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घउदहमो संधि
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चौदहवीं सन्धि दूसरे दिन सुन्दर सवेरा होनेपर रावणने प्रयाण किया। उदयगिरिक सिरपर सूर्य दिखाई दे रहा था, मानो यह खोजते हए कि मुझे छोड़कर और निशाकरको लेकर निशा कहाँ चल दी? ॥१॥
[१] सुप्रभातकी दहीके समान किरणोंसे सुन्दर और कोमल किरणोंके दलसे आच्छन्न, अरुण सूर्यपिण्ड ऐसा मालूम पड़ता है मानो बसम्तने अपने जयगृह में प्रवेश करते हुए, मंगलकलशका प्रवेश कराया हो, फागुनरूपी दुष्ट के दूतको निकाल दिया गया जिसने विरहीजनोंको किसी प्रकार मारा भी नहीं था, जिसने वनम्पतिरूपी प्रजाको तहस-नहस कर दिया, फलों और पत्तोंको ऋद्धिको नष्ट कर दिया, गिरि और गाँवोंको जिसने कुहरेसे भर दिया, वन और नगरोंके समूहको जिसने खूब सताया, नदीके प्रवाह मिथुनोंको नष्ट कर जिसने वरुणके हिमघनकी श्रृंखलाओंमें डाल दिया, जिसने इक्षु वृक्षोंको यन्त्रोंसे पीड़ित किया, तैरनेके मण्डपसमूहको पीड़ा पहुँचायी, जिसके राज्य में केवल पलाशको ही वृद्धि प्राप्त हुई, उस फागुन माहका मुख काला करके ||१-८॥
घत्ता--पंकज है मुख जिसका, कुवलय जिसके नेत्र हैं, केतकीका पराग सिरशेखर है, पल्लत्र करतल हैं, कुसुम उज्ज्वल नख हैं, ऐसा बसन्तरूपी नरेश्वर प्रवेश करता है |२||
२] झूलों और वन्द नवारोंसे जिसके द्वार सजे हुए हैं, ऐसे बसन्तके श्रीगृहमें यसरने प्रवेश किया। कमलोंके वासगृहोंमें शब्द ही हैं नूपुर जिसके, ऐसा मधुकरीरूपी अन्तःपुर ठहर गया। कोयलरूपी कामिनी उद्यानोंमें शुकरूपी सामन्त लतागृहों में, पंकजोंके छत्र और इपड सरोवर-समूह में, मयूर