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प्रकाशकीय
भारतीय दर्शन, संस्कृति, साहित्य और इतिहास का समुचित मूल्यांकन तभी सम्भव है जब संस्कृत के साथ ही प्राकृत, पालि और अपभ्रंश के चिरा गत सुविशाल अमर वाङ्मय का भी पारायण और मनन हो। साथ ही, यह श्री आवश्यक है कि ज्ञान-विज्ञान की विलुप्त, अनुपलब्ध और अप्रकाशित सामग्री का अनुसंधान और प्रकाशन तथा लोकहितकारी मौलिक साहित्य का निर्माण होता रहे। भारतीय ज्ञानपीठ का उद्देश्य भी यही है ।
इस उद्देश्य की आंशिक पूति ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी ग्रन्थमाला के अन्तर्गत संस्कृत, प्राकृत, पालि, अपभ्रंश, तमिल, कन्नड़, हिन्दी और अंग्रेजी में, विविध विधाओं में अब तक प्रकाशित १५० से अधिक ग्रन्थों से हुई है । वैज्ञानिक दृष्टि से सम्पादन, अनुवाद, समीक्षा, समालोचनात्मक प्रस्तावना, सम्पूरक परिशिष्ट आकर्षक प्रस्तुति और शुद्ध मुद्रण इन प्रत्यों की विशेषता है । विद्वज्जगत् और जन साधारण में इनका अच्छा स्वागत हुआ है । यही कारण है कि इस ग्रन्थमाला में अनेक ग्रन्थों के अब तक कई-कई संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं।
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अपभ्रंश मध्यकाल में एक अत्यन्त सक्षम एवं समस्त भाषा रही है । उस काल की यह जनभाषा भी रही और साहित्यिक भाषा भी । उस समय इसके माध्यम से न केवल चरितकाव्य, अपितु भारतीय वाङ्मय की प्रायः सभी विधाओं में प्रचुर मात्रा में लेखन हुआ है । आधुनिक भारतीय भाषाओं - हिन्दी, गुजराती, मराठी, पंजाबी, असमी, बांग्ला आदि की इसे