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पटमचरित
तहि अबसरे गुण-अशुराइय। सो पोम विन्दु संपाइयर ॥४॥ रयणात विषा तेण तहिं। 'इमु पुरिस-स्पणु उपाणु कहि ॥५॥ लइ मञ्चर हूपउ गुरु-षय गु । ऍहुँ सो णरु ऍउ तं पुचघणु' ॥६॥ कहकसि णामण वुत्त दुहिय । पप्फुलिय-पुण्डरीय मुहिय ॥७॥ पुत्ति मुहारउ भत्तारु । माणस-मुन्दरि घ सहसार' ॥८॥
घत्ता गड धीय भवेवि णियासवहीं उप्पपण विज रयणासवहीं। घिउ विहि मि म परमसरिहि पं विश्नु तावि-णम्मय-सरिहि ॥१॥
[२] अवलोइय बहु स्यणासत्रेण । श्रगग-भहिसि सई वासण ॥५॥ सु-णियम्विणि परिचलियन्यशि । इन्दीवरच्छि एकअ-चयणि ३२॥ 'कसु केरी कहि अवहम तहुँ । तर पूरै दिदि जणइ सुई ॥३॥ तं सुणेवि स-सङ्क कण चवइ । 'जह मागहों पोमबिन्दु विवाद Rel हउँ सासु धोय कंण ण परिय। ककसि णाम विजाहरिष ॥५॥ गुरुवयणे हि माणिय एड घणु। तर दिपणी करें पाणिग्गाहणु ॥६॥ सं णिसुणे वि सुपुरिम-धवलहरु । उप्पाइड विजाहरणरु ॥७॥ कोकाविउ सयलु वि बन्धुजणु । सहूं कण्णएँ कि पाणिग्गहणु ४
घत्ता
बहु-कालें सुषिणउ हक्लियर अस्थाणे णरिन्यहो अक्खियउ । ‘फाडेपिणु कुम्म, कुमरहुँ पवाणणु उबरें पट्टु महु ॥९॥
डचोलिहें चम्दाइच थिय । "अज-णिमिसाई नाणएँग ।
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तं णिसुणेवि दइएं षिसिकिय (1)॥ १ बुवा रयणासवराणऍण ॥२॥