की प्रवृत्ति सबसे अधिक प्रबल श्री । कवि कहता है कि लोग अध्यात्मवाद और अद्वैतवादकी चर्चा करते हैं, परन्तु दो कौड़ीपर बूसरों की जान लेने पर उतारू हो जाते है । तपस्वी पैसेवाले है, और गृहस्प दरिद्र है । इसका अर्थ यह नहीं है कि सुलसीदास समाजवादी और प्रगतिशील थे। वस्तुत: समाजमें नैतिक क्रान्ति चाहते थे, रामके चरितका गान उनके इसी उद्देश्यकी पूर्तिका साहित्यिक प्रयास था। इनमें सन्देह नहीं कि दोनों कवि अपने युगके नतिफ पतनस अत्यन्त दुखी थे। परन्तु एक जिनक्ति द्वारा समाज और व्यक्तिमें नैतिक क्रान्ति लाना चाहता है जबकि दूसरा, रामभक्ति द्वारा । दोनों कवि समक्रयाके मूलस्वरूपको स्वीकार करके चलते है ? कथाके गनिमें चरित्र-निषण और नैतिक मूल्योंको महस्व दोनोन दिया है। स्वयम्भू सीताके निमिनका उल्लेख ती करते है, परन्तु सीताके स्वाभिमानको आंच नहीं आने देते। 'मानस' की सीताके निर्वासनका विपय स्वयं तुलसीदाम पी जाते हैं। कुल मिलाकर दोनों कवियों का उद्देश्य एक आवारमूलक आस्तिक चेतनाको प्रतिक्षा करना रहा है ।
-देवेन्द्रकुमार जैन