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सुर की रज्जु करताहो ।
एकहि दिर्गे विजाहर पत्ररु ।
पउमचरिउ
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लङ्काउरि परिपालन्ताहो ॥११॥ लच्छो-मही एविहें माइ-रु ||२|| रणरह आइड पाहुणउ ॥ ३३॥ वहाँ अमुहु भाउ किविलु ॥ ४ पुणु थि एक्कासणे वसरें वि ॥५॥ अस्थकऍ पारउ पछि ||५||
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छत्त-य-चिन्धाएँ ॥०॥
हय- हिंसिथ गय वर- गजिया हैं ॥ ८ ॥ पच्छारिय-वारिय कोरियहूँ || ९ ||
सिरिकण्ठ-णामु णिव- मेहुणउ ।
सकल स-मन्ति सामन्त-बलु तु सपणामु समाइच्छित करेंवि । एत्थन्त इय-ग-रह- चदि । मायार विचार रुहाएँ । णिसुयहँ रणन्तूर हूँ वज्जियहूँ ।
दुम्बार बरि-सय- रोक्किई ।
धत्ता
सं पेक्खेविष्णु चरिषलु कितिधवलु सिरिकण्ठे भीरिज | 'ताव ण जिणवरु जय भगमि जाव ण रणे विक्खु सर-सीरिड' ||११||
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लिरिकण्टहों जोऍषि मुह-कमलु । 'किं ण मुणहि घण- कञ्चन उरु । सहि पुष्फोत्तर विज्जाहिब । उबेलें बिगोसरिय ।
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सहि अवसरे घबल-विसाला हूँ । स विमाणु एन्तु पहें नियत्रि सहूँ तय हुँ ज जाट पाणिग्गाहृणु । भागिय यि सेण्ण गिट्टष हो ।
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कमळाऍ पत्तु कित्तिधवलु ||१|| विज्जाहर से विहिं मेहरु ॥२॥ तहाँ तणिय दुहिय हउँ कमलमङ्ग ॥ ३ ॥ मरहरिडि पारिहिं परियरिय ||४||
पिणु मेरु- जिणाला हूँ ||५|| घत्तिय जयगुप्पल - माफ़ माँ ॥ ६॥ एवहि शिकार काई रशु ॥ ॥ सहीं पातु महन्ता पट्टवहीं ॥८॥