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________________ सउदहमो संधि [8] वही वसन्त, वही नर्मदा और वहीं उसका जल । वे ही अशोक भाग और आम्रवृक्षोंके वन और मधुकरियोंसे मधुर और सरस लतागृह, वे ही कम्पित शरीर कीरोंकी पक्तियाँ, वहीं कुसुममंजरियोंकी कतारें, वे पल्लच, वही कोयलोंका कलरव, वही केतकीके केशररजका परिमल, वे ही मल्लिकाकी नयी कलियाँ, नयी-नयी फलित दवणामंजरी। वे सूले, घे युवतीजन । देखकर सहर किरणका मन प्रसन्न हो गया । अपने अन्तःपुर र वह वहाँ गण, यहाँ विगाल नर्मदा नदी थी। अपनी आरक्षित सेना उसने दूर ठहरा दी, यन्त्रोंसे निर्मल जल रोक दिया गया ॥१-८॥ घत्ता-बढ़ रहा है हर्ष जिसका, ऐसा माहेश्वरपुरका नरेश्वर, युवतियों के साथ पानीके भीतर इस प्रकार घुसा मानो अप्सराओंके साथ इन्द्र मानसरोवर में घुसा हो ।।२।। [५] सहस्रकिरण सहसा डूबकर जैसे धरतीरूपी वधूका आलिंगन करके आ गया । उसका अर्धोन्मीलित मुकुट ऐसा शोभित हो रहा है, मानो थोड़ा-थोड़ा निकलता हुआ सूर्य हो। जुसका ललाट, मुख और वक्षस्थल ऐसा लग रहा था मानो आधा चन्द्र, कमल और नभमण्डल हो। सहस्रकिरण कहता है, "लो, पास आओ, रमो, जूझो, नहाओ, छिपो।" यह सुनकर और कटाक्षसे क्षुब्ध होकर, दोनों हाथ ऊपर कर महादेवी पानी में डूब गयो । पानीके ऊपर उसका करतल समूह ऐसा लग रहा था मानो रक्तकमलोंका समूह पानीमें-से उठा हो, मानो केतकीका सुन्दर आराम हो, जिसमें नख, सूची ( कौंटे, जो केतकीमें रहते हैं) और कटिसूत्र केशर है। इस प्रकार कामिनीको कमलिनी समझकर स्वरभारसे व्याप्त भ्रमर उसमें लीन हो गये ॥१-८॥
SR No.090353
Book TitlePaumchariu Part 1
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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