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पउमचरित
[१२] मिणु अविउलु अविश्वल वोसथउ । थिउ सम्मासु पलम्विय-हाथठ ॥ ११ जे णिव तेण समज पत्रक्ष्या। ते दारुण-दुबाएं लक्ष्या ॥२।। सोडण्हें हि तिस-भुक्ख हि खामिय । जिम्मण-णिहालस हि विणामिय ।।३।। चालय कण्डुयणई अलहन्ता । अहि-विच्छिथ-परिवेटिजन्ता ।।४।। घोर-बौर-तवचरणे हि मगगा। में वि रसिपिएलमा int केण वि महियले तिर अप्पड। 'हो हो केण दिनु परमप्पा ॥३॥ पाण जन्ति जइ गण णिोएं। तो किर ण का परलोएं ॥७॥ को वि फलई ताडपिणु भक्खइ । 'जाहुँ' मणेचि को वि काणेक्खाह 140
घत्ता को वि णित्रारइ कि वि आमेलधि चलाण शिणिन्दहो। 'कल्ला देसहुँ काइँ पच्चुत्तर मरह-रिन्दाहों ॥५॥
१३] ताहि तेहएँ पांडवन भवसरें। दयी याणि समुट्ठिए अम्बरें ॥१॥ अहाँ अहाँ कूट-कवष्ठ-जिगन्धहो। कापुरिसहाँ अणाय-परमस्थहों ॥३॥ एण महारिसि.लिङ्ग-पाहणं । जाइ-जरा-मरण-तक-डहणे ॥३॥ फलई म तोडहों जलु मा डोहहों। णं ती णीसात्तणु छपवहाँ ॥ संणिसुणे वि तिस-भुषवादपणे हि । उधूलि उ अप्पाणउ अण्णे हि ॥ मण्णेहिं अपय समय उयाश्य । नहि अवसरे गमि-
विम पराय ॥ कच्छ महाकाहिव-णन्दण । वर-करनाल-हत्य णीसन्दण ||| वेणि वि घिहि चकणे हि शिव पिणु । थिय पास हि जिणु जयकारेप्पिणु ।।
घत्ता
चिन्तिड पमि-विणमीहि 'युत्तउ बिण दोल्लइ णाहो। एउ | जाणहुँ भासि किउ अम्हहिं को भवराहो ॥२॥