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________________ वपरमी संधि पत्ता-इस प्रकार अपनी विशेषता बताकर और तीर चलाकर उसने जयन्तका ध्वज छिन्न-भिन्न कर दिया, मानो कमलके समान नेत्रोंवाली गगनरूपी लक्ष्मीका हार ही उछलकर चला गया हो ।॥ १० ॥ [७] राक्षसोंके शरीरोंका विदारण करनेवाले कनक अखसे दशमुखके पितृव्य ( चाचा) ने उसके रथको तहस-नहस कर दिया। यह भी पता नहीं लगा कि रथ कहाँ गया, किसी प्रकार इन्द्रका पुत्र बच गया । मूच्छासे विह्वल वह बड़ी कठिनाईसे ऐसे उठा, जैसे ऊपर सूंड़ किये हुए महागज हो । भीषण भिन्दिपाल शस्त्रको धारण करनेवाले उसने राक्षसके रथके सौ टुकड़े कर दिये, प्रहारसे विधुर वह संज्ञाशून्य हो गया । मूली चली गयी, उसमें चेतना आ गयी। अपना शरीर धुनता हुआ वह आकाशमें क्रूर महाग्रह के समान दौड़ा। दोनों ही अजेय और प्रबल थे। दोनोंके हाथमें भयंकर गदाएँ थी। दोनों आकाशमें घूम रहे थे, इन्द्र और रावणकी लीक देते हुए । तब इन्द्रपुत्रने वनदण्डके समान, आयामके साथ गदा घुमाकर ।।१-९॥ घत्ता-बक्षस्थलपर आघात किया। निशाचर प्राणविहीन होकर रसातलमें जा गिरा। जयन्तकी जीत हो गयी, मानो निशाचर समूहके सिरपर धूल पड़ गयी ॥१॥ [८] जर अमरपुत्र इन्द्रने श्रीमालको मार दिया, तो उसके सामने इन्द्रजीत दौड़ा, “अरे दुर्विदग्ध, धूर्त, मेरे तातको मारकर कहाँ जाता है ? हताश मुड़-मुड़, मेरे जीते हुए तुझे जीनेकी आशा कैसे ?" यह वचन सुनकर अमरपुत्रने अपने हाथमें धनुष ले लिया। तीरोंका मण्डप तानकर, वे दोनों युद्धके प्रांगण में उछले । शत्रुका नाश करनेवाले दश-मुखके
SR No.090353
Book TitlePaumchariu Part 1
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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