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छट्टो संधि
जिनमें भ्रभर न गूँज रहे हों ॥ १-८ ॥
घत्ता — शाखाएँ बिना बन्दरोंके नहीं है, वानर भी ऐसे नहीं जो बोल न रहे हो। उन्हें देखता हुआ विद्यावर श्रीकण्ठ बह बस गया || १ ||
[ ७ ] श्रीकण्ठ उनके साथ क्रीड़ा करने लगा । उन्हें दूसरोंसे पकड़वाता, और स्वयं पकड़ता । वह किष्क महीधरकी चोटीपर गया। और उसपर चौदह योजन विस्तारका नगर बनाया | समूचा स्वर्णमय और अन्नमय था, उसका नाम किष्कपुर रखा गया। जिसमें चन्द्रकान्त मणिकी चाँदनीको चन्द्रमा समझकर लोग असमय में ही बन्दना करने लगते । जहाँ सूर्यकान्त मणिकी कान्तिको सूर्य समझकर दीपक ज्वालाएँ छोड़ने लगते, जहाँ नीले मणियोंकी कतारोंसे भंगुर भौहोंवाले, मोतियोंके तोरणोंसे दाँत निकाले हुए और विद्रुमद्वाररूपी रक्तिम अधरोंवाले वर ऐसे मालूम होते हैं जैसे एक- दूसरेपर हँस रहे हैं। तब इसी बीच श्रीकण्ठका मनोरंजन करनेवाला वज्रकण्ठ नामका पुत्र हुआ ||१८||
धत्ता - एक दिन नन्दीश्वर द्वीपको जाते हुए देवागमनको देखकर त्रिलोक प्रदीप परमजिनकी वन्दना भक्तिके लिए वह भी गया ||९||
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' [८] अपनी सेना, परिवार और ध्वजके साथ जैसे ही वह मानुषोत्तर पर्वतपर गया, वैसे ही उसका गमन प्रतिरुद्ध हो गया, वैसे ही, जैसे खोटे मुनिके लिए सिद्धालय रुद्ध हो जाता है। वह सोचता है, "मैंने जन्मान्तरमें क्या किया था कि जिससे दूसरे देवता चले गये, परन्तु मेरा विमान रुक गया । अच्छा, मैं भी घोर वीर तप करूँगा जिससे नन्दीश्वर द्वीप में प्रवेश पा सकूँ ।" यह सोचकर वह अपने नगरको लौट गया, राज्यपरम्परा अपने पुत्रको सौंपकर आधे पलमें प्रत्रजित हो