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पउमचरित
दरीहूया ताम रिख सिरु संचालइ करु धुणद
शता मयलम्छशु मणे असतसह किह । संकन्ति चुफ विप्पु जिह ॥९॥
साम महा-रहणेउर-गुस्वरु। जय-जय-सर्दै पहसइ सुरवरू ॥३॥ पवण-कुवेर-वरुण-जम-खन्दै हि। -फम्भाव-छत्त-कहमन्देहि ॥२॥ वन्दिण-सयहिं पढिय-हरिस हिं। यिजाहर-किष्णर-किरिम हि ॥३॥ जोहम-जल-गरुड-गन्धब्वं हिं। जय-जय-कार कान्तहि सवें हिं॥४॥ चलणेहि गम्पि पडिज सहसारहों । णं भरहसरु तिहुभपा-सारहों ॥५॥ समिपुरि महिह विषण विक्रवायहो। धणयहाँ किक्कु जमरायही ॥६॥ मह-णयर वरुणाहिउ वियउ। कमणपुर कुबेरु पट्टविया ॥७॥
पत्ता अपणु वि को वि पुरन्दरण तहि अवसर जो समाविया । मण्डलु एक्कक्कड पक्ष सो सब्यु स इं भुजावियज ॥४॥
[९. णवमो संधि ] एत्यन्सर रिद्धिहँ जन्ताही पायास-लक भुञ्जन्ताहों। उप्पणणु सुमालिहें पुत्तु किह स्रणासउ रिसहहाँ भरहु जिह ॥१॥
[ ] सोलह-आहरप्पालङ्करित। सयमेव मयशु णं अययरिउ ॥३॥ वहु-दिवसें हि आउछेवि अणणु । गड विनाकारणे पुष्फरणु ।।२४ थिउ अवसुत्तु करयलं करें चि । जिह मह-रिसि परम-झाणु धरेंचि ॥३