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________________ पण्ण रहमो संधि ૪૫ धत्ता - तबतक विरुद्ध यशके लोभी रावणके हजारों अनुचरोंने पुरवरको उसी प्रकार घेर लिया जिस प्रकार वर्ष को बारह माह घेरे रहते हैं ||९|| [११] यन्त्रोंके भय से चबढ़ाये हुए कितनों ही भटने दशमुखसे कहा, "हे आदरणीय, वह नगर दुर्ग्राह्य है ? उसी प्रकार, जिस प्रकार असिद्धोंके लिए मोक्ष | वहाँ सैकड़ों यन्त्र लगे हुए हैं, यमके द्वारा छोड़े गये यमकरणोंके समान । एक योजनके भीतर जो भी चलता है तो वह प्रतिजीवित नहीं लौट सकता।" यह सुनकर रावण जबतक चिन्ताकुल रहता है तबतक नलकूबरकी वधू उपरम्भा, उसका परोक्षमें यश सुनकर उसी प्रकार आसक्त हो उठती है जिस प्रकार मधुकरी कुसुम गन्धसे वशीभूत होकर उसे कपूर अच्छा लगता है और न चन्द्रमा । न जलार्द्रता चन्दन और न कमल । वह कामको दसवीं अवस्था में पहुँच जाती है। वियोगकी विषाग्निसे दग्ध वह किसी प्रकार मरी भर नहीं ||१८|| घचा - यह मेरा यौवन, यह रावण, यह परिवारका वैभव, हे सखी ! यदि तू मिलाप करवा दे तो संसारका इतना ही फल है ।" ॥९॥ [१२] यह सुनकर चित्रमाला कहती है, “मेरे होते हुए क्या सम्भव नहीं है? इतना आदेश-भर दे, शीघ्र । यह कितनी सी बात है ? रावण यदि तुम्हारे रूपका होता है (तुममें आसक्त होता है), तो लो ऐसी ही चाल होगी ।" यह सुनकर सुन्दर है अधरतल जिसका, उपरम्भाका ऐसा मुखकमल खिल गया । वह बोली, "हे हे चन्द्रमुखी हंसगति, वह सुभग यदि किसी प्रकार न चाहे तो उसे आशाली विद्या दे देना और
SR No.090353
Book TitlePaumchariu Part 1
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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