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पउमचरित
अदुमो संधि मालि राज करन्ताहौँ सिदइ विज्माहर-मण्डलाई। सहसा महिमुहिङ्काई सायरहों जेम सम्बई जलाई ॥१॥
[1] तहि अवसरें छह-पापग्दुरें। दाहिण-से लिहि रोजर-पुरें ।।३।। पिछल-णिधिणि पीपा-पोहरि । सहसारहों पिय माणस-सुन्दरि ।।२।। ता, पुत्तु सुर-सिर-संपण्णव । इन्दु बवेवि इन्दु उपाणउ ।।३।। भेला मम्ति दन्ति अइरावणु। समाचइ हरिकसि भयावणु ।।।।। विजाहर जि सब किय सुरवर । पक्षण-कुवैर-वरुण-जम-ससहर ॥५॥ सम्वीस वि सहसाई पेक्खणयहुँ। पाहि पमाणु खुज्ज-बामणय( ॥६॥ गायण जाई मुरिन्दसणपहुँ। णामई ताई कियई अप्पणगहुँ ।। उम्बसि-सम्म-तिकोतिम-पहुइहि । भट्ठायाल-सहस-वर-जुवइईि १८॥
पत्ता
परिचिन्तिर विज्जाहरण ताई ताई मछु चिन्धाई
सहाँ जाई-जाई भाखण्यलहों। छइ हउँ जि इन्टु महि-मण्डलहौ।।।
जुप खय-काणि(?) णिशालिहुँ । जे जे सेव करन्ता माझिहैं ।।। से ते सिलिय णराहिव हदहों। अवर बलोह व अवर-समुदही ॥२॥ कायु ण दिन्ति अन्ति सिरिंगारहि (1)। श्राण करन्ति वि णाहकारहि ॥३॥ केण यि कहिट गम्पि नहीं माल है। 'पहु संकन्ति(?)ण तुम्ह जिहालिहर?) इन्दु को वि सहसारहों जन्दणु । तासु करन्ति सम्घ भितणु ॥५॥ तं णिसुवि सुकेसहों पुते । कोच-जलण-मालोलि-पलिते ॥६॥