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________________ तेरहमो संधि कैलास पर्वतकी जटाएँ उड़ रही हो, कहीं गुहाओंसे वानर निकल आये, मानो महागिरि बहुत-से मुखोंसे चिल्ला रहा हो, कहीं जलकी धवलधारा उछल पड़ी हो, मानो गिरिवरका हार टूट गया हो, कहीं सैकड़ों यगुले उड़ रहे थे, मानो पहाड़की इड़ियाँ धरमरा गग्री हों, कहीं मूंगे उछल रहे थे मानो अभिनव रुधिरकण हो ॥१-९|| पत्ता-दूसरा भी कोई, जो दूसरेके द्वारा अपने स्थानसे युस करा दिया जाता है, व्यवसायसे शून्य और गतिहीन वह किस आपत्तिको नहीं प्राप्त होता ।।१०|| [६] इसी बीच जिसके फनसमूहपर मणिसमूह चमक रहा है, ऐसे धरणेन्द्रका पाताललोकमें आसन काँप उठा। अवधिज्ञानसे जानकर नागराज वहाँ आया जहाँ रावणने कैलास पर्वत उठा रखा था। जहाँ उत्पादनसे शेलातल फूट चुके थे, जैसे पहादरूपी शिशुके कटिसूत्र बिखर गये हों, जहाँ पनचर समूहका अहंकार पूर-चूर हो गया, जहाँ महामुनिपर उपसर्ग हो रहा था। पसीनेके मैल और मलसे जिनका शरीर अलंकृत था और जो विद्यायोगेश्वर और ऋद्धियोंके धारी थे। तृण और स्वर्ण में जो समानभाव रखते थे। मित्र और शत्रुके प्रति जिनका एक-सा स्वभाव था, ऐसे उन मुनिवरकी अपने हाथ-पैर संकुरितकर नागराजने प्रदक्षिणा कर प्रणाम किया। धरतीपर उसकी फणावली ऐसी मालूम देती है जैसे अभिनव कमलोकी अर्चा हो । मणियोंसे चमकती हुई उसकी फणावली ऐसी प्रतीत होती है. मानो सामने जलायी हुई प्रदीप पंक्ति हो ॥१-९॥ __ घत्ता-धरणेन्द्र के नमस्कार करते ही कैलास पर्वत नीचा होने लगा, रावणके दसों मुखसे रक्तकी धारा बह निकली और वह कछुएके आकारका हो गया ॥१०॥ १४
SR No.090353
Book TitlePaumchariu Part 1
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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