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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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4 श्री वीतरागाय नमः 5:
महावीर जीवन बोधिनी
प्रेरक :
वारणीभूषण श्री गिरीशचन्द्रजी महाराज:
ㄓ
संग्राहक :
साहित्यरश्मि श्री जिज्ञेशमुनि
车
प्रकाशक :
कलकत्ता पंजाब जैन सभा
६६बी, चक्रबेरिया रोड नार्थ,
कलकत्ता-७०००२०
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'पुस्तक : महावीर जीवन बोधिनी
1
आशीर्वचन : पंडित रत्न पू. श्री जयंतीलालजी म. प्रेरक : वाणीभूषण पू. श्री गिरीशचंद्रजी म. संग्राहक : साहित्य रश्मि पू. श्री जिज्ञेशमुनि
प्रथमावृत्ति
वीर संवत् २५११
दि० ८-६-८५ रविवार
मूल्य
सजिल्द रु०१२/- अजिल्द रु० ११/
प्रति
५०००
प्राप्तिस्थान
विक्रम संवत् २०४१
- कलकत्ता पंजाब जैन सभा
: ६६वी, चक्रवेरिया रोड नाथं
कलकत्ता- ७०००२०
ज्ञान प्रचारार्थ
सजिल्द रु०५/
अजिल्द रु०४/
जमनादास एण्ड कं०
१३०९ चांदनी चौक
दिल्ली- ११०००६
मुद्रक :
मेहता फाइन आर्ट प्रेस
२०, बालमुकुन्द मक्कर रोड,
कलकत्ता-७००००७
फोन : ३४-१२४७
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समर्पण
पूर्व भारत उदयगिरि के महासंत
संलेखनाधारी तपोधनी
पूज्य श्री जगजीवनजी स्वामी
के
पादपद्म में
सविनय अर्पण
प्राण- जग- जयंत गिरि चरणरेणु
जिज्ञेशमुनि
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क्रमांक
१
२
81
३
४
५
६
७
IS
५
अनुयोग का अनुक्रम
विषयांक
प्रश्नांक
पूर्वभव पर्याय
४५
च्यवन और गर्भ पर्याय ३२
जन्म पर्याय
३५
कुमार पर्याय
गृहत्याग दीक्षा पर्याय ४३३
तीर्थंकर पर्याय
७१०
निर्वाण पर्याय
प्रकीर्णक
७७
४७.
२०
पृष्ठांक
१
१०
१८.
२३.
३६.
१७१
३३६
३४६.
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प्रकाशकीय
हमारे परम सौभाग्य से विगत वर्ष वाणीभूषण पूज्य गुरुदेव श्री गिरीशचन्द्रजी म० तथा साहित्यरश्मि पू० जिज्ञेश मुनिजी म० का चातुर्मास सभा के नवनिर्मापित भवन में अत्यन्त धर्म जागृति के साथ सम्पन्न हुआ । चातुर्मास काल में नमस्कार महामन्त्र का प्रखंड जाप, भक्तामर स्तोत्र का सामूहिक पाठ, त्यागतपश्चर्या, ज्ञानसाधना आदि अनेक महत्त्व पूर्ण धार्मिक अनुष्ठान हुए। जैन ज्ञान- प्रदर्शिनी के अपूर्व प्रायोजन ने जैन साहित्य व संस्कृति के प्रति जन-मानस में अनुराग प्रस्तुत महावीर जीवन बोधिनी उत्पन्न कर दिया । पुस्तिका के प्रकाशन की प्रेरणा उसी प्रदर्शनी से ही प्राप्त हुई ।
यह लघु पुस्तिका भगवान महावीर के जीवन पर प्रश्नोत्तर पद्धति से पूर्ण प्रकाश डालती है । संक्षिप्त में इसमें सम्पूर्ण भगवान महावीर का जीवन व दर्शन समाहित है ।
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हम मुनि द्वय के अत्यन्त प्रभारी हैं जिन्होंने हमारा अनुरोध स्वीकार कर गुजराती से हिन्दी में अनुवाद कर तथा परिवर्द्धन कर हमें प्रकाशन का अवसर प्रदान किया ।
हम प्रस्तुत पुस्तिका के मुद्रक मेहता फाईन आर्ट प्रेस से संचालक सुपरिचित समाजसेवी व विश्रुत विद्वान श्री मदन कुमारजी मेहता के अत्यन्त आभारी हैं जिन्होंने व्यावसायिक व्यस्तता के बावजूद भी प्रस्तुत पुस्तिका का सम्पादन - संशोधन कर मनोहर स्वरूप प्रदान किया । पत्र-व्यवहार के साथ मैटर आदि प्रेस में पहुंचाने के लिए श्री योगेश भाई जशारणी का सहयोग भी भुलाया नहीं जा
सकता ।
यदि इस पुस्तिका का अधिक से अधिक समाज ने लाभ उठाया तो हम अपने प्रयत्न को सार्थक अनुभव करेंगे । घर घर में यह पुस्तक पहुँचे यही हार्दिक स्पृहा है ।
-
मंत्री,
कलकत्ता पंजाब जैन सभा
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.. प्रकार प्रश्नोत्तरका- ..... - चरित्र महावीरका ...
आपके सम्मुख एक ऐसी पुस्तिका आ रही है-- जो सैंकड़ों प्रश्न और उत्तर से भरी पड़ी है, अर्थात् . सम्पूर्ण सम्पादन प्रश्न एवं उत्तर से ही सम्पादित : हुआ है। आपको यह प्रकार थोड़ा विचित्र सा लगेगा किन्तु हमारी प्राचीन शैली का सर्वमान्य व सर्वश्रेष्ठ : साहित्य प्रायः प्रश्नोत्तर से सम्पादित हुआ है। श्रीमद् भगवतीसूत्र ३६ ००० ( छत्तीस हजार ) प्रश्नः और उत्तर का महाकाय-आकार ग्रंथ है ; जो जैन आगम साहित्य का मुकुटमणि शास्त्र है।
श्रीमद् भगवद् गीता भी प्रश्न-उत्तर का ही शास्त्र है जो भारतीय संस्कृति का सार ग्रन्थ है। श्रीमद् भागवत किंवा वेद साहित्य, दर्शन साहित्य और योगादि । साहित्य भी प्रश्न-उत्तर का हो भंडार है। ___ श्री मधुरभाषी वाणीभूषण गिरीशचंद्रजी मुनि तथा श्री जिज्ञेश मुनि ने इतने सरल तरीके से प्रश्न-उत्तर शैली. अपनाकर भगवान महावीर की जीवनी को एक नया ही आयाम दिया है और सहज भाव से इसके द्वारा महावीर के सम्बन्ध में हमें अपूर्व जानकारी हासिल हो जाती है ।। प्रस्तुत पुस्तक पढ़ने के बाद आप प्रभावित हुए विना नहीं:
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S
"रह सकते । मैं तो इससे अत्यन्त प्रभावित हुआ हूँ | मेरा - खयाल है कि इस पुस्तक के प्रकाशन से सहस्त्र २ जनता अवश्य लाभान्वित होगी और बीसों प्रावृत्तियां प्रकाशित होंगी । जनसाधारण के लिए यह अनुपम पुस्तक है ही विद्ववर्ग के लिए भी बहुत कुछ जानकारी उपलब्ध कराती है ।
आनन्द की बात यह है कि जैसे आम खाया नहीं जाता - चूसा जाता है और रुक-रुककर वह ग्राह्लाद की अभिव्यंजना व्यक्त करता है । जब हम रुक-रुक कर उसे चूसते है तब वह स्वाद का भरपूर आनन्द देता है । उसीभाँति प्रस्तुत पुस्तिका के सभी प्रश्न व उत्तर आम की गुठली की तरह मधुर व रससिक्त हैं । जब हम एक-एक कर प्रश्न के उत्तर को चूसेंगे, तब अपूर्व आनन्द व ज्ञान की निष्पत्ति होगी ।
संक्षेप में इतना ही कहना चाहता हूँ कि भगवान महावीर के अलौकिक जीवन के अनेक पहलुनों पर दृष्टिपात करते हुए इस ग्रंथ ने कई भावों को उजागर किया है और चमत्कारिक ढंग से हमारी अनेक जिज्ञासानों को परितृप्त किया है। वस्तुत: यह प्रयास भूरि-भूरि प्रशंसा और हार्दिक बधाई का पात्र है ।
Co
आनंद-मंगलं "
जयंत मुनि
पेटरवार (विहार) : दि ० २-४-८५
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प्रस्तुति
. श्रमरण भगवान महावीर का उदात्त और पावन जीवन जन-जन के अन्तर्मानस में अभिनव चेतना का संचार करता है। वह इन्द्रधनुष की तरह चित्ताकर्षक है। यही कारण है कि अतीतकाल से ही भगवान 'महावीर की जीवन-गाथा विविध रूपों में प्रस्तुत की गई है। आचारांग में तथा कल्पसूत्र में उनके जीवन की संक्षिप्त रूपरेखा है। आवश्यक नियुक्ति, आवश्यक चूरिण, महावीर चरियं और त्रिशष्टिशलाका पुरुषचरित्र में उनके महान् जीवन को, विस्तार से निरूपित किया गया है। आधुनिक युग में महावीर भगवान के. जीवन को विश्व-साहित्य की विभिन्न विधाओं में. प्रस्तुत किया है। शोध प्रबन्ध, काव्य, नाटक, उपन्यास आदि विधाएँ महावीर के जीवन को प्रस्तुत करने में सक्षम रही हैं। "महावीर जीवन वोधिनी" पुस्तक में महावीर के जीवन और दर्शन को प्रश्नोत्तर शैली में प्रस्तुत किया गया है। यह शैली बहुत ही सरल, सुगम और प्रेरणादायी तथा सहज ग्राह्य है।
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में कुछ भी जानकारी नहीं है। अतः यह प्रयास सबके लिए सहज समझ का व उपकारक होगा।
आप अपने घर में अनेक प्रकार की आधुनिक पत्रपत्रिकायें लाते हैं किन्तु अपने परिवार के संस्कार संवर्धन के लिए धार्मिक पुस्तकें बहुत कम लाते हैं। अतः "महावीर जीवन बोधिनी' जैसी पुस्तिका को अवश्य अपनाइये और ज्ञान की अनुपम निधि को पाकर धन्य बनिये ।
श्री जिज्ञेगा मुनिजी का यह हिन्दी अनुवाद जैन साहित्य जगी को अनुपम देन है। उनका पुरुषार्थ मात्र सराहनीय ही नहीं वरन् अनुकरणीय भी है।.... ___ इसका पंजाव जैन सभा, कलकत्ता ने.प्रकाशन कर साहित्य के प्रति अपना अनुराग और संतो के प्रति श्रद्धा का परिदर्शन किया है। अतः सभा के सदस्यगण धन्यवाद के पात्र हैं।
हम आशा करते हैं कि इस प्रश्नोत्तर पद्धति से हमारी ज्ञान-चेतना और अधिक तेजस्वी बनेगी।
चाँदनी चोक, दिल्ली दि० २७-६-१९८५
गिरीश मुनि
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मेरा अपना कुछ नहीं
मनुष्य का वास्तविक यदि कोई सच्चा मित्र है तो वह है-धार्मिक-आध्यात्मिक साहित्य । जिसका साथ मनुष्य के जीवन में एक दीपक का काम करता है. नये संस्कारों का आरोपण करता है व आत्मोत्थान के मार्ग पर अग्रसर करता है। विश्व में प्रतिदिन नवीननवीन साहित्य का प्रकाशन हो रहा है, लेकिन उसमें कुछ ही साहित्य उर्ध्वगामी होता है।
साहित्य और संस्कृतिका अटूट सम्बन्ध है। यदि संस्कृति दीपक है तो साहित्य तेल । जिससे दीपक निरंतर प्रज्वलित रहता है। साहित्य और संस्कृति का पृथक्करण अज्ञान तिमिर को जन्म देता है। जैन संस्कृति आगम-साहित्य में संरक्षित है । __ भौतिकवाद के इस वैज्ञानिक युग में इस प्रकार के साहित्य की विशेष आवश्यकता है। इसके द्वारा सहज ही में लोगों को अपने परमात्मा की ओर मोड़ा जा सकता है। प्रभु महावीर के जीवन-बोध में एक
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ऐसी संजीवनी है जो कि अबोध किन्तु जिज्ञासु या पिपासु हृदय को स्पर्श कर सचेतन कर देती है । 'परिणामस्वरूप प्रभु के प्रति अभिप्सा जागृत हो निखरने लगेंगे और वात्सल्य
जायेगी, करुणा के भाव का स्रोत बहने लगेगा |
जब मैंने इस पुस्तक की गुजराती में रचना की और प्रकाशित होकर जिज्ञासु जनों के हाथों में गई तो इसका हिन्दी अनुवाद प्रकाशित करने के लिये अनेक सुझाव आये | मेरे मन में भी विचार आया कि क्यों न इसे हिन्दी में अनुवादित कर दिया जाय, ताकि मरुधर की चिरकालीक प्यासी जनता को अपने प्रभु के जीवन का ज्ञान हो सके, वह अपनी साहित्यिक पिंपांसा बुझा सके। इसी प्रयोजन से मैंने इस कार्य को उठाया और इसको आकार देने में अनेक ग्रन्थों के अध्ययन किया । पूज्य गुरुदेव श्री गिरीशचंद्रजी म. सा. का परम सहयोग व वात्सल्यभरा मार्गदर्शन बहुत उपयोगी रहा ।
इस स्वर्ण अवसर पर पूर्व भारत के योगीराज अनशन आराधक पूज्य श्री जगजीवनजी म. सा. की असीम कृपा और पूर्व भारत उद्धारक पंडितरत्न पूज्य दादा गुरुदेव श्री जयंतीलालजी म. सा. का अनन्य आशीर्वाद प्राप्त हुआ है ।
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अमृत का एक बिंदु ही जैसे मानव को अमर बना देता है, वैसे ही प्रभु महावीर के जीवन का एक मुक्ताकरण नर से नारायण, जोव से शिव और मानव से महा मानव बनाकर आत्मा को परमात्मा की पहचान करा देता है।
भगवान महावीर के जोवन के अगाध महासागर से अनमोल रत्नों को चुनकर यह प्रश्न हार बनाया है; जिसे पाठकों को समर्पित करते हुए अत्यन्त प्रसन्नता व गौरव का अनुभव कर रहा हूँ।
सुज्ञजन ! इस रत्नों के हार को सम्हालें यत्नपूर्वक इसको अपने जीवन का शृगार बनायें। अच्छा"ध्यान रखें.... इसकी पाशातना न हो।
जहांतक बनसका वहाँतक मैंने अनुवाद में महावीर के जीवन की मूल भावना को अक्षुण्ण रखने का पूर्ण प्रयत्न किया है। फिर भी यदि कहीं त्रुटि दिख पड़े तो इसके लिए पाठकगण क्षमा करेंगे।
ॐ शांति
कोल्हापुर मार्ग,दिल्ली १५ अगस्त १९८५
जिज्ञेश मुनि
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प्रथम ऐतिहासिक चातुर्मास
हमारे परम सद्भाग्य से उदयगिरि के महासंत अनशन (संथारां) आराधक तपस्वी पू० श्री जगजीवनजी महाराज की परम कृपा और परम दार्शनिक, नेत्रज्योतिप्रदाता परम श्रद्धय पूज्य श्री जयंतीलालजी महाराज को. आज्ञा-आशीर्वाद से उनके शिष्यरत्न वाणीभूषणः पूज्य श्री गिरीश चन्द्रजी महाराज एवं साहित्यरश्मि पूज्य श्री जिज्ञेश मुनिजी महाराज ठाणा-२ हमारे नव-निर्मित अहिंसा-भवन के प्रांगण में दि० १७-८-८४ को मंगल चातुर्मासार्थ पधार कर सुख-शाता से विराजमान रहे। ज्ञान-ध्यान और तप-त्याग
पू० मुनिद्वय के सान्निध्य में प्रतिदिन प्रातः ध्यानयोग की साधना का अपूर्व प्रयोग किया जाता था। प्रवचन में श्रीमद् उत्तराध्ययन सूत्र की अमृतमय वाणी की श्रुत-सरिता निरंतर प्रवाहित रही। जनता ने संयम-तपका विविध रूप से अपूर्व धर्मलाभ उठाया । पर्वराज पर्दूषण-महोत्सव की छत्र-छाया में तपश्चर्या, .संड जाप-साधना, तपस्वियों की शोभा-यात्रा, विविध
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विषयों पर जीवन प्रेरक प्रवचनमाला का आयोजन, भिन्न-भिन्न प्रभावना, तप-साधकों का सम्मान, सामूहिक पारणा का प्रसंग यथाक्रम बहुत ही सफल रहे । प्रबोधक जैन प्रदर्शनी
महावीर निर्वाण महोत्सव के बाद श्रुत ज्ञान पंचमी के उपलक्ष में पूज्य मुनिद्वय की प्रेरणा से जैन ज्ञान प्रदर्शनी का विशाल आयोजन जैन - जैनेत्तर जनता के लिए किया गया जो ज्ञान प्रबोधक, अपूर्व और आकर्षक रहा । बाल- शिविर अभियान
चातुर्मास में प्रति शनि-रविवार को बाल-शिविर में बच्चों ने धार्मिक विधियों का क्रियात्मक प्रयोग सीखा एवं जैन तत्त्वबोध का रसास्वादन किया । जैन संस्कारों के अभिज्ञान से वे सुसंस्कृत बने । अंग्रेजी शिक्षण प्राप्त करने वाले बच्चे भगवान महावीर और जैनधर्म की विशेषताएँ समझकर अपनेआपको जैन वोलने में मुनिश्री का ज्ञान-दान गौरव अनुभव करने लगे । अभियान परमोपकारी रहा ।
पंचवर्षीय जन-जागृति अभियान
संत द्वयने हमें ज्ञान-ध्यान, तप त्याग का अपूर्व लाभ दिया चातुर्मास समाप्ति पर जैनसभा की ओर से ससम्मान विदाई लेकर वालीगंज आदि कलकत्ते के अनेक स्थानों
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में पधारे। लोगों ने सत्संग का सुयोग पाकर अपने को धन्य अनुभव किया। .
उत्तर भारत की विहार-यात्रा के पूर्व दि. २४-११-८४ शनिवार को २७ नं० पोलोक स्ट्रीट, जैन स्थानक में एक भव्य विदाई समारोह का आयोजन हुआ। जिसमें साध्वीरत्न विदुषी पूज्या श्री प्रारणकुवरजी महासतीजी ठाणा-५ और जैन समाज के अग्रगण्य बंधुओं के हृदयस्पर्शी भाषण हुए। कृतज्ञता से प्रागत जन-समुदाय भावविह्वल था।
मुनिवरों का बिहार, बंगाल और उड़ीसा-पूर्व भारत के प्रमुख प्रान्तों का पंचवर्षीय धर्म-जागतिअभियान बहुत हो सफल और उपकारक रहा ।
अपनी दीक्षाभूमि कलकत्ता से विदाई लेते हुए पूज्य श्री गिरीशचंद्रजो महाराज ने विशाल जन समुदाय को शासन-भक्ति, धर्म के प्रति आस्था, संगठन के प्रति समर्पण के साथ सदा जागृत रहने का संदेश दिया। उन्होंने पूर्व भारत के जैन भाई-बहिनों के धर्म-प्रेम संत-भक्ति व सद्भाव की प्रशंसा की। मंगल-विहार की बिदाई यात्रा
दि० २५-११-८४ रविवार को प्रातः ७-३० बजे सैंकड़ों नर-नारी-युवकों और बच्चों के साथ मंगल ध्वनियों से गुजायमान वातावरण में विहार करते हुए
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पूज्य मुनिद्वय ८ कि.मि. दूर धर्म-प्रमी श्री भूपेन्द्र कुमार जैन की फेक्टरी ए.जे. मेइन एण्ड कं. शालीमार पधारे। पूज्य गुरुदेव का प्रेरणादायक प्रवचन हुआ। धर्म स्नेही युवकों ने पूज्य मुनिवरों के प्रति परमादर के साथ अपनी भक्ति पुष्पांजलियां समर्पित की। पश्चात् आगत समुदाय-प्राय दो हजार भाईबहनों ने श्री बी.के. जैन परिवार की ओर से आतिथ्य ग्रहण किया। भोजनोपरान्त मांगलिक श्रवण के पश्चात् समागत भाई-बहिन भावाभिभूत मनसे अपने अपने घर लौट गये।
पूज्य गुरुदेव श्री जयंतीलालजी महाराज के मंगल आशीर्वाद से सरलात्मा पूज्य मुनि श्री गिरीशचंद्रजी महाराज एवं पूज्य श्री जिज्ञेश मुनिजी महाराज ठारणा २ २ ने हमारे प्रथम चातुर्मास को ऐतिहासिक और सफल बनाया। पंजाब जैन सभा पूज्य मुनिद्वय के चरणों में सविनय कोटि-कोटि वंदन के साथ श्रद्धा-भक्ति प्रगट कस्ती है। मुनिवरों की उत्तर भारत-दिल्ली तथा विभिन्न उत्तर भारतीय नगरों की विहार-यात्रा निर्विघ्न तथा अधिकाधिक जन-कल्याणकारक हो, यही मंगल कामना । .
विनीत : दि. १-६-८५
__ श्री भूपेन्द्र कुमार जैन
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कलकत्ता पंजाब जैन सभा संक्षिप्त परिचय
भारत की स्वतन्त्रता के कुछ ही समय पश्चात् कुछ पंजाबी जैन परिवारों का व्यवसाय हेतु कलकत्ता आगमन हुआ । कालानन्तर में वे यहाँ के निवासी बन गये । पंजाब से कलकत्ता आने के बाद एक सामाजिक मंच के अभाव में वे लोग धार्मिक क्रियाओं तथा परम्पराओं से अपने को वंचित अनुभव करने लगे ।
सन् १९५३ में पूज्य मुनि प्रतापमलजी महाराज तथा पूज्य मुनि श्री हीरालालजी महाराज का चातुर्मास कलकत्ता में हुआ । उनकी प्रेरणा व प्रोत्साहन से प्रगत पंजाबी परिवारों ने महावीर जैन सभा नामक एक संस्था की स्थापना की ।
१९६१ में श्री कैलाशचन्द्र जैन के नेतृत्व में सभी पंजावी जैन बन्धुनों ने मिलकर कलकत्ता पंजाब जैन सभा नामक संस्था का गठन किया व सोसाइटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट के अन्तर्गत इसे पंजीकृत करवा लिया । इससे समाज के लोगों में नये उत्साह का संचार हुग्रा और वे भी अपने निजी भवन निर्माण की परिकल्पना करने लगे ।
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— सन् १९६३ में कुछ कारणवश श्री कैलाशचन्द्रजी बम्बई चले गये और जाते समय कलकत्ता पंजाब जैन सभा का नेतृत्व श्री जगदीशराय जैन के कुशल हाथों में सौंप गये।
समय-समय पर कलकत्ता में समागत सभी पूज्य साधु वृन्द हमारे प्रेरणा स्रोत रहे। इनमें पूज्य मुनि श्री जयन्तीलालजी म० का विशेष स्थान है । सन् १९७५ में पूज्य विजय मुनिजी महाराज का कलकत्ता में चातुर्मास हुआ। उनकी ही बलवती प्रेरणा-प्रोत्साहन से हमारी छोटो-सी जमात ने सवालाख रुपैया एकत्र कर लिया। इससे हमारे मन में यह विश्वास दृढ़ हो गया कि विना किसी बाह्य सहायता के हम ३० या ३५ पंजाबी परिवार अपना भवन निर्माण करा सकेंगे।
३० अगस्त १९८१ रविवार को वह शुभ दिन उपस्थित हुना। हमारे माननीय प्रमुख श्री जगदीशरायजी जैन के करकमलों द्वारा भूमिपूजन के साथ शिलान्यास हुआ । पूज्य तपस्वी मुनिश्री लाभ चन्द जी म० की भी प्रवल प्रेरणा रही। शिलान्यास समारोह में उनकी उपस्थिति से हमारा संकल्प और दृढतर हुआ। तत्पश्चात् श्री तिलकचन्द जैन तथा श्री रणजीतराय जैन के अथक प्रयास से और श्री भूपेन्द्र कुमार जैन, श्री अमृत कुमार जैन तथा श्री बलदेव राम जैन के पूर्ण सहयोग से यह
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;
भवन जनवरी १९८३ में बनकर तैयार हो गया १० फरवरी १९८३ को इस भवन का उद्घाटन श्रीमती विद्यावती जैन धर्मपत्नी श्री जगदीश रायजी जैन के करकमलों द्वारा सोल्लास सम्पन्न हुआ और इसका नाम अहिंसा भवन रखा गया ।
भवन निर्माण व उद्घाटन के पश्चात् हमारे मन में तीव्र स्पृहा थी कि पूज्य साधु-मुनिराजों की चरण रज से हमारा यह नया भवन पवित्र हो । हमने पूज्य मुनिश्री जयन्तीलालजी म० साहब से १६८४ का चातुर्मास हमारे इस नवीन भवन में करने के लिये विनति की ।
X
पूज्य मुनिश्री ने सानुग्रह कृपाकर अपने सुशिष्य वाणीभूषण पूज्य गिरीशचन्द्रजी म. तथा साहित्यरश्मि जिज्ञेश मुनिजी म. को चातुर्मास करने की आज्ञा प्रदान की । इस भवन में प्रथम चातुर्मास होने से बहुत ही धर्मोद्योत हुआ । हमारे समस्त परिवारों ने भी पूरा
लाभ उठाया ।
हमें आशा है भविष्य में भी हमारे इस ग्रहिंसा भवन में विविध धार्मिक अनुष्ठान सम्पन्न होते रहेंगे तथा पवित्र वीर वाणी व जयनाद से इसका सभागार गु ंजित होता रहेगा ।
निवेदक
मंत्री.
कलकत्ता पंजाब जैन सभा
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भगवान महावीर की अनुपम तपःसाधना पर
एक विहंगम दृष्टि
देवाधिदेव श्रमण भगवान महावीर स्वामी को तपःसाधना अन्य तेईस तीर्थंकरों की अपेक्षा अधिक उग्न एवं कठोर रही। यद्यपि उनका साधना-काल बहुत लम्बा नहीं था, पर इस अवधि में उन्हें जितने दुःसहनीय परिषह सहन करने पड़े उतने उनके किसी पूर्ववर्ती तीर्थंकर ने सहन नहीं किये। भीषण उपसर्गों के मध्य भी वे मेरु सदृश अविचलितं व अकम्पित रहे। साधनापथ से उन्हें कोई च्युत् नहीं कर सका।
उनके द्वारा प्राचरित तपःसाधना की तालिका नीचे दी जा रही है :
१ (१८० दिन का एक तप)
छः मासिक तप पाँच दिन कम छः मासिक तप चातुर्मासिक तप
१ ९
(१७५ दिन का एक तप) (१२० दिन का एक तप)
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तीन मासिक तप
सार्धद्विमासिक तप
द्विमासिक तप
सार्धद्विमासिक तप
मासिक तप
सोलह दिन का तप
पाक्षिक तप
सर्वतोभद्र प्रतिमा तप
महाभद्र प्रतिमा तप
अष्टम भक्त तप
भद्र प्रतिमा तप
षष्ट भत्त तप
२ (६० दिन का एक तप)
. ७५ दिन का एक तप
1
( ६० दिन का एक तप )
( ४५ दिन का एक तप )
( ३० दिन का एक तप)
( १६ दिन का एक तप)
(
१५ दिन का एक तप)
२
६
२
१२
१
७१
१०
४
१२
१२
२२.६
(
{
(
(
(
१० दिन का एक तप )
४ दिन का एक तप )
३ दिन का एक तप )
२ दिन का एक तप )
२ दिन का एक तप )
इस प्रकार भगवान महावीर स्वामी ने अपनी छद्मस्थावस्था के संयमकाल - १२ वर्ष छ: मास १५ दिन क्रे कुल ४५१५ दिनों में ४१६६ दिन उपवास किये और ३४६ दिन आहार ग्रहण किया था ।
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पूर्व भव पर्याय
। प्र. १ महावीर स्वामी कौन थे ? । उ. जैनधर्म के २४वें तीर्थंकर थे ।
२ महावीर स्वामी का आविर्भाव कौन से कालः
में हुआ था ? उ. अवसर्पिणी काल में । प्र. ३ महावीर स्वामी कौन से आरे में समुत्पन्न.
हुए थे ? उ. चौथे बारे में। प्र. ४ महावीर स्वामी का प्रादुर्भाव कौनसे द्वीप में
हुआ था ? उ. जम्बुद्वीप में। प्र, ५ महावीर स्वामी कौन खंड में समुत्पन्न हुए थे ? उ. भरत खंड में प्र. ६ महावीर स्वामी के जीव ने कौनसे भव में:
. सम्यक्त्व की प्राप्ति की थी? उ. नयसार के प्रथम भव में प्र. ७ महावीर स्वामी ने प्रथम भव में सम्यकत्व की
प्राप्ति कैसे की थी?
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उ. पंच महाव्रतधारी साधुओं को शुद्ध भाव से
आहार दान दिया, साधुओं के उपदेशानुसार मोक्ष मार्ग का पालन करते हुए सम्यक्त्व की
प्राप्ति की थी। . . .:: प्र. ८ महावीर स्वामी ने प्रथम भव में साधुओं को
आहार दान कहाँ दिया था ?
जंगल में। प्र. ६ महावीर स्वामी अपने प्रथम भव में जंगल में
. . क्यों गये थे ? उ. काष्ठ ( लकड़ी ) संग्रह करने के लिए प्र. १० म. स्वामी अपने प्रथम भव में काष्ठ का क्या
करते थे? राज्य में श्रेष्ठ लकड़ी की आवश्यकता थी।। जिसकी जिम्मेवारी नयसार ने अपने ऊपर ले
रखी थी। प्र. ११ नयसार कौन था ? । उ ग्राम का मुखिया था। 'प्र. १२ नयसार किसके राज्य का ग्राम प्रमुख था ? .. उ. शत्रुमर्दन राजा के राज्य का । पृथ्वीप्रतिष्ठान
नगर का मुखिया था।
ધ
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+
..१३. शत्रुमर्दन कहाँ के राजा थे ?. उ. जयंती नगर के प. १४ म. स्वामी ने कौन से भव में नीचं गोत्र का
. . वंधन किया था ? उ. मरीचि के तीसरे भव में ।
म. स्वामी ने नीच गोत्र का बंधन कैसे किया _ था ?
उच्च कुल का अहंकार करने से । प्र. १६ मरीचि कुमार कौन था ? उ. वर्तमान अवसपिणी काल में प्रथम तीर्थंकर
भगवान् ऋषभदेव हुए। उनके ज्येष्ठ पुत्र भरत प्रथम चक्रवर्ती थे। चक्रवर्ती भरत के अनेक पुत्रों में एक विशिष्ट तेजस्वी पुत्र था
मरीचि कुमार। प्र. १७ म. स्वामी को नीच गोत्र का बंधन कितने भव
तक रहा था ?
अंतिम भव तक। प्र. १८ म. स्वामी ने कौनसे भव में तीर्थकर नामकर्म
उपाजित किया था ? नन्द राजा के २५ वें भव में ।
.
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________________
#
( ४ ). प्र. १६ म. स्वामी ने तीर्थंकर बनने का पुण्य कर्म
किस प्रकार उपाजित किया था ? .. .. उ. . बीस स्थानकादि तप की आराधना द्वारा-1.. प्र. २० म. स्वामी के सम्यक्त्व प्राप्ति के बाद कितने
भव थे? . . .: उ. २६ भव। . . . . . २१ म. स्वामी के जीव ने २७ भवों में देव के कितने भव किये थे ।.
: उ. १० भव । । प्र. २२ म. स्वामी के जीव ने २७ भवों में मनुष्य के. .
. कितने भव किये थे ? उ. १४ भव । प्र. २३. म. स्वामी के जीव ने २७ भवों में तिर्यंच के
कितने भव किये थे? . उ. .. १ भव प्र. २४ म. स्वामी के जीव ने २७ भवों में नारकी के.
कितने भव किये थे ? उ. . . २ भव । प्र. २५ म. स्वामी २७ भवों के अन्तर्गत. देवयोनि के
१० भवों में कौन-कौन से देवलोक में प्रादुर्भूत
हुए थे ?
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________________
( ५ )
२ रे भव में प्रथम सौधर्म देवलोक में .
४ थे
७ वें
६ वें ११ वें
१३ वें
१५ वें
१७ वें
सातवें महाशुक्र
२४ वें
सातवें महाशुक्र
२३ वें
दशवें प्रारणत
'प्र. २६. म. स्वामी ने पदवियाँ प्राप्त की थी ?
२७
उ.
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99
उ.
"
"}
11
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"
"
"1
33
पंचम ब्रह्म
प्रथम सौधर्म
द्वितीय ईशान
"
11
11
तृतीय सनत्कुमार,"
चतुर्थ माहेन्द्र
पंचम ब्रह्म
11
"
17
11
उ.
३ पदवियाँ |
प्र. २७ म. स्वामी ने १७ भव के अन्तर्गत कौन-कौन
सी पदवियाँ प्राप्त की थी ?
"
भवों के अंतर्गत कितनी
१८ वें भव में त्रिपृष्ठ वासुदेव की । २३ वें भाव में प्रियमित्र २७ वें भव में तीर्थंकर महावीर की ।
चक्रवर्ती की ।
प्र. २८ म. स्वामी ने २७ भव के अंतर्गत ब्राह्मण के
कितने भव किये थे ?
६ भव ।
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________________
4
प्र० २६ "म. स्वामी २७ भव के अंतर्गत कौन-कौन से
भवमें ब्राह्मण हुए थे ? ..। ५ वें भव में कौशिक .. ब्राह्मण ६ 8 भव में पुष्यमित्र ब्राह्मण ८ वें भव में अग्निद्योत ब्राह्मण १० वें भव में मेंअग्निभूति ब्राह्मण १२ ३ भव में भारद्वाज ब्राह्मण
१४ वें भव में स्थावर ब्राह्मण प्र. ३० म. स्वामी ने २७ भव के अंतर्गत कौन-कौन से
भव में संयम ग्रहण किया था ? ३ रे मरीचि राजकुमार के भव में । १६ वें विश्वभूति , , २२ वें विमल कुमार राजा के , २३ वें प्रिय मित्र चक्रवर्ती के , २५ वें नंदन राजकुमार के ,,
२७ वें वर्धमान राजकुमार के , प्र. ३१ मरीचि राजकुमार ने किसके पास संयम ग्रहण .
किया था ? प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव भगवान को केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई और देवों ने समवसरण की
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________________
( ७ )
रचना की । इसी समवसरण में भगवान ऋषभदेव ने प्रथम देशना दी। मरीचिकुमार अपने पिता के साथ प्रभु के दर्शनार्थ - वंदनार्थआये। प्रभु की देशना सुनकर मरीचिकुमार को वैराग्य समुत्पन्न हुआ। पिता की अनुमति लेकर प्रभु के चरणों में सर्वप्रथम संयमः ग्रहण किया ।
प्र. ३२ १६वें भव में विश्वभूति राजकुमार का जन्म कहाँ हुआ था ।
राजगृही नगर के राजा विश्वनंदी के छोटे भाई विशाखाभूति के यहाँ उनकी पत्नी धारिणी-रानी की कुक्षि से विश्वभूति का जन्म हुआ । प्र. ३३ विश्वभूति राजकुमार ने किसके पास संयम ग्रहण किया था ? संभूति मुनि के पास |
उ.
प्र. ३४ १८ वें भव में त्रिपृष्ठ वावुदेव का जन्म कहाँ हुआ था ?
उ.
उ.
दक्षिण भरतार्द्ध में पोतनपुर नगर के प्रजापति राजा के यहाँ उनकी द्वितीय पट्टराणी मृगावती की कोख से त्रिपृष्ठ वासुदेव का जन्म
हुआ था ।
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________________
5 )
प्र. ३५ त्रिपृष्ठ वासुदेव ने किसके साथ पाणिग्रहण
;
किया था ?
वैताढ्यगिरि पर दक्षिण दिशा में रथनुपुर चक्रवाल नगर में विद्याधरों का राजा ज्वलनजटी राज्य करता था । उनकी महारूपवती और गुणवती स्वयंप्रभा नाम की कन्या के साथ पाणिग्रहरण हुआ था ।
प्र. ३६ २२ वें भव में विमल राजा का जन्म कहाँ
हुआ था ?
रथपुरं नगर के प्रियमित्र राजा के यहाँ उनकी पत्ना विमला रानी की कोख से विमल राजा का जन्म हुआ था ।
प्र. ३७ २३ वें भव में प्रियमित्र चक्रवर्ती का जन्म
उ.
उ.
उ.
कहाँ हुआ था
अपर विदेह में मुका नगरी के धनंजय राजा के यहाँ उनकी पत्नी धारिणी रानी की कोख
से प्रियमित्र चक्रवर्ती का जन्म हुआ था ।
प्र. ३८ प्रियमित्र चक्रवर्ती ने किसके पास संयम ग्रहण
किया था ? पोटिलाचार्य के पास ।
उं.
?
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________________
(
8
)
'प्र. ३६ २५ वें भव में नंदन राजा का जन्म कहाँ
हुआ था ? उ. भरत खंड में छत्रा नगरी के जितशत्रु राजा के
यहाँ उनकी पत्नी भद्रा रानी की कोख से नंदन
राजा का जन्म हुआ था। ४० नंदन राजा ने किसके पास संयम ग्रहण
किया था ? उ पोटिलाचार्य के पास प्र. ४१ म. स्वामी कौनसे भव में तिथंच गति में
गये थे ? उ. . २० वें भव में।। 'प्र. ४२ म. स्वामी के जीव ने २० वें भव में तियंच ...गति में किस रूप में जन्म लिया था ? उ. . . सिंह के रूप में। प्र..४३ म. स्वामी २७ भव के अंतर्गत कौन-कौन से
..: भव में नरक में गये थे ? उ. . १६ वें भव में एवं २१ वें भव में । प्र..४४ म. स्वामी २७ वें भव के अन्तर्गत कौनसी
नरक में गये थे ? ७वीं माघवती नरक में।
४ थी अंजना नरक में। ४५. म स्वामी का २६ वें भव में देव का आयुष्य
कितना था? २० सागरोपम का ।
44. aa
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________________
उ.
८२ ॥ वीं रात्रि में ।
प्र. १४ म. स्वामी के गर्भ का संहरण किस तिथि को
हुआ था ?
उ.
आश्विन कृष्णा - १३ |
प्र. १५ म. स्वामी के गर्भ का संहरण किस नक्षत्र में हुआ था ?
( १२ )
उ.
हस्तोत्तरा ( उत्तरा फाल्गुनी ) नक्षत्र में ।
प्र. १६ म स्वामी के गर्भ का संहरण किस काल में
}
हुआ था ? मध्यरात्रि में ।
उ.
प्र. १७ म. स्वामी के गर्भ का संहरण देवानंदा को कोख में से क्यों हुआ था !
तीर्थंकर प्रायः क्षत्रीयकुल में ही जन्म लेते हैं, बाकी कर्मयोग |
उ.
प्र. १८ म. स्वामी की प्रथम माता देवानंदा का गर्भकाल कितना था ?
उ.
८२ ॥ रात्रि |
प्र. १६ म. स्वामी के गर्भ का संहरण कर किसकी कुक्षि में रखा गया था ? त्रिशला माता की ।
उ.
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________________
( १३ )
म. स्वामी के गर्भ को त्रिशला माता की कुक्षि में रखा गया तब माता को कितने स्वप्न आये थे ? १४ स्वप्न ।
उ.
प्र. २१ म. स्वामी की द्वितीय माता त्रिशला को कौनकौन से स्वप्न आये थे ?
प्र. २०
(१) श्वेत हस्ती, (२) श्वेत वृषभ, (३) केशरी सिंह, (४) लक्ष्मी, (५) पुष्पमाला, (६) चन्द्र. (७) सूर्य, (८) ध्वज, (६) कुम्भ (१०) पद्मसरोवर, (११) क्षीर सागर (१२) देव विमान, (१३) रत्न राशि, (१४) निघू म अग्नि ।
प्र. २२ म. स्वामी की द्वितीय माता त्रिशला को प्राये स्वप्न का फलादेश किसने बताया था ?
पति सिद्धार्थ तथा स्वप्न-लक्षरण पाठकों ने
""
उ.
उ.
प्र. २३ माता त्रिशला के स्वप्न का फलादेश स्वप्न:
पाठकों ने क्या बताया था ?
ܟ
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क्रम स्वप्न
स्वप्न- फल.
१ श्वेत हस्ती - महान्, वलिष्ठ एवं जगत् श्रेष्ठ पुरुष होगा ।
२ श्वेत वृषभ - मोहरूपी कीचड़ में फंसे
हुए आत्मरथ का उद्धार करने में समर्थ होगा ।
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________________
५ पुष्पमाला दर्शनीय, नयनवल्लभ, सबको प्रिय ग्राह्य होगा ।
मनोहर तथा भवताप से
( १४ )
३ केशरी सिंह- धीर, वीर, निर्भय, समर्थ
1
४ लक्ष्मी
एवं पराक्रमसम्पन्न होगा तीन लोक की समृद्धि का स्वामी होगा।
६ चन्द्र
७ सूर्य
अज्ञान - अंधकार का नाश
करने वाला होगा ।
कुल एवं वंश की प्रतिष्ठा बढ़ानेवाला यशस्वी एवं सबसे उच्च होगा । अनेक गुणों एवं विभूतियों को धारण करने की
योग्यता से युक्त होगा ।
१० पद्म सरोवर — जगत् के पाप-ताप को
शांत कर शीतलता प्रदान
करने में समर्थ होगा ।
८ ध्वज
कुंभ
तप्त जगत् को शीतलता
एवं शान्ति प्रदान करने वाला होगा ।
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________________
.
( १५ ) २१ क्षीर समुद्र- अपार गंभीरता एवं मधु-
रता का समन्वय करने
वाला होगा। १२ देवविमान- दिव्य देहयस्टि युक्त तथा
देवों में भी पूजनीय होगा। १३ रत्न राशि--- समस्त गुण रूप रत्नों का
समूह होगा। १४ निर्धू म अग्नि-क्रूरता आदि दोषों से मुक्त
असाधारण तेजस्विता से
सम्पन्न होगा। प्र. २४ म. स्वामी की द्वितीय माता त्रिशला का गर्भ
- काल कितना था ? उ ६ मास १५ दिन । प्र. २५ म. स्वामी की प्रथम माता देवानंदा का गर्भ
काल कितना था ? उ. २ मास २२।। दिन । प्रः २६ म. स्वामी की दोनों माताओं का मिलाकर
सम्पूर्ण गर्भकाल कितना था ? उ. मास ७।। दिन । .
५
. १
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________________
**
( १६ )
प्र. २७ म. स्वामी ने त्रिशला माता की कुक्षि में क्या
A C
संकल्प किया था ?
उ.
प्र. २८ म. स्वामी ने त्रिशला माता की कुक्षि में ऐसा संकल्प क्यों किया था ?
उ.
जब तक माता पिता जीवित रहेंगे, तब तक उनकी आँखों के सामने गृहत्याग कर श्रमण नहीं बनूँगा ।
उ.
मेरे कुछ क्षरण के वियोग की आशंका से ही माँ का हृदय जब इस प्रकार तड़पने लगा, तो मैं जब बड़ा होकर प्रव्रजित होऊँगा तो माँ के मन की क्या स्थिति होगी ? माता को कितनी असह्य पीड़ा और कितना दारुण संताप होगा । मातृस्नेह के उमड़ते वेग में महावीर ने ऐसा. संकल्प कर लिया था ।
प्र. २६ म. स्वामी मातृभक्त थे वह किस प्रसंग से जाना गया ?
एक दिन अचानक गर्भस्थ शिशु का हलन चलन व स्पंदन वन्द हो गया । गर्भ को सहसा स्थिर व निस्पन्द हुआ देखकर माता त्रिशला चिन्तितः हो उठी । तव उपयोग रखकर देखने से विचार
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किया कि गर्भ में ही मेरा हलन-चलन बन्द होने से ही माता को अपार दुःख हुआ तो जन्म के
बाद मेरे प्रति कितना स्नेह-प्रेम होगा? ३० म. स्वामी को गर्भ में आते ही कितने ज्ञान थे?
तीन । ३१ म. स्वामी को गर्भ में कौन-कौन से ज्ञान थे ?
(१) मति ज्ञान (२) श्रु त ज्ञान (३) अवधि ज्ञान . ३२. म. स्वामी पूर्व जन्म से साथ कितना श्रुतज्ञान
.. लाये थे? . ११ अंग-आगम शास्त्र जितना ।
हे जीव ! भगवान महावीर स्वामी द्वारा निर्देशित सर्व सुखदायक अहिंसामय पथ को स्वीकार कर । इस मार्ग द्वारा ही तू संसार रूपी दुखद अटवी को पार कर उन्नत, अक्षय, सुख के निवास मोक्ष नगर को पहुंच सकेगा।
जिसने एक बार इस तथ्य को जान लिया : ना कभी भी प्रमाद में नहीं गिरेगा!
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________________
जन्म पर्याय
.
प्र. १ म. स्वामी का जन्म किस राज्य में हुआ था ? उ. विदेह ( वर्तमान बिहार ) । प्र. २ म. स्वामी के जन्म देश की राजधानी क्या थी? उ. वैशाली ( महावीरकालीन ) । “प्र. ३ म. स्वामी का जन्म कहाँ हुआ था ?
उ. - वैशाली नगर के क्षत्रियकुड उपनगर में । ... 'प्र. ४ म. स्वामी का जन्म किस तिथि को हुआ था ? उ. चैत्र शुक्ला १३ । प्र. ५ म. स्वामी का जन्म किस नक्षत्र में हुआ ? उ. हस्तोत्तरा ( उत्तरा फाल्गुनी ) ।
६ म. स्वामी की जन्म राशि क्या थी ? उ कन्या । 'प्र. ७ म. स्वामी का जन्म किस समय हुआ था ?
उ. . मध्यरात्रि को। 'प्र. ८ म. स्वामी के जन्म समय में चौथा आरा कितना
.: वाकी था? . . . . . . . . उ. ७५ वर्ष ८॥ मास। . . . .
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________________
.
4
( १६ ) प्र. ६ म. स्वामी के जन्म समय पर प्रसूति कर्म करने
कौन आयी थीं ? उ. ५६ दिक् कुमारिकाएँ 1 प्र..१० म. स्वामी के जन्म समय प्रसूति कर्म किस तरह
किया गया ? रास रचाया, कदली के तीन गृह वनाये । एक में मर्दन - लेप की, दूसरे में स्नान की, तीसरे में शृगार लेप की क्रियायें हुई। गान-वादन
हुआ । धन की वृष्टि हुई। प्र. ११ म.स्वामी के जन्म समय कितने देव उपस्थितथे? उ.. असंख्यात देव । प्र. १२ म. स्वामी को जन्म से कितने अतिशय प्राप्तथे? उ... चार। प्र. १३ म. स्वामी को जन्म से कौन-कौन से अतिशय
प्राप्त थे ? (१) नाखून न बढ़ना, (२) प्रस्वेद न होना,
(३) बाल न वढ़ना, (४) अदृश्य निहार क्रिया । प्र. १४ म. स्वामी का जन्माभिषेक करने के लिए देव
कहाँ ले गये थे ? -------
। .
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________________
( २० )
प्र. १५ म. स्वामी का जन्माभिषेक किस प्रकार किया
गया ?
उ.
इन्द्र ने पाँच रूप धारण कर स्वर्ण, रौप्य, मिट्टी और रत्नों के हजारों कलशों द्वारा बाल प्रभुं का जन्माभिषेक किया था ।
प्र. १६ म. स्वामी अनंत शक्ति के धारक थे वह किस प्रसंग से जाना गया ?
उ.
सुमेरू पर्वत पर स्वर्णादि कलशों द्वारा जल भर-भर कर देवगण वाल प्रभु का जलाभिषेक कर रहे थे । निरंतर जलधारा प्रवाह से नवजात शिशु को कष्ट न हो जाय, ऐसी आशंका से देवराज ने संकुचित होकर देवताओं को रोकने की कोशिश की। तीन ज्ञानधारी शिशु वर्धमान ने देवराज के मन की आशंका को जान लिया । सहज बाल - लीला के रूप में उन्होंने वाँये पाँव के अंगूठे से सुमेरू पर्वत को जरा सा दवाया । सुमेरू प्रकँपित हो उठा । इससे देवराज इन्द्र को भावी तीर्थंकर की अनन्त शक्ति का अहसास हो गया और वे निःशंक वने ।
-
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________________
प्र. १७ म. स्वामी किस वंश के थे ? ज्ञात वंश के ।
उ.
प्र. १८ म. स्वामी किस गोत्र के थे ? काश्यप गोत्र के ।
उ.
प्र. १६ म. स्वामी किस जाति के थे ? ज्ञात क्षत्रिय जाति के ।
उ.
म. स्वामी किस कुल के थे ? इक्ष्वाकु कुल के 1
उ.
प्र. २१ म. स्वामी किस गरण के थे ? मनुष्य गरण के ।
उ.
प्र. २२ म. स्वामी किस योनि के थे ? महिष योनि के ।
उ.
प्र. २३
म. स्वामी का वर्ण कैसा था ? सोने जैसा वर्ण था |
प्र.
प्र. २४ म. स्वामी के शारीरिक शुभ चिन्ह कितने थे ? १००८ ( एक हजार आठ )
उ.
प्र. २५ म. स्वामी की शारीरिक शक्ति कितनी थी ?
पं पं पं
प्र. २०
उ.
अनंत |
प्र. २६ म. स्वामी का उत्सेध अंगुल से देहमान कितना
था ?
देह (शरीर ) की ऊँचाई ७ हाथ थी ।
उ.
+
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________________
प्र. २७ म. स्वामी का श्रात्म अंगुल से देहमान कितना
था ? १२० अंगुल था ।..
म. स्वामी का प्रमाण अंगुल से देहमान कितना था ? २१ अंश का ।
उ.
प्र. २८
उ.
प्र. २६ म. स्वामी को कौन सा संघयरण था ? वज्रऋषभनाराच संघयण ।
उ.
प्र. ३० म. स्वामी का कौन सा संस्थान था ? समचतुरस्त्र संस्थान ।
उ.
प्र. ३१ म. स्वामी का लांछन क्या था ?
उ.
सिंह
प्र. ३२ म. स्वामी के मस्तक की क्या विशेषता थी ? शिखा स्थान अति उन्नत था ।
उ.
प्र. ३३ म. स्वामी के रुधिर (रक्त) का वर्ण कैसा था ? श्वेत ( गाय के दूध के समान ) ।
उ.
प्र. ३४ म. स्वामी का वाल्यावस्था का नाम क्या था ?
उ.
प्र. ३५
उ.
वर्धमान |
म स्वामी का वर्धमान नाम क्यों रखा गया था ?
महावीर स्वामी के जन्म से ही वैशाली नगर में द्रव्य और भाव दोनों पक्ष से वृद्धि हुई थी ।
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________________
पं
कुमार पर्याय
प्र. १ म. स्वामी के कितने माता पिता थे ? दो माता-पिता ।
उ.
Я
२ म. स्वामी के प्रथम माता-पिता का नाम क्या
था ? ऋषभदत्त देवानंदा |
म. स्वामी के प्रथम पिता ऋषभदत्त का गोत्र -
क्या था ?
कोडाल गोत्र |
म. स्वामी की प्रथम माता देवानंदा का गोत्र क्या था ?
उ.
प्र.
३
उ.
प्रं. ४
:
उ.
प्र ५.
नीलंधर गोत्र |
म. स्वामी के द्वितीय माता-पिता का नाम:
क्या था ?
उ.
सिद्धार्थ राजा - त्रिशला रानी ।
प्र. ६ म. स्वामी के द्वितीय पिता सिद्धार्थ का गोत्र
क्या था ?
काश्यप गोत्र ।
म. स्वामी की द्वितीय माता त्रिशला का गोत्र क्या था ?
उ.
प्र. ७
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________________
4
(
बम बम बम
( २४ ) . उ. वशिष्ठ गोत्र।
८ म. स्वामी के कितने नाम थे ? उ. तीन । प्र ६. म. स्वामी के कौन-कौन से नाम थे ?
वर्धमान, महावीर, सन्मति मुख्य तीन नाम थे। वीर, अतिवीर, अंत्य काश्यप गौण तीन नाम थे। आगम और त्रिपिटक साहित्य में नातपुत्र या ज्ञातपुत्र एवं वैशालिक के नाम से भी संबोधित
किये गये है। प्र. १० म. स्वामी के काश्यप गोत्रीय पिता के कितने
नाम थे? उ. तीन । प्र. ११ म. स्वामी के काश्यप गोत्रीय पिता के कौन
कौन से नाम थे ? उ. (१) सिद्धार्थ, (२) श्रेयांस, (३) यशस्वी । १२ म. स्वामी की वशिष्ठ गोत्रीय माता के कितने
नाम थे ? उ. पाँच । प्र. १३ म. स्वामी की वशिष्ठ गोत्रीय माता के कौन
कौन से नाम थे ?
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________________
(
२५ .)
4'
उ. (१) त्रिशला, (२) विदेहदत्ता (३) प्रिय
कारिणी. (४) विदेहदिन्ना. (५) विशाला। प्र. १४ म. स्वामी की द्वितीय माता त्रिशला किस
गाँव की थी? उ. विदेह जनपथ । प्र. १५ म. स्वामी के कितने भाई-बहन थे ?
एक भाई-एक वहन । प्र. १६ म. स्वामी के बड़े भाई का क्या नाम था ? उ. नंदीवर्धन।
१७ म. स्वामी की वहन का क्या नाम था ? 'उ. सुदर्शना।
१८ म. स्वामी के भानजे का क्या नाम था ? उ. जमाली। प्र. १६ म. स्वामी की भाभी का क्या नाम था ? उ. ज्येष्ठा। प्र. २० म. स्वामी की भाभी का गोत्र क्या था ? उ. वसिष्ठ गोत्र । प्र. २१ म. स्वामी के कितने चाचा थे ? उ. एक । प्र. २२. म. स्वामी के चाचा का क्या नाम था ? उ. सुपार्श्व ।
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________________
( २६ ) प्र. २३ म. स्वामी को कितने मामा थे ? उ. एक। प्र. २४ म. स्वामी के मामा का क्या नाम था ?. उ. चेटक राजा। प्र. २५ म. स्वामी की मामी का क्या नाम था ? उ. सुभद्रा । प्र. २६ म. स्वामी के मामा को कितने पुत्र थे ? उ. दश । प्र. २७ म. स्वामी के मामा के ज्येष्ठ पुत्र का क्या नाम .
था? उ. सिंह भद्र। प्र. २८ म. स्वामी के मामा को कितनी पुत्रियाँ थी ?' : उ. सात । प्र. २६ म. स्वामी के मामी की पुत्रियों के विवाह कहाँ :: कहाँ हुए थे ?
(१) चेलना का विवाह मगध नरेश बिम्बिसार
(श्रेणिक ) के साथ हुआ। (२) शिवा का विवाह अवन्तिपति चंडप्रद्योत
के साथ हया ।
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________________
( २७ )
(३) मृगावती का विवाह कौशाम्बी नरेश शतानीक के साथ हुआ ।
( ४ ) पद्मावती का विवाह चंपापति दधिवाहन के साथ हुआ ।
(५) प्रभावती का विवाह सिंधु - सौवीर देश के राजा उदायन के साथ हुआ ।
प्र. ३० म. स्वामी वाल्य वय में कौन सी क्रीड़ा करते थे ?
3.
प्र. ३१
-a
आठ ।
प्र. ३२ म. स्वामी ग्रामलकी क्रीड़ा कहाँ करते थे ? के नीचे ।
वृक्ष
आमलकी क्रीड़ा |
म. स्वामी तब कितने वर्ष के थे ?
उ.
उद्यान में
प्र. ३३ म. स्वामी की परीक्षा किसने ली थी ?
उ.
ईर्षालु देव ने ।
प्र. ३४ म. स्वामी की परीक्षा क्यों ली थी ?
उ.
देवसभा में शन्द्र ने वर्धमान कुमार की अनुपम शक्ति व धैर्य, साहस और निर्भयता की प्रशंसा करते हुए कहा “बालक होते हुए भी महान् पराक्रमी वर्धमान को शक्तिशाली देव भी नहीं
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________________
( ३० ) उ. वर्धमान ने अवधिज्ञान से देखा कि यह क्या
है ? तव मालू महुआ कि यह तो हमें डराने के लिए आये हुए देव की देवमाया है । उन्होंने जरा भी घवराहट किये विना देव को वोध । देने के लिए वज्र जैसा कठोर मुक्के का प्रहार देव के कंधे पर किया। देव असह्य पीड़ा से
पीड़ित हो उठा । उसका संशय दूर हो गया। अ. ४३ ईर्ष्यालु देव का संशय दूर होने पर उसने क्या
किया ?
उ.
देवेन्द्र का कथन यथार्थ ज्ञात होने पर उसने मूल स्वरूप प्रगट किया। वाल वर्धमान के चरणों में झुक गया और क्षमा मांगी। उनकी प्रशंसा करते हुए कहा-"कुमार ! तुम महान् वलशाली हो, तुम्हारी निर्भीकता प्रशंसनीय है, मैं आया था तुम्हारे साहस की परीक्षा लेने
क वनकर और अव जा रहा हूँ प्रशंसक वनकर।"
hch
प्र. ४४ बाल वर्धमान का नाम महावीर क्यों रखा
गया?
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इन्द्र, द्वारा की गई.बाल वर्धमान की प्रशंसा से असहमत होकर ईर्ष्यालु देव ने परीक्षा ली थी।
परीक्षा द्वारा उसका संशय दूर होने से। . प्र. ४५ बाल वर्धमान का नाम महावीर कहाँ रखा
गया था ? उ. इन्द्र की सभा में । 'प्रे. ४६. बालक वर्धमान का नाम महावीर किसने
रखा था ? उ. शकेन्द्र देवराज ने। __ न. ४७ बालक वर्धमान का नाम महावीर किसकी . उपस्थिति में रखा था ?
असंख्य देवों की उपस्थिति में । प्र. ४८ बालक वर्धमान का नाम महावीर क्यों रखा
गया ? वर्धमान कुमार के अनुपम बल को देखकर । भविष्य में भी ये स्व आत्म शक्ति से दारूरण दुःखों को सहन करेंगे। उपसर्गों की परवाह
न करते हुए अपना ध्येय प्राप्त करेंगे। वाल्यवय । में भी ऐसी निडरता और दृढ़ता देखकर गुण
निष्पन्न 'महावीर" ऐसा नाम रखा गया।
a
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________________
( ३२ )
प्र. ४६ म. स्वामी की पत्नी का क्या नाम था ?
उ.
यशोदा ।
म. स्वामी की पत्नी का गोत्र क्या था ? कौडिन्य गोत्र |
प्र. ५१ म. स्वामी के कितने पुत्र-पुत्रियाँ थीं ? पुत्र न था । एक पुत्री था ।
उ.
5 मं
प्र. ५०
उ.
प्र. ५२ म. स्वामी की पुत्री के कितने नाम थे ? तीन ।
उ.
प्र. ५३ म. स्वामी की पुत्री के कोन-कौन से नाम थे ? (१) प्रिय दर्शना, (२) अन्वद्या, (३) ज्येष्ठा ।
उ.
प्र. ५४ म. स्वामी के जामाता (दामाद) का नाम क्या
था ?
उ.
जमाली 1
प्र. ५५ म. स्वामी के जामाता कौन थे ?
उ.
म. स्वामी की वहिन सुदर्शना का पुत्र यानी महावीर स्वामी का भानजा ।
प्र. ५६ म. स्वामी के कितने दोहित्र - दोहित्री थे ? । दोहित्र न था । एक दोहित्री थी ।.
उ.
प्र. ५७
म. स्वामी की दोहित्री के कितने नाम थे ?
दो
1
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________________
प्र.,५८ म. स्वामी की दोहित्री के कौन-कौन से.
. नाम थे ? उ. . (१। शेषवती (२) यशस्वती। प्र. ५६. म. स्वामी की दोहित्री का गौत्र क्या था ?
उ. कौशिक गोत्र । । - प्र. ६० म. स्वामी के श्वसुर का नाम क्या था ?
उ. समरवीर राजा। प्र. ६१ म. स्वामी के सास का नाम क्या था ? उ. धारिणी रानी। प्र. ६२ म. स्वामी के श्वसुर कहाँ के राजा थे? उ. साकेतपूर के ( अयोध्या नगर )। 'प्र. ६३ म. स्वामी के प्रथम माता-पिता ने किससे
दीक्षा ली थी ? उ. म. स्वामी से । प्र. ६४ म. स्वामी के प्रथम माता-पिता ने काल-धर्म :
कव प्राप्त किया था ? उ. महावीर स्वामी की उपस्थिति में । प्र. ६५. म. स्वामी के प्रथम माता पिता काल धर्म :
प्राप्त कर कहाँ गये? . मोक्ष में।
aa
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________________
६. ३४ ) प्र. ६६ म. स्वामी के द्वितीय माता-पिता किसके
अनुयायी थे? उ. पार्श्वनाथ भगवान के परम अनुयायी थे। प्र. ६७ म. स्वामी के द्वितीय माता-पिता का स्वर्गवास
कब हुआ था ? उ. जब महावीर स्वामी २८ वर्ष के थे। . ६८ म. स्वामी के द्वितीय माता-पिता काल धर्म
प्राप्त कर कहाँ गये थे? उ.
देवलोक में। प्र. ६६ म. स्वामी के प्रथम पिता ऋषभदत्त का आयुष्य
कितना था ? 'उ. १०० वर्ष का। प्र. ७० म. स्वामी की प्रथम माता देवानंदा का आयुष्य
कितना था ? उ. १०५ वर्ष का। ७१ म. स्वामी के द्वितीय पिता सिद्धार्थ राजा का
आयुष्य कितना था ? उ. ८७ वर्ष का। :प्र. ७२. म. स्वामी की द्वितीय माता त्रिशला रानी का
का आयुष्य कितना था ?.... . ८५ वर्ष का।
सब
a
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________________
। ३५ ) ___ 'प्र. ७३ म. स्वामी के चाचा सुपार्श्व का आयुष्य
कितना था ? - उ. ६० वर्ष का। ७४ म. स्वामी के बड़े भाई नंदीवर्धन का आयुष्ये
कितना था ? उ. १८ वर्ष का। 'प्र, ७५ म. स्वामी की बहन सुदर्शना का आयुष्य
कितना था ? उः ८५ वर्ष का।। प्र. ७६ म. स्वामी की पत्नी यशोदा का आयुष्य
कितना था ? उ. १० वर्ष का । प्र. ७७ म. स्वामी की पुत्री प्रियदर्शना का आयुष्य
कितना था ? ___ उ. ८५ वर्ष का ।
ad
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________________
गृहत्याग दीक्षा पर्याय
प्र. १ म. स्वामी ने दीक्षा लेने के लिए किसके पास से आज्ञा मांगी थी ?
उ.
प्र.
उ.
प्र. ३ म. स्वामी को उनके बड़े भाई ने दीक्षा लेते. हुए कितने वर्ष रोका था ?
उ.
प्र.
बड़े भाई नंदीवर्धन से ।
२ म. स्वामी को उनके भाई ने दीक्षा लेने के
लिए क्यों रोका था ?
माता-पिता के वियोग की वेदना के गहरे घावों को भरने के लिए ।
उ.
प्र.
४
उन्होंने राज्य नहीं किया ।
५ म. स्वामी ने किस अवस्था में गृह का त्याग
किया था ? पूर्ण यौवनावस्था में |
उ.
प्र. ६ म. स्वामी ने दीक्षा के पूर्व कोई तप किया था? कोई नहीं ।
उ.
दो वर्ष संसार में रोक दिया ।
म. स्वामी ने कितने वर्ष राज्य किया था ?
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________________
( ३७ ) 'प्र. ७ म. स्वामी ने दीक्षा के पूर्व किसकी आराधना
की थी? उ. किसी की नहीं। प्र ८ म. स्वामी को "अव दीक्षा ग्रहण कीजिये"
ऐसा किन्होंने आकर कहा था ? उ. नव लोकांतिक देवों ने। प्र. ६ म. स्वामी ने दीक्षा के पूर्व कितने समय तक
दान दिया था ? 'उ.. एक वर्ष तक । 'प्र. १० म स्वामी प्रतिदिन कितना दान करते थे ? 'उ. १ करोड ८ लाख मुद्राओं का। 'प्र. ११ म. स्वामी प्रतिदिन किसका दान करते थे ? उ. सुवर्ण मुद्राओं का। • १२ . म. स्वामी प्रतिदिन कब दान करते थे? उ. सूर्योदय के एक प्रहर पूर्व ( तीन घंटे ) प्र. १३ म. स्वामी ने एक वर्ष तक दान क्यों दिया था? उ. दान गृहस्थ धर्म का प्रथम कर्तव्य है। ऐसा
जगत् को समझाने के लिए उन्होंने दान दिया . था। तबसे दीक्षा के पूर्व वरसीदान की
परंपरा चल रही है।
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________________
( ३८ )
प्र. १४ म. स्वामी ने एक वर्ष के अंतर्गत कितना दान किया था ?
उ.
३८८ करोड़ और ८० लाख स्वर्ण मुद्राओं का । प्र. १५ म. स्वामी की दीक्षा के समय शिविका ( पालखी) किसने तैयार की थी ?
उ. श ेन्द्र देवराज ने ।
प्र. १६ म. स्वामी की शिविका इन्द्र ने कैसे बनाई थी ? वैक्रिय शक्ति द्वारा ।
उ.
प्र. १७ म. स्वामी की अभिनिष्क्रमरण शिविका का नाम क्या था ? चंद्रप्रभा ।
சு
उ.
प्र. १८ म. स्वामी की शिविका किसने उठाई थी ? मनुष्यां एवं इन्द्रादि देवों ने ।
9
उ.
प्र. १६ म स्वामी की शिविका इन्द्रों ने कैसे उठाई
थी ?
उ.
सुरेन्द्र ने पूर्व दिशा की ओर से, असुरेन्द्रों ने दक्षिण दिशा की ओर से,
नागकुमार इन्द्रों ने पश्चिम दिशा की ओर से एवं सुपरणं कुमारेन्द्रों ने उत्तर दिशा की
1
ओर से 1
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________________
( ३६ )
प्र. २० म. स्वामी ने कौन से नगर में दीक्षाली थी?' वैशाली नगर में ।
उ.
प्र. २१ म. स्वामी ने कौन से वन में दीक्षा ली थी ? ज्ञातखंड वन में ।
उ.
प्र. २२ म. स्वामी ने किस वृक्ष के नीचे दीक्षा ली थी ?' अशोक के नीचे । वृक्ष
उ..
प्र. २३ म. स्वामी ने कितनी उम्र में दीक्षा ली थी ? तीस वर्ष की उम्र में ।
उ.
प्र. २४ म. स्वामी ने कौन सी मिति को दीक्षा ली थी?' कार्तिक कृष्णा दशमी ।
उ.
प्र. २५ म. स्वामी ने कौन से नक्षत्र में दीक्षा ली थी ?हस्तोत्तरा ( उत्तरा फाल्गुनी ) नक्षत्र में ।
उ.
प्र. २६ म. स्वामी ने कौन से प्रहर में दीक्षा ली थी ? दिन के चतुर्थ प्रहर में ( दोपहर के तीन बजे. के करीब |
प्र. २७ म. स्वामी की दीक्षा राशि क्या थी ?
उ.
कन्या ।
उ.
9
प्र. २५ म. स्वामी ने किसके साथ दीक्षा ली थी ?
दो
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________________
Aani-
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(
४० ।
di
प्र. २६ . म. स्वामी ने किसके पास से दीक्षाग्रहण
की थी?
स्वयं । 'प्र. ३० म. स्वामी के दीक्षा के समय पहने हुए अलंकार
किसने ग्रहण किये ?
वैश्रवण देव ने। 'प्र. ३१ म. स्वामी के दीक्षा के समय पहने हुए अलंकार
ग्रहण कर किसमें रखे थे ? उ. हँस के पंख क समान श्वेत वस्त्र में। 'प्र. ३२ म. स्वामी के पहने हुए अलंकार कैसे थे ? .. उ. वे मनुष्य कृत नहीं थे; देवकृत थे। 'प्र. ३३ म. स्वामी के वस्त्र किसने ग्रहण किये ? ..
शकेन्द्र महाराज ने । 'प्र. ३४ म. स्वामी के वस्त्र किसमें रखे गये ?
वज्रमय रत्न थाल में। 'प्र. ३५ म.स्वामी के दीक्षा के समय केश लोच किसने
किया था?
स्वयं । प्र. ३६ म. स्वामी ने दीक्षा के समय कैसे केश लोच
किया था? च मष्तिसे।
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'प्र. ३७ म स्वामी के केश किसमें रखे गये ? उ. देवदुष्य अलौकिक वस्त्र में । 'प्र. ३८ म. स्वामी के केश को किसने ग्रहण किया ? उ. इन्द्र महाराज ने । प्र.. ३६ म. स्वामी के केश को कहाँ विजित किया . .. गया ? उ. क्षीर समुद्र में। प्र. ४० म स्वामी के गुरु वौन थे ? उ. तीर्थकर के कोई गुरु नहीं होते ।
ad.
प्र. ४१ म स्वामी ने दीक्षा के समय कितने चारित्र
अंगीकार किये थे ? उ. एक। प्र. ४२ म. स्वामी ने दीक्षा क समय कौन-सा चारित्र
अंगीकार किया था ? उ. सामायिक चारित्र । प्र. ४३ सामायिक चारित्र कहाँ तक का था ? उ. जावज्जीव-जीवन पर्यत । प्र. ४४ . सामायिक चारित्र कितने कोटि का था ? ३. नव कोटि का ।
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________________
( ४२ )
प्र. ४५ नवकोटि किसे कहते हैं ? तीन करण और तीन योग
उ.
उ.
प्र. ४६ म. स्वामी ने दीक्षा ली तब किसको वंदना की थी ?
अनंत सिद्ध भगवंतों की ।
म. स्वामी दीक्षा के समय कौन-सा पाठ बोले:
थे ?
पाठ बोलकर नव कोटि से
करेमि भन्ते ! प्रत्याख्यान करके सामायिक चारित्र अंगीकार:
किया था ।
म. स्वामी ने दीक्षा के समय कितने व्रतं अंगी -- कार किये थे ?
प्र. ४७
उ.
तीन कररण-न करेमि, न कारवेमि, करंतंपि न समणुजारगामि ।
प्र. ४५
तीन योग-मरणसा, वचसा कायसा ।
,
(१) मन से करना नहीं (२) मन से कराना नहीं (३) मन से करने को भला जानना नहीं (४) वचन से करना नहीं (५) वचन से कराना नहीं (६) वचन से करने को भला जानना नहीं (७) काया से करना नहीं (८) काया से कराना नहीं ( 2 ) काया से करने को भला जानना नहीं ।
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________________
उ.
पंच महाव्रत ।
प्र. ४६ म. स्वामी ने दीक्षा के समय कौन-कौन से व्रत
अंगीकार किये थे ?
उ.
(१) अहिंसा, (२) सत्य,
(४) ब्रह्मचर्य, (५) अपरिग्रह |
म. स्वामी ने दीक्षा ली तव वस्त्र किसने प्रदान
किया था ?
उ.
शक्रेन्द्र महाराज
ने ।
प्र. ५१ म. स्वामी ने दीक्षा ली तब कैसा वस्त्र दिया
था ?
प्र. ५०
( ४३ )
उ.
(३) अचौर्य,
उ.
देवदुष्य वस्त्र ।
प्र. ५२ म. स्वामी के देह पर इन्द्र ने वह वस्त्र कहाँ रखा था ? बायें कंधे पर ।
उ.
प्र. ५३ म. स्वामी के पास वह वस्त्र कहाँ तक रहा था ? एक वर्ष और एक मास तक ।
प्र. ५४ म. स्वामी किसके शासन काल में हुए थे ? २३ वें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ स्वामी के ।
उ.
प्र. ५५ म. स्वामी को चारित्र अंगीकार करने के बाद कौन-सा ज्ञान प्रगट हुआ था ?
मन:पर्यय ज्ञान |
उ.
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________________
( ४४ ) प्र. ५६ म. स्वामी ने दीक्षा के समय कौन-सा तप.
किया था ?
'छटुतप ( दो उपवास)। प्र. ५७ म. स्वामी ने दीक्षा के बाद प्रथम पारना कहाँ
किया था ? उ. कोल्लाक सन्निवेश में । प्र. ५८ म. स्वामी ने दीक्षा के बाद प्रथम पारना
किसके यहाँ किया था ? उ. बहूल ब्राह्मण के घर । 'प्र. ५६ म. स्वामी ने दीक्षा के बाद प्रथम पारना कव
किया था? उ. दीक्षा के दूसरे दिन । प्र. ६० म. स्वामी ने दीक्षा के बाद प्रथम पारना
किससे किया था? 3. खीर से। प्र. ६१ म. स्वामी ने अभिग्रह कब किया था ?
सामयिक चारित्र लेने के बाद । प्र. ६२ म. स्वामी ने किसकी उपस्थिति में अभिग्रह
किया था ? उ. किसी की उपस्थिति मे नहीं किया था ।
4d
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________________
( ४५ )
प्र. ६३ मः स्वामी ने क्या अभिग्रह किया था ?
उ.
बारह वर्ष तक कायोत्सर्ग करके देहाध्यास छोड़ने में प्रयत्नशील रहूंगा। मेरे अभिग्रह के अंतर्गत यदि कोई देव मनुष्य और तियंच संबंधित उपसर्ग आयेंगे तो मैं उन्हें सम्यक् प्रकार से सहन करूँगा । उपसर्ग देनेवालों को मैं क्षमा प्रदान करूँगा । मेरा श्रात्मिक रोग मिटाने के लिए उपसर्ग की तितिक्षा करूँगा । मैं निश्चय में दृढ़ रहूँगा । मैं किसी भी प्रकार की सहायता की किसी से अपेक्षा नहीं रखूँगा ।
प्र. ६४ म. स्वामी ने दीक्षा के बाद किस ओर विहार किया था ? कुमारग्राम की ओर ।
उ.
प्र. ६५ म. स्वामी ने दीक्षा के बाद कब विहार किया था ?
दिन की अंतिम दो घड़ी शेष रहने पर ।
उ.
प्र. ६६ म. स्वामी कुमार ग्राम में कहाँ रूके थे ?
उ.
कुमार ग्राम के नजदीक एक वृक्ष के नीचे बारह प्रहर का कायोत्सर्ग करके स्थिर खड़े रहे ।
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________________
( ४६ )
प्र. ६७ म. स्वामी के पास दान की याचना करने कौन
गया था ?
सोम ब्राह्मण ।
उ.
*
प्र. ६८ म. स्वामी के पास दान की याचना करने क्यों गया था ?
3.
म. स्वामी दीक्षा के पूर्व वर्षीदान द्वारा लाखों मनुष्यों की दरिद्रता दूर कर रहे थे, तब सोम ब्राह्मण धन प्राप्ति के लिए परदेश गया हुआ था, लेकिन वह वहाँ से धन प्राप्त किये बिना वापस आ गया । यह देखकर गरीबी से कष्ट पाकर उसकी पत्नी ने उपालंभ देते हुए कहा कि "आप कैसे अभागे हैं ! जब वर्धमान कुमार ने स्वर्ण की वर्षा की तब आप परदेश चले गये और परदेश से आये वह भी खाली हाथ । अव खायेंगे क्या ? अभी भी जंगम कल्प वृक्ष के समान वर्धमान कुमार के पास जानो । वे वहुत ही दयालु और दानवोर है, प्रार्थना करोगे तो वे अवश्य दारिद्र्य दूर करेंगे।
प्र. ६εम. स्वामी के पास जाकर ब्राह्मण ने कैसे
T
...
::: याचना की थी ?...... W
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( ४७ )
सोम ब्राह्मण ने दीन मुख से विनति करते हुए कहा, "आप उपकारी हैं, दयालु हैं, सबका दारिद्रय आपने दूर किया। मैं अभागा ही
रह गया, हे कृपानिधि ! मेरा उद्धार करो।" प्र. ७० म. स्वामी ने ब्राह्मण की याचना सुनकर क्या
किया था ? उ.
अपने कंधे पर रखे हुए देवदुण्य वस्त्र में से
आधा भाग चीरकर दे दिया। प्र. ७१ ब्राह्मण ने देवदुष्य वस्त्र का क्या किया ?
देवदुष्य वस्त्र को ठीक कराने के लिए ब्राह्मण एक रफ्फूगर ने पास गया तो उसने पूछा"यह अमूल्य देवदुष्या तुझे कहाँ से मिला?" ब्राह्मण ने सही बात बताई। रफूगर ने कहा'इसका आधा भाग और ले आयो तो संपूर्ण
वस्त्र को जोड़कर पूर्ण शाल तैयार कर हूँ। प्र. ७२ रफूगर की बात सुनकर ब्राह्मण ने क्या
किया ? उ. . वस्त्र का लोभी ब्राह्मण फिर भगवान महावीर
के पीछे दौड़ा। इस बार उसे मांगने की हिम्मत नहीं हुई, किन्तु वारवार वह महावीर
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( ४८ ) के पीछे घूमता रहा। एक दिन वह वस्त्र भगवान महावीर के कन्धे से नीचे गिर पड़ा। भगवान ने पीछे मुड़कर भी नहीं देखा, तव ब्राह्मण वह दस्त्र उठाकर ले आया और महाराज नंदीवर्द्धन को उसने लाख स्वर्ण
मुद्राओं में बेच दिया। प्र. ७३ म. स्वामी ने दीक्षा के बाद देशना कब दी थी? उ. भगवान महावीर ने दीक्षा के बाद घोर साधना
की, इसलिए देशना नहीं दी। प्र. ७४ म. स्वामी को दीक्षा के बाद उपसर्ग आये थे? उ. हाँ। प्र. ७५ म. स्वामी को दीक्षा के बाद कितने उपसर्ग;
आये थे? उ. बहुत से उपसर्ग आये थे । प्र. ७६ म. स्वामी को दीक्षा के बाद उपसर्ग कहाँ तकः
आये थे? उ. केवल ज्ञान प्राप्त नहीं हया-तवतक । प्र. ७७ म. स्वामी को दीक्षा के वाद किस किस के
उपसर्ग आये थे? देव, मनुष्य और तियंच के। ..
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________________
( ४६ )
।
'प्र. ७८ म. स्वामी को दीक्षा के बाद सबसे पहले किसका.
उपसर्ग आया था ? उ... ग्वाला का। प्रः ७६ म. स्वामी को दीक्षा के बाद प्रथम उपसर्ग कहाँ
आया था ? उ. कुमार ग्राम के नजदीक । प्र. ८० म. स्वामी को दीक्षा के बाद प्रथम उपसर्ग:
कब आया था? उ. ध्यानावस्था में । प्र. ८१ म. स्वामी को दीक्षा के बाद प्रथम उपसर्ग
कैसे आया था ? प्रभु ध्यान में स्थिर खड़े थे। एक दिन ग्वाला बैल लेकर उधर आया। दिन भर खेतों में काम करने से वह बहुत थका था। उसे गाँव में गाय दुहने के लिये जाना था। बैल को कहां छोड़े ? वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ प्रभु वीर दिखाई दिये। उसने महावीर से पुकारते हुए कहा"वावा' ! वैलों को जरा देखना, मैं अभी आ रहा हूँ।" __ कार्य निवृत्त होकर ग्वाला लौटा। देखा
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( ५२ )
ज्ञान प्राप्त करें । साधना तो स्वयं के बल वीर्य एवं पुरुषार्थ के सहारे ही होती है और स्व- बल पर चलने वाला साधक ही केवल ज्ञान एवं निर्वारण- सिद्ध को प्राप्त कर सकता है ।"
उ.
प्र. ८५ म. स्वामी ने प्रथम चातुर्मास कहाँ किया था ? मोराक सन्निवेशान्तर्गत दुईज्जनक नामक तापसो के आश्रम में और अस्थिक ग्राम में ।
प्र. ८६ म. स्वामी को प्रथम चातुर्मास में किसके उपसर्ग आये थे ?
गायों का और शूलपाणी यक्ष का ।
म. स्वामी को प्रथम चातुर्मास में उपसर्ग कैसे आया था ?
उ.
प्र. ८७
उ,
4
उस प्रदेश में दूर-दूर तक ग्रकाल की छाया मंडराई हुई थी । वर्षा न होने के कारण कहीं घास-फूस भी नहीं दिखाई देता था । आश्रम में तृण की झोंपड़ियां बनी हुई थी। प्रभु महावीर को भी एक ऐसी झोंपड़ी रहने के लिए दी थी । भूखे-प्यासे पशु श्राश्रम की झोंपड़ियों की घास उखाड़कर निगलने लगे । आश्रमवासी तापस दण्ड' लेकर इधर-उधर घूमते और अपनी
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( ५३ )
A
'झोपड़ी की रक्षा करते थे। उस आश्रम में महावीर ही एक ऐसे साधक थे जो सतत ध्यान में लीन होकर खड़े रहते, उन्हें अपनी देह रक्षा का भी कोई ध्यान नहीं था, तब झोंपड़ी की रक्षा कैसे करते ? तापस महावीर को संकेत कर कहते-"गायें झोपड़ी को खा रही हैं, आप किस ध्यान में लीन हैं ?" इस प्रकार
उपसर्ग आया था। अ. ८८ म. स्वामी ने प्रथम चालु चातुर्मास में क्यों
विहार किया था ? महावीर ने तापसो के कहने पर कभी ध्यान नहीं दिया। तब वे आश्रम के कुलपति के 'पास शिकायत लेकर पहुंचे-"आपने किसको
आश्रम में ठहरा दिया है ? हमलोग गायों को 'भगाते दिनभर परेशान होते हैं और वह कभी अपनी झोंपड़ी की रक्षा के लिए एक हांक भी नहीं मारता. इस तपस्वी की लापरवाही के कारण गायों का झुण्ड बार-बार उधर घुस जाता है और आश्रम की झोंपड़ियों पर टूट पड़ता है, हमारी नाक में दम आ गई है, उसकी झोपड़ी वचाते बचाते ।"
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( ५४ )
एक दिन कुलपति स्वयं महावीर के निकट प्राया और कहा - " कुमार ! यह क्या ? एक पक्षी भी अपने घोंसले के लिए जी जान लगा देता है, तुम क्षत्रियेपुत्र होकर भी अपने ग्राश्रय स्थान की रक्षा नहीं कर सकते ?"
उ.
श्राश्रमवासियों की वृत्ति प्रौर कुलपति के कथन ने महावीर के मन को झकझोर डाला । जिसने देह का मांस और खून चूसते भ्रमर आदि कीट-पतंगों को भी नहीं उड़ाया; उसे झोपड़ी की रक्षा का उपदेश कितना हास्यास्पद था । महावीर को लगा उनकी उपस्थिति श्राश्रमवासियों की ग्रप्रीति का कारण वन रही है । सवका प्रेम-क्षेम चाहनेवाले महावीर ने वहाँ रहना इष्ट नहीं समझा। वर्षाकाल के पन्द्रह दिन बीत जाने पर महावीर वहाँ से प्रस्थान कर कहीं अन्यत्र चल दिये ।
प्र. ८६ म. स्वामी चातुर्मास में विहार कर कहाँ
पधारे थे ?
अस्थिक ग्राम में ।
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( ५५ )
प्र. ६० म. स्वामी ने कितने संकल्प किये थे? उ. आश्रमवासियों की वृत्तियों से श्रमण महावीर
को जो कटु अनुभव हुए, उन्हें ध्यान में रखकर
उन्होंने भविष्य के लिए पाँच प्रतिज्ञायें की थी। प्र. ६१ म. स्वामी ने कौन-कौन से संकल्प किये थे ? ___उ. (१) भविष्य में अप्रीतिकारक स्थान में नहीं.
रहूँगा। (२) ध्यान में सतत लीन रहूँगा। (३) गृहस्थ का विनय नहीं करूंगा। (४) हाथ में ग्रहण करके भोजन करूँगा ।
(५) सदा मौन रहूंगा। प्र. ६२ म. स्वामी ने अस्थिक ग्राम में कहाँ स्थिरता
की थी? अस्थिक ग्राम के बाहर एक टेकरी पर शूल-.
पाणि यक्ष के मन्दिर में । प्र. ६३ म. स्वामी को शूलपाणी यक्ष के प्रथम रात्रि
को कैसे उपसर्ग पाये थे। हाथी, पिशाच यमराज. शेपनाग आदि प्राणान्तक उपसर्ग आये थे।
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( ५६ )
प्र. ६४ म. स्वामी को यह उपसर्ग क्यों आये थे ? शूलपाणी यक्ष के क्रोधावेश के कारण आये थे । प्र. ६५ शूलपाणी यक्ष कौन था ?
3.
उ.
अस्थिक ग्राम की ओर एक धनदेव नामक सार्थ पाँच सौ बैलगाड़ियाँ लेकर आ रहा था । ग्राम के निकट वेगवती नाम की एक नदी बहती थी । गर्मी के दिनों में पानी सुख जाता और गहरा कीचड़ हो जाता था । नदी पार करते वक्त गाड़ियाँ कीचड़ में फंस गई, बैल उन्हें खींच नहीं सके । तब सार्थ ने वैलों को खोल दिया । उसके पास एक बड़ा ही बलवान, पुष्ट स्कन्धों वाला, सफेद हाथी जैसाबैल था। उस एक ही बैल ने धीरे-धीरे पाँच सौ गाड़ियों को खींचकर किनारे लगा दिया । इस अत्यधिक श्रम के कारण बैल का दम टूट गया, उसके मुँह से रक्त वहने लगा, और वह भूमि पर गिर पड़ा। अनेक प्रयत्न करने पर भी वैल फिर से खड़ा नहीं हो सका । तव व्यापारी ने गाँव के लोगों को बुलाया और वहाँ अधिक रूकने में अपनी असमर्थता बताकर वैल की सेवा करने के लिए एक बड़ी धन राशि यहाँ दे गया ।
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( ५७ )
वं
गाँव के लोगों ने व्यापारी से 'बैल की सेवा के लिए धन तो ले लिया, पर बेचारे बैल की कभी किसी ने संभाल नहीं की। सारा धन हजम कर गये। उधर भूखे-प्यासे संतप्त बैल ने एक दिन दम तोड़ दिया। वही बैल मरकर
शूलपाणि यक्ष बना। 'प्र. ६६ शूलपाणि यक्ष ने उत्पन्न होते ही क्या
किया था ? उत्पन्न होते ही पूर्व भव का वैर याद आया । उसने दांत पीसकर कहा-"पैसे के प्रेमी विश्वासघाती! अव देख लो इसका कर अंजाम।" मेरे सार्थपति से मेरी देखभाल के लिए पैसे तो ले लिये, लेकिन तुमलोगों ने मुझे खाना पीना तक नहीं दिया। न मेरी किसी तरह संभाल की। अच्छा ! अब भोगो उस
वैर का दारूण विपाक । प्र. ६७ अस्थिक ग्राम ऐसा नाम क्यों रखा गया था ?
गाँव के लोगों द्वारा की गई अपनी दुर्दशा को देखकर शूलपाणि यक्ष क्रोधित हो गया। के दारूण विपाक से महाकाल .
.
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________________
( ५८ ) पड़ा। उसने घर-घर में रोग, पीड़ा, त्रास एवं भय का आतंक फैला दिया। सैकड़ों मानवी मृत्यु के मुख में जाने लगे। बजारों में जहाँ देखो हड़ियों का ढेर पड़ा था। हजारों तर कंकाल पड़े सड़ते थे। जिन पर गिद्ध मंडराया करते थे। कौन किसको उठाये ? कौन किसको जलाये ? शबों की दुर्गध से सारा ग्राम त्राहीत्राही हो गया। इसी कारण से ग्राम लोगों ने
इनका नाम अस्थिक ग्राम रखा था। प्र. ६८ ग्राम लोगों ने शूलपाणि यक्ष के उपद्रव से.
वचने के लिए क्या किया था ? ग्राम लोगों ने अनेक देव-यक्ष-असुर-गंधर्व आदि की पूजा की; मगर गाँव का आतंक नहीं मिटा । घबराकर लोग गाँव छोड़कर चले गये। तव भी यक्ष ने पिण्ड नहीं छोड़ा। लोग पुनः ग्राम में लौटकर आये और नगर देवता को बलि देकर सबने क्षमा मांगी। 'हमारा अपराध क्षमा करिये ! हम आपकी शरण में हैं, जो कुछ भी हमारी भूल हुई है, उसे प्रकट कीजिये।"
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( ५६ )
प्र. ६६ ग्राम लोगों की प्रार्थना सुनकर शूलपाणि ने क्या कहा था ?
शूलपाणि यक्ष ने अपना पूर्व - परिचय देकर, अपने साथ किये गये दुर्व्यवहार की बात कही । यक्ष ने कहा- आप मेरा एक मन्दिर बनाओ । उसमें मेरी प्रतिमा बनाकर रखो । दिन भर कोई भी व्यक्ति उसमें आकर पूजा भक्ति कर सकता है। रात में जो प्रवेश करेगा वह मृत्यु के मुख में जायेगा ।
उ.
१. १०० शूलपाणि यक्ष की बात सुनकर ग्रामवासियों ने क्या किया था ?
उ.
यक्ष के कहे अनुसार हड्डियों के ढेर पर उसका एक चैत्य बनाया गया। उसमें उनकी प्रतिमा बनाकर रखी । ग्रामवासी जनता उस चैत्य में प्रतिदिन इसकी पूजा करते थे ।
प्र. १०१ ग्रामवासियों को शूलपाणि यक्ष के अभिशाप
से कव मुक्ति मिली थी ?
प्रभु महावीर ने ग्रामवासियों से यक्ष के चैत्य में ठहरने के लिये अनुमति मांगी। ग्रामवासियों ने प्रभु महावीर को यक्ष के वारे में सब कुछ
उ.
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कहकर रोकने के लिए बहुत ही कोशिश की, लेकिन महावीर अपने संकल्प में दृढ़ थे। ग्राम वासियों की आज्ञा लेकर उसी चैत्य में रात । भर ध्यानस्थ खड़े रहे। यक्ष के उपसर्ग के पास चलायमान नहीं हुए। यक्ष के सामने महावीर की विजय हुई और ग्रामवासियों को
मुक्ति मिली थी। प्र. १०२ ग्रामवासियों को शूलपाणि यक्ष से कैसे मुक्ति
मिली थी? उ. क्षमासिंधु महावीर स्वामी पर अनेक उपसर्ग
द्वारा शूलपाणि यक्ष ने अपनी शक्ति को खर्च कर दिया, लेकिन समता के सागर प्रभु महावीर जरा भी न डीगे। शूलपाणि यक्ष 'पुष्पपाणि महावीर के समक्ष हतप्रम हो गया। उसका अज्ञान, द्वेष और वासना से दूषित चित्त अपने आप पर घृणा करने लगा। वह प्रभु महावीर के अनंत सामर्थ्य, अक्षय-असीम 'धैर्य और उत्कट अभयवृत्ति के समक्ष विनीत होकर क्षमा मांगने लगा--"देवार्य ! आपका बल-वीर्य अद्वितीय है, आपका सामर्थ्य अनंत
..
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( ६१ )
है, आपकी साधुता असीम है । लगता है मेरी क्रूरता को जीतने के लिये ही आज आपकी समता का अक्षय सागर उमड़ आया है । प्रभो ! मैं हार गया, मेरी दुष्टता, दानवता क्षमा चाहती है । प्रभु की करूणा सभर प्रांखों में से निकला एक कृपा किरण शूलपाणि के अंतरा को प्रकाश दे गया । शूलपाणि प्रभु के शरणचरण में झुक गया, वात्सल्य का प्रेमी वन गया । उस दिन से शूलपाणि यक्ष के श्राप से अस्थिक ग्राम मुक्त हुआ था ।
उ.
म १०३ म. स्वामी को स्वप्न किस अवस्था में आये थे ? शूलपाणि यक्षों के उपसर्ग के सामने अपूर्व संघर्ष में शारीरिक एवं मानसिक श्रम के कारण श्लथ महावीर की आँखों में भी नींद की क्षणिक झपकी श्रा गई और उसी झपकी में उन्होंने स्वप्न देखे ।
प्र. १०४ म. स्वामी को कितने स्वप्न आये थे ? दश ।
उ.
प्र. १०५ म. स्वामी को कौन-कौन से स्वप्न ग्राये थे ? (१) अपने हाथों से ताल पिशाच को मारना ।
उ.
E
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________________
( ६२ )
( २ ) सेवा में रत श्वेत कोकिल पक्षी । ( ३ ) सेवा में चित्र-विचित्र पांखों वाला कोकिल पक्षी ।
( ४ ) सुवर्णमय और रत्नमय दो पुष्पमालाएँ । (५) सेवा में उपस्थित श्वेत गो वर्ग । (६) पुष्पित कमलों वाला विशाल पद्म-सरोवर (७) महासमुद्र को भुजात्रों से पार करना । ( ८ ) जाज्वल्यमान सूर्य का आलोक चारों ओर फैल रहा है ।
( ६ ) अपनी अंतड़ियों से मानुषोत्तर पर्वत को आवेष्टित करना ।
(१०) मेरू पर्वत पर चढ़ना ।
प्र. १०६ म. स्वामी के स्वप्न का फल क्या था ?
उ.
श्रमण भगवान महावीर द्वारा देखे गये दस स्वप्न और उनका फलितार्थ :
स्वप्न
(१) अपने हाथ से ताल पिशाच को मारना ।
(२) सेवा में रत श्वेत कोकिल पक्षी |
(३) सेवा में रत चित्रविचित्र पांखों वाला 'कोकिल पक्षी ।
फल
(१) आप मोहनीय कर्मका शीघ्र नाश करेंगे ।
(२) आप शुक्ल ध्यान में रत रहेंगे ।
(३) विविध
ज्ञानमय
द्वादशांगी की प्ररू परणा करेंगे।
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(४) सुवर्णमय और रत्न (४) उत्पल नहीं समझ मय दो पुष्पमालाएँ। पाया, अतः महावीर
ने ही स्पष्ट किया 'मैं साधु धर्म एवं श्रावक धर्म यों दो प्रकार के धर्म की
प्ररूपणा करूंगा।" (५) सेवा में उपस्थित (५) श्रमण-श्रमरणी, श्रवक गो वर्ग।
श्राविका रूप चतुर्विध संघ यापकी सेवा में
रहेगा। (६) पुष्पित कमलों वाला (६) चतुर्विध देव सेवा
विशाल पद्म-सरोवर करते रहेंगे। (७) महासमुद्र को भुजाओं (७) संसार समुद्र को पार से पार करना।
करेंगे। (८) जाज्वल्यमान सूर्य (८) केवल जान शीघ्र
का आलोक चारों प्राप्त करेंगे। · ओर फैल रहा है। (६) अपनी अंतड़ियों से (६) सम्पूर्ण लोक को - मानुपोत्तर पर्वत को अपने निर्मल यश से - आवेष्टित करना। व्याप्त करेंगे।
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tor
(१०) मेरू पर्वत पर (१०) सिंहासन पर विराजचढ़ना।
मान होकर · धर्म
प्रज्ञापना करेंगे। प्र. १०७ म. स्वामी ने प्रथम चातुर्मास में क्या तप
किया था? उ. अर्धमासखमरण तप ( १५ उपवास)। प्र. १०८ म. स्वामी ने प्रथम चातुर्मास में कितने अर्ध
मासखमरण किये थे ? उ. आठ, १ मोराक में एवं ७ अस्थिक ग्राम में। प्र १०६ म. स्वामी ने प्रथम चातुर्मास के बाद किस
ओर विहार किया था ? वाचाला ग्राम की ओर विहार किया। बीच में मोराक सन्निवेश के निकट एक छोटा-सा उजड़ा हुआ उद्यान था। महावीर ने एकान्त देखकर वहीं पर कुछ दिन ध्यान करने का
निश्चय किया। प्र. ११० म. स्वामी से वहाँ पर कौन प्रभावित हुए थे ?
समीपवर्ती गाँव के भद्र-प्रकृति एवं साधुता प्रेमी लोगों ने जब शिशिर-ऋतु की कड़कड़ाती सर्दी में महावीर को एकान्त वन में कठोर साधना करते देखा तो वे बड़े प्रभावित हुए।
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वहीं कठोर तप, एकाग्र ध्यान एवं उत्कृष्ट ज्ञाना की आभा भी दर्शकों को प्रभावित कर लेती
थी। प्र. १११ म. स्वामी से प्रभावित लोगों को देखकर कौन
घबरा गये थे। महावीरा के प्रति लोक श्रद्धा उमड़ती देखकर. वहाँ के निवासी अच्छंदक जाति के ज्योतिषी
घबरा गये थे। प्र. ११२ म. स्वामी से अच्छंदकोने क्या प्रार्थना की थी?
"देवार्य ! हमें शंका है, यहाँ आपकी उपस्थिति से हमारे धंधे को चोट पहुँचेगी। कहीं हमारे बाल-बच्चों को भूखों मरने की नौबत न आ. जाये। आप तो श्रमण है, स्वयं वुद्ध है. कहीं भी जाकर अपनी साधना तपस्या कर सकते: हैं, हम बाल-बच्चे वाले गृहस्थी कहाँ जायेगे?
कृपा कर हमारी रक्षा कीजिये।" प्र. ११३ म. स्वामी ने अच्छंदको की प्रार्थना सुनकरः
क्या किया था ? वीरता की मूर्ति महावीर अपने कष्ट में वन से भी कठोर थे, पर दूसरों के कष्ट के प्रति .
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नवनीत से भी अधिक कोमल, शिरीष पुष्प से । भी अधिक मृदु ! अहिंसा के परम आराधक महावीर को यह भी कैसे अभीष्ट होता ? फिर उनका संकल्प था अप्रीतिकर स्थान में नहीं रहना । जहाँ प्रेम-क्षेम नहीं, वहाँ क्षण भर भी ठहरना नहीं। पर दुःख कातर महा वीर एक दिन किसी को कहे बिना ही मोराक
सनिवेश से वाचाला के पथ पर चल पड़े। प्र. ११४ म. स्वामी को वाचाला ग्राम की ओर विहार
करते मार्ग पर किसका उपसर्ग आया था? . उ. चंड कौशिक सर्पका और सुदंष्ट्र देव का । 'प्र. ११५ म. स्वामी को चंडकौशिक सर्पका उपसर्ग कहाँ
पर आया था?
कनकखल आश्रम में। ११६ म. स्वामी को चंडकौशिक सर्प ने उपसर्ग कैसे
दिया था? जंगल में धूमता हा सर्प अपनी बांबी के पास पहुँचा। सामने एक मनुष्य को आँख मूंदे निश्चल खड़ा देखकर उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। बहुत दिनों के बाद इस निर्जन प्रदेश में यह
aa
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( ६७ )
मनुष्य दिखाई दिया है शायद रास्ता भूल गया होगा या मृत्यु ने ही इसे मेरे पास ला खड़ा कर दिया होगा। अपनी विषमयी तीव्र दृष्टि से उसने महावीर की ओर देखा, अग्निपिण्ड से जैसे ज्वालाएं निकलती हैं वैसे ही उसकी विपाक्त आँखो से तीव्र विपमयी ज्वालाएँ निकलने लगीं। साधारण मनुष्य तो तत्काल जलकर राख हो जाता। महावीर पर तो कोई प्रभाव नहीं हुआ। नाग ने पुनः सूर्य के समक्ष देखकर तीक्ष्ण दृष्टि से महावीर की ओर देखा, इस बार भी उसका प्रभाव खाली गया दूसरे प्रयास में भी निष्फल! नाग कोध में आग बबूला हो गया । फन को तान कर पूरी शक्ति के साथ उसने महावीर के अंगूठे पर डंक मारा, और जरा पीछे हट गया। कहीं यह मूछित
होकर मुझ पर ही न गिर पड़े। प्र. ११७ म. स्वामी को चंडकौशिक ने अंगूठे में डंक
मारा तव क्या हुआ था ? क्रोधाविष्ट नागराज का तीसरा आक्रमण भी निष्फल गया। उसके पाश्चर्य का कोई
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प्र. ११८ म. स्वामी के अँगूठे से श्वेत रुधिर निकलता देखकर चंडकौशिक ने क्या किया था ।
उ.
उ.
( ६८ )
ठिकाना न रहा, जब देखा, अँगूठे पर जहाँ डंक मारा है, वहाँ से तो दूध सी- श्वेत रक्त की धारा बह रही है ।
प्र. ११६ म स्वामी ने उपसर्ग के बदले में चंडकौशिक
4
को क्या दिया था ।
क्षमा का दान और अहिंसा का सन्देश |
प्र. १२० म. स्वामी ने चंडकौशिक को प्रतिबोध देते हुए क्या किया था ?
4
उ.
तीव्र विष के बदले मधुर दुग्ध धारा को देखकर नागराज चकित भ्रमित-सा होकर वारबार उस दिव्य पुरुष की मुख मुद्रा की ओर देखने लगा। बार-बार देखने पर नागराज के संतप्त मन को अपूर्व शांति, प्रभूत शीतलता का अनुभव हो रहा था ।
" हे चंडकौशिक ! समझो ! समभो ! अब शांत हो जाओ ! कुछ बोध लो ! अपना कोध शांत करो ।
1
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प्र. १२१ म. स्वामी के प्रतिवोध से चंडकौशिक का
क्या हुआ था ? प्रभु के वचनामृत सुनकर नागराज का क्रोध पानी-पानी हो गया। पाप का पश्चात्ताप किया। उसे जातिस्मरण ज्ञान हो गया। प्रभु से क्षमा मांगी। हिंसा का त्याग किया। पूर्व जीवन की घटनाएँ चलचित्र की भांति
उसकी स्मृतियों में छविमान हो उठीं । प्र. १२२ चंडकोशिक पूर्व भव में कौन था ?
अनेक जन्म पूर्व वह गोभद्र नामक एक तपस्वी श्रमण था। एक-एक मास का उपवास करता था। एक बार गोभद्र श्रमण भिक्षा के लिए जा रहे थे, मार्ग में उसके पैर के नीचे एक मेंढकी दवकर मर गई। तपस्वी गुरु के पीछे उनका एक सरल स्वभावी शिष्य चल रहा
था। प्र. १२३ गुरु से मेंढ़की की हिंसा देखकर शिष्य ने क्या
किया था ? उसने गुरु से मेंढ़की की हिंसा हुई देसी और देखा कि गुरु के मन पर उसकी कोई प्रतिक्रिया
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( ७० ) नहीं हुई है। उसे लगा, शायद गुरुजी को पता नहीं चला है। उसने विनय पूर्वक कहा"गुरुदेव ! आपश्री के पैर से एक मेंढ़की की
हिंसा हुई लगती है. कृपया प्रायश्चित ले लें।" प्र. १२४ शिष्य की बात सुनकर गुरुजी ने क्या
किया था ? हित बुद्धि के साथ सरलता से कही गई बात सुनकर गुरुजी क्रोध में लाल-पीले हो गये । लाल-लाल आँखों से शिष्य की ओर देखते हुए कहा--"क्या मार्ग में मरी पड़ी सभी मेंढ़कियां मैंने ही मारी हैं ? मूर्ख; गुरु की आशातना
करता है। प्र. १२५ गुरु के कठोर वचन सुनकर शिष्य ने क्या
किया था ? उ. "आग के सामने पानी की ही जीत होती है।
यही सोचकर शिष्य चुप रहा । 'सायंकालीन प्रतिक्रमण के समय उसने पुनः गुरुजी को उसी
बात की आलोचना करने की याद दिलाई। प्र. १२६ शिष्य को पुनः उस वात कहने पर गुरु ने क्या
किया था ? ., .
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( ७१ )
उ.
शिष्य के पुनः उस बात कहने पर गुरुजी के एड़ी से चोटी तक आग लग गई। क्रोधांध होकर अपना रजोहरण उठाया और उसे ही मारने दौड़े। वेचारा शिष्य घबराकर इधरउधर हो गया, अन्धेरे में गुरुजी एक खंभे से टकरा गये, उनका सिर फट गया, वहीं गिर
पड़े और क्रोधावेश में ही उनकी मृत्यु हो गई। प्र. १२७ गोभद्र मुनि मृत्यु के बाद कहाँ उत्पन्न हुए थे?
अत्यन्त क्रोध दशा में मृत्यु होने पर वे ज्योतिषी
देव वने। प्र. १२८ ज्योतिपी देव का आयुष्य पूर्ण कर कहाँ जन्म
लिया था ? ज्योतिपी देव का आयुष्य पूर्ण कर कनकखल
आश्रम में कुलपति के पुत्र के रूप में जन्म लिया था। कौशिक उनका नाम रखा था। लेकिन स्वभाव अत्यन्त क्रोधी होने पर आश्रम
वासी उसे चंडकौशिक के नाम से पुकारने लगे। प्र. १२६ चंडकौशिक कुमार किसको मारने दौड़ा था?
एक बार आश्रम के उद्यान में श्वेताम्बी के कुछ राजकुमार पाये और वे मनचाहे पुष्प
उ.
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(
७२ )
तोड़ने लगे, चंडकौशिक ने मना किया। राजकुमारों ने उनकी बात नहीं सुनी, तब क्रोध में आकर चंडकौशिक कुमार हाथ में कुल्हाड़ा लेकर उन्हें मारने दौड़ा। राजकुमार तेजी से भागे, चंडकौशिक उनका पीछा करता हुआ एक खड्ड में जा गिरा और उसी कुल्हाड़े से उसके सिर में गहरी चोट लगी। उसके प्रारण वहीं निकल गये। वहीं चंडकौशिक कुमार मृत्यु के पश्चात् उसी उद्यान में चंडकौशिक
सर्प बना। प्र. १३० चंडकौशिक सर्प की मृत्यु के बाद कहाँ जन्म
हुना था। १८ सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति वाल सहस्त्रार नाम के आठवें देवलोक में एका.
वतारी देव हुआ। प्र. १३१ चंडकौशिक सर्प देव का आयुष्य पूर्णकर कह
उत्पन्न होगा? उ. महावि देह क्षेत्र में। प्र. १३२ म. स्वामी चंडकौशिक सर्प को प्रतिबोधित
कर वहाँ कितने दिन रहे ? २५ दिन तक ध्यानस्थ अवस्था में रहे।
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( ७३ )
प्र. १३३ म. स्वामी ने कौन सा तप धारण किया था ? उ. पक्ष क्षमरण तप ( १५ दिन तक उपवास )
प्र. १३४ म. स्वामी ने पक्ष क्षमरण तप का पारणा कहाँ किया था ?
उत्तर वाचाला ग्राम में ।
उ.
प्र. १३५ म. स्वामी ने पक्ष क्षमरण तप का पारणा किसके यहाँ किया था ?
नागमेन गाथापति के यहाँ ।
प्र. १३६ म. स्वामी ने पक्ष क्षमरण तप का पारणा किसके द्वारा किया था ?
उ.
उ.
क्षीर से ।
प्र. १३७ म. स्वामी ने उत्तर वाचाला से किस ओर विहार किया था ?
उ.
श्वेताम्बिका नगर की प्रोर ।
प्र. १३८ म. स्वामी को पुदंष्ट्र देव ने क्या उपसर्ग दिया था ?
नौका द्वारा जलोपसर्ग |
प्र. १३६ म. स्वामी को सुदंष्ट्र देव ने कब उपसर्ग दिया था ?
றர்
उ.
म. स्वामी श्वेताम्बिका नगर से सुरभिपुर होते हुए राजगृही जा रहे थे। तब सुरभिपुर
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( .७४) और राजगृही के मध्य गंगा नदी पड़ती थी। प्रभु गंगा नदी को पार करने के लिए नाव में
वैठे थे तब । प्र. १४० म. स्वामी के साथ नाव में कौन-कौन था।
प्रभु के साथ नाव में अनेक यात्री थे। उनके
बीच खेमिल नामक नैमित्तिक भी बैठा था। प्र. १४१ खेमिल नैमित्तिक ने यात्रियों को क्या चेतावनी
दी थी? गंगा नदी का किनारा छोड़ नाव कुछ दूर. चली ही थी कि दाहिनी ओर एक उल्लू के बोलने की आवाज सुनाई दी। खेमिल ने यात्रियों को सावधान करते हुए कहा-"आप लोग सावधान होकर अपने-अपने ईष्ट देव का स्मरण करें। दायें उल्लू का बोलना बड़ा ही अपशकुन है, लगता है हम सव पर कोई प्राणा
न्तक कष्ट आने वाला है ।।" . प्र. १४२ म. स्वामी को उपसर्ग देने वाले सुदंष्ट्र देव का
. निवास कहाँ है ? . . . . उ. पाताल मे। __प्र. १४३ म. स्वामी को सुदंष्ट्र देव ने जलोपसर्ग कैसे
दिया था ? ... . .
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उ.
( ७५ )
खेमिल की बात पूरी भी नहीं हुई थी कि सुदंष्ट्र देव ने अपनी दिव्य शक्ति से नदी में भयंकर तूफान खड़ा कर दिया। पानी बांसों उछलने लगा । लहरें नाविकों को उछालने लगी जैसे बालक गेंद को इधर-उधर उछालते है । यात्रियों का हृदय दहल रहा था, भय के कारण कुछ चीखने-चिल्लाने लगे थे ।
उ.
प्र. १४४ म. स्वामी ने जलोपसर्ग के समय क्या किया ? ऐसे घोर उपसर्ग में भी प्रभु एक कोने में निश्चल, स्थिर, प्रशांत भाव से ध्यान-मग्न वैठे थे ।
प्र १४५ म. स्वामी को ध्यानस्य देखकर वेमिल ने क्या कहा था ?
प्रभु को व्यानस्य देखकर सेमिल को घोर अंधकार में एक ग्राशा की किरण चमकती हुई दिखाई दी । यात्रियों को धीरज बंधाते हुए कहा- "संकट तो बहुत बड़ा है, लेकिन इस नाव में एक ऐसा दिव्य महापुरुष भी बैठा है, जिसके असीम पुण्य प्रताप से हम सब बाल-बाल बच जायेंगे । धीरज रखकर सभी इस महापुरुष की वंदना स्तुति करें ।
उ.
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( ७६ }
उ.
प्र. १४६ खेमिल के कहने पर यात्रियों ने क्या किया ? खेमिल के कहने पर सभी यात्री ध्यानस्थ महावीर के चरणों में सिर झुका रहे थे --- "हे प्रभो ! हे महाश्रमरण हमें इस संकट से बचाइये आप ही हमारे रक्षक हैं ।"
प्र. १४७ जलोपसर्ग कैसे शांत हो गया था ?
उ.
श्रमरण महावीर के दिव्य प्रभाव से धीरे-धीरे तूफान शांत हो गया, लहरों का आलोड़न कम हुआ और नाव अपनी सहजगति पर आ गई | यात्रियों के जी-में-जी आया । वे प्रभु को वंदना करने लगे । नाव किनारे पहुंची और सभी यात्री कुशल क्षेमपूर्वक उतर कर अपने अपने गंतव्य की ओर चल दिये ।
प्र. २४५ म. स्वामी के जलोपसर्ग के समय पर किसने
रक्षा की थी ?
उ.
कंवल-संबल नामके दो नागकुमार देवों ने ।
प्र. १४९ म. स्वामी जिस नाव में बैठे थे उसकी रक्षा
उ.
कंबल - संवल ने कैसे की थी ?
कंबल-संवल नामके दो भक्त नागकुमार देवों ने सुदंष्ट्र देव को इस दुष्कर्म के लिए धिक्कार |
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( ७७ )
सुदंष्ट्र लज्जित होकर अपने दुष्कृत्य से बाज आया । सभी यात्री श्रमण महावीर का नाम स्मरण करते-करते,कुशलता पूर्वक नदी के तट पर पहुंच गये ।
प्र. १५० म. स्वामी को सुदंष्ट्र देव ने उपसर्ग क्यों दिया था ?
बताया गया है कि १८वें त्रिपृष्ठ वासुदेव के भव में जिस गुहावासी सिंह को हाथ से चीर डाला था । वह कई भवों के बाद सुदंष्ट्र नाम का देव हुआ और प्रभु महावीर को नाव में यात्रा करते देखकर उसे पूर्व वैर का स्मरण हो आया । प्रभु' तो द्व ेषमुक्त थे, पर नागकुमार ने द्व ेषवश गंगा में यह तूफान उठाकर उन्हें इस प्रकार जलोपसर्ग कष्ट देना चाहा । दिया था ।
उ.
उ.
प्र. १५१ म. स्वामी नाव से उतर कर कहाँ गये थे ? श्रमण महावीर नाव से उतर कर गंगा के शांत रेतीले मैदान पर चलते हुए 'थुरणाक' सन्निवेश के परिसर में पहुंचे और एकान्त में ध्यानारूढ़ हो गये ।
.
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( ७८ )
प्र. १५२ म. स्वामी के चरण को रेतीले मैदान में किसने देखा था ? और उसने क्या किया ?
उ. पुष्य नामक सामुद्रिक ने नदी के तट की स्वच्छ धूलि पर महावीर के चरण चिन्ह अंकित देखे । देखते ही वह चौंक उठा, उसने पद चिन्हों में अंकित रेखाओं को सूक्ष्मता के साथ देखा और मन ही मन सोचने लगा--- "ये दिव्य लक्षण तो किसी चक्रवर्ती के हैं सचमुच कोई चक्रवर्ती विपत्ति में फँसा हुआ अकेला ही अभी-अभी इस रास्ते से नंगे पैरों से गुजरा है । ऐसे ग्रवसर पर उसके पास पहुँच कर सेवा करनी चाहिए ताकि भविष्य में जब वह चक्रवर्ती बनेगा तो मेरा भी सितारा चमक उठेगा ।
.
सामुद्रिक पुष्य पद चिन्हों का अनुसरण करता हुआ सीधा थुरगाक सन्निवेश के परिसर में जा पहुंचा । वहाँ उसने एक श्रमण को ध्यानस्थ देखा । पुष्य कुछ क्षण भ्रमित - सा, चकित सा देखता रहा, फिर एकदम निराश हो गया । सिर पीटते हुए उसने कहा - "हाय आज तो मुझे अपना शास्त्र भी धोखा दे गया। लक्षण रेखायें और चिन्ह सब चक्रवर्ती के है,
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( ७९ )
पर सामने खड़ा है एक श्रमरण जिसके तन पर वस्त्र भी नहीं । क्या चक्रवर्ती भी भिक्षुक बनकर यों दर-दर भटकता है ?
।
लगता है
शास्त्र सब झूठे हैं, ऐसे झूठे शास्त्रों को तो गंगा में बहा देना चाहिए ?"
उ.
प्र. १५३ पुष्यं जब निराश हुआ तब क्या हुआ था ? पुष्य इन्हीं निराशायुक्त विचारों में डगमगाता हुआ उठा, शास्त्रों की गठरी जल-शरण करने जा रहा था कि एक दिव्यवारणी ( देवेन्द्रद्वारा ) उसके कानों में टकराई - पुष्य ! तू पढ़-लिख कर भी मूर्ख रहा ? श्रमण है तो क्या इसकी अद्भुत कान्ति और तेज आँखों से नहीं दीख रहा है ? तू जिसे चक्रवर्ती न मानने की भूल कर रहा है, वह महा पुरुष धर्म चक्रवर्ती सम्राटों का भी सम्राट और असंख्य देवेन्द्रों का भी पूजनीय तीर्थंकर महावीर है, आँखें खोलकर देख जरा ।"
पुष्य के अन्तश्चक्षु खुल गये । उसने देखा सचमुच यह भिक्षुक ही विश्व का सर्वोत्तम पुरुष है । पुण्य का श्रद्धा और विनय के साथ
कि
प्रभु के चरणों में मस्तक झुक गया ।
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( ८० )
प्र १५४ म. स्वामी ने द्वितीय चातुर्मास कहाँ किया
था ?
►
उ. राजगृही नगर के नालंदा पाड़ा में ।
प्र. १५५ म. स्वामी ने राजगृह में कहाँ स्थिरता की थी ? तंतुवायशाला में ।
उ.
प्र. १५६ म. स्वामी को तंतुवायशाला में किससे मुलाकात हुई थी ?
मखजातीय गोशाल नाम के युवा भिक्षुक से ।
उ.
प्र. १५७ गौशालक कैसा था ?
•
उ.
गौशालक स्वभाव से उच्छृंखल, कुतूहल प्रिय और मुँहफट था, साथ ही रसलोलूपी और झगड़ालू भी था ।
प्र. १५८ म. स्वामी के साथ गौशालक ने कैसा व्यवहार किया था ?
उ. दुष्ट गौशालक निरंतर छह वर्ष तक प्रभु को अनेक प्रकार की पीड़ाएँ और कष्ट पहुँचाता रहा । गौशालक का संपर्क महावीर के जीवन में सदा त्रासमयी रहा । पर क्षमावीर महावीर ने
•
सदा ही उसे क्षमा प्रदान की। अभय दान दिया और शरण दी ।
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( ८१ )
प्र. १५९ म. स्वामी ने द्वितीय चातुर्मास में कौन सा तप
किया था ?
उ.
मासखमण तप ( ३० दिन का उपवास ) |
प्र. १६० म. स्वामी ने द्वितीय चातुर्मास में कितने मास -- खमण किये थे ?
उ.
चार ।
.प्र. १६१ म. स्वामी ने प्रथम मासखमण का पारणा कहाँ किया था ? नालंदा में |
उ.
प्र. १६२ म. स्वामी ने प्रथम मासखमरण का पारणा किसके यहाँ किया था ?
उ.
विजय श्रेष्ठ के यहाँ ।
प्र. १६३ म. स्वामी को प्रथम मासखमरण का पारणा.. किसने कराया था ?
विजय श्रेष्ठ ने ।
उ.
प्र. १६४ म. स्वामी ने प्रथम मासखमरण का पारणा किससे किया था ?
कुरादि धान्य से ।
उ.
प्र. १६५ म. म. स्वामी ने द्वितीय मासखमरण का पारणा
कहाँ किया था ?
•
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( ८२ ) उ. नालंदा में । प्र. १६६ म. स्वामी ने द्वितीय मासखमण · का पारण
किसके यहाँ किया था ? ..
नंद श्रीष्ठि के यहाँ । .. .. .. . प्र. १६७ म. स्वामी को द्वितीय मासखमण का पारणा
किसने कराया था ? उ. आनन्द श्रावक ने। . . . प्र. १६८ म. स्वामी ने द्वितीय मासखमण का पारणा
किससे किया था ?
पके हुए अन्न से। "प्र. १६६ म. स्वामी ने तृतीय मासखमरण का पारणा
कहाँ किया था ? उ. नालंदा में। प्र. १७० म. स्वामी ने तृतीय मासखमण का पारणा ... किसके यहाँ किया था ?
सुनंद सेठ के यहाँ । 'प्र. १७१ म स्वामी को तृतीय मासखमण. का पारणा ....... किसने कराया था ?. . . . . . उ. सुनंदा श्राविका ने। ...
उ.
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( ८३ ) प्र. १७२ म. स्वामी ने तृतीय मासखमण का पारणा
किससे किया था ? उ. क्षीर से। प्र. १७३ म. स्वामी ने चतुर्थ मासखमण का पारणा
कहाँ किया था ? उ. कोल्लाक में। प्र. १७४ म. स्वामी ने चतुर्थ मासखमण का पारणा
किसके यहाँ किया था ? उ. बहुल ब्राह्मरण के यहाँ । प्र १७५ म. स्वामी को चतुर्थ मासखमरण का पारणा
किसने कराया था ? उ. बहुल ब्राह्मण ने । प्र. १७६ म. स्वामी ने चतुर्थ मासखमण का पारणा
किससे किया था ? उ. क्षीर से । प्र. १७७ म. स्वामी के भविष्य-ज्ञान की परीक्षा के लिए
गौशालक ने क्या पूछा था ? . उ.. "देवार्य ! मैं भिक्षा के लिए जा रहा हैं,
• बताइए, मुझे आज भिक्षा में क्या मिलेगा ?"
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________________
उ.
(
प्र. १७८ म. स्वामी ने गौशालक के प्रश्न का क्या उत्तर
1
दिया था ?
८४ )
उ.
प्रभु ने सहज भाव से उत्तर दिया- "श्राज तुम्हें भिक्षा में कोदों के बासी चावल, खट्टी छाछ और एक खोटा सिक्का मिलेगा ।"
प्र. १७९ म. स्वामी का उत्तर सुनकर गौशालक ने क्या किया था ?
:
प्रभु का उत्तर सुनकर आश्चर्य के साथ गौशालक ने उनकी ओर देखा, फिर हँसकर कहने लगा- "आज तो त्यौहार का दिन है, घर-घर में मिष्ठान्न बन रहे हैं, आज मुझे बासी चावल ? वाह ! क्या खूब भविष्यवाणी की है आपने !" गौशालक महावीर की भविष्यवाणी को असत्य सिद्ध करने के लिए भिक्षा लेने गया, किन्तु कुछ न मिला । मध्याह्न के बाद एक कर्मकार ने उसे अपने घर कोदों
"
के बासी धान और खट्टी छाछ का भोजन कराया तथा दक्षिणा में एक रुपया दिया, जो परखने पर सचमुच ही खोटा निकला ।
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________________
( ८५ )
प्र. १८० म. स्वामी ने कोल्लाक से किस ओर प्रस्थान
किया था ? सुवर्ण खल की ओर ।
उ.
प्र. १८१ म. स्वामी ने सुवर्णखल के मार्ग में क्या भविष्यवाणी की थी ?
उ.
1
पूछा - 'भाई !
प्रभु के पीछे गौशालक चल रहा था । रास्ते में एक स्थान पर ग्वालों की टोली जमी हुई थी । ग्वालों को इंडिया में कुछ पकाते देखकर गौशालक से न रहा गया। हंडिया में क्या पका रहे हो ?" ग्वालों ने गौशालक की ओर देखा और बोले - "खीर ।" नाम सुनते ही गौशलक के मुँह में पानी ग्रा गया, उसने प्रभु से कह - "देवार्य ! ग्वाले खीर पका रहें हैं, जरा ठहर जाइये, हम खीर खाकर चलेंगे ।"
--
•
भगवान ने कहा- यह खीर पकेगी ही नहीं । वीच में ही इंडिया फट जायेगी, और खीर मिट्टी में मिल जायेगी ।"
प्र. १८२ म. स्वामी से भविष्य कथन सुनकर गौशालक ने वालों से क्या कहा था ?
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________________
(
८६ . ) :
गौशालक ने ग्वालों को सावधान करते हुए कहा- “सुनते हो! ये त्रिकालज्ञानी देवार्य कहते हैं, यह हंडिया फट जायेगी और खीर. मिट्टी में मिल जायेगी।"
उ
प्र. १८३ गौशालक की बात सुनकर ग्वालों ने क्या कहा?
ग्वालों ने गौशालक की ओर तिरस्कार भरी दृष्टि से देखते हुए कहा-देखते हैं कैसे फटेगी हंडिया ।" उन्होंने बाँस की खपाटियों से कस कर बाँध दिया और चारों ओर से घेरकर बैठ गये।
प्रभु तो आगे चले गये थे, पर गौशालक तो खीर की लालसा से वहीं रुका रहा । हंडिया दूध से भरी थी और चावल भी मात्रा से अधिक थे। जब दूध उबला, चावल फूले तो हंडिया तडाक से दो टुकड़े हो गई, खीर धूल में मिल गई और साथ ही गौशालक की आशा भी। वह बहुत निराश हुआ और यह कहते हुए आगे चला "होनहार किसी भी उपाय से टलता नहीं।"
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________________
1
८७ )
प्र. १८४ म. स्वामी ने सुवर्णखल से किस ओर विहार
किया था ?
उ.
ब्राह्मणकुड ग्राम की ओर ।
प्र. १८५ म. स्वामी ने ब्राह्मणकुड में कौनसा तप किया था ?
उ.
छठ्ठतप ( दो दिन का उपवास ) ।
प्र. १८६ म. स्वामी ने छट्टतप का पारणा किसके यहाँ किया था ?
उ.
नंद श्रावक के यहाँ ।
प्र. १८७ म. स्वामी ने छठ्ठतप का पारणा किससे किया था ? दही मिश्रित भात से ।
उ.
प्र. १८८ म. स्वामी ने तृतीय चातुर्मास कहां किया था ? चम्पानगर में ।
उ.
प्र. १८९ म. स्वामी ने तृतीय चातुर्मास में कौन सा तप किया था ?
उ.
उ.
मासखमण तप ( ३० दिन का उपवास ) । प्र. १६० म. स्वामी ने तृतीय चातुर्मास में कितने मास-
खमरण किये थे ?
दो ।
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________________
(
55.)
प्र. १६१ म. स्वामी ने प्रथम मासखमरण का पारणा कहाँ
किया ? चंपानगर में ।
प्र. १९२ म. स्वामी ने द्वितीय मासखमरण का पारणा
कहाँ किया था ? चम्पा नगर के बाहर ।
उ.
`प्र. १९३ म. स्वामी ने तृतीय चातुर्मासके बाद किस ओर प्रस्थान किया ?
उ.
कुमार सन्निवेश की ओर ।
प्र. १९४ म. स्वामी के समय किस परम्परा के संत विद्यमान थे ?
जैनधर्म के २३वें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा के संत विद्यमान थे ।
उ
उ.
प्र. १६५ म. स्वामी से गौशालक ने क्या प्रार्थना
की थी ?
उ.
भिक्षा का समय होने पर गौशालक ने प्रभु से कहा - " देवार्य ! भूख लगी है, भिक्षा के लिए चलिये ।"
प्र. १६६ म. स्वामी ने गौशालक को क्या उत्तर
दिया था ?
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________________
( ८६ )
.
उ. प्रभु ने कहा-"मुझे आज उपवास है।" "प्र. १६७ म. स्वामी के उत्तर को सुनकर गौशालक ने
क्या किया था ? गौशालक प्रभु के साथ उपवास नहीं कर सका।
वह भिक्षा लिये सन्निवेश में गया। 'प्र. १९८ गोशालक का वहाँ किनसे मिलाप हुआ था ? उ. पार्श्वनाथ-परम्परा के स्थविर मुनि चन्द्र अपनी
शिष्य मंडली के साथ एक कुम्हार शाला में ठहरे
हुए थे। वहाँ पर गौशालक का मिलाप हुआ। 'प्र. १६६ गौशालक ने उनसे क्या पूछा था ? उ. चंचल और क्षुद्रस्वभावी गौशालक ने उनसे
पूछा-"तुमलोग कौन हो? 'प्र. २०० पार्श्वनाथ-परम्परा के शिष्य ने क्या उत्तर
दिया था? पापित्य श्रमण ने कहा-"हम निग्रन्थ
श्रमण हैं।" अ. २०१ गोशालक ने उनके उत्तर को सुनकर क्या
कहा था ? "वाह रे निर्ग्रन्थ ! इतना सारा ग्रन्थ (उपकरण) तो जमाकर रखा है, फिर भी अपने को निग्रन्थ बताते हो ? कैसा मजाक है यह ! निम्रन्थ .
उ.
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________________
उ.
प्र. १६१ म. स्वामी ने प्रथम मासखमण का पारणा कहाँ
किया ?
चंपानगर में। 'प्र. १६२ म. स्वामी ने द्वितीय मासखमण का पारणा
कहाँ किया था ? 'उ. चम्पा नगर के बाहर। 'प्र. १६३ म. स्वामी नेतृतीय चातुर्मासके बाद किस ओर
प्रस्थान किया?
कुमार सन्निवेश की ओर।। प्र. १६४ म. स्वामी के समय किस परम्परा के संत
विद्यमान थे ? जैनधर्म के २३वें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ
की परम्परा के संत विद्यमान थे। . . प्र. १६५ म. स्वामी से गौशालक ने क्या प्रार्थना
की थी ? भिक्षा का समय होने पर गौशालक ने प्रभु से कहा-"देवार्य ! भूख लगी है, भिक्षा के लिए
चलिये।" प्र. १६६ म. स्वामी ने गौशालक को क्या उत्तर
दिया था ?
a4
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________________
( ८६ )
प्रभु ने कहा- "मुझे आज उपवास है।" "प्र. १६७ म. स्वामी के उत्तर को सुनकर गौशालक ने
क्या किया था ? उ. गौशालक प्रभु के साथ उपवास नहीं कर सका।
वह भिक्षा लिये सन्निवेश में गया। 'प्र. १६८ गोशालक का वहाँ किनसे मिलाप हुअा था ?
पार्श्वनाथ-परम्परा के स्थविर मुनि चन्द्र अपनी शिष्य मंडली के साथ एक कुम्हार शाला में ठहरे
हुए थे। वहाँ पर गौशालक का मिलाप हुआ। 'प्र. १६६ गौशालक ने उनसे क्या पूछा था ? उ. चंचल और क्षुद्रस्वभावी गौशालक ने उनसे
पूछा--"तुमलोग कौन हो ? 'प्र. २०० पार्श्वनाथ-परम्परा के शिष्य ने क्या उत्तर
दिया था ? पाश्र्वापत्य श्रमण ने कहा-"हम निर्ग्रन्थ
श्रमण हैं।" अ. २०१ गोशालक ने उनके उत्तर को सुनकर क्या
कहा था ? "वाह रे निर्ग्रन्थ ! इतना सारा ग्रन्थ (उपकरण) तो जमाकर रखा है, फिर भी अपने को निग्रन्थ बताते हो? कैसा मजाक है यह ! निर्ग्रन्थ
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________________
(६० )
ब
मेरे धर्माचार्य हैं, जो तप-त्याग और संयम की
साक्षात् मूर्ति हैं।” 'प्र. २०२ गौशालक के कथन का निर्गन्थ ने क्या उत्तर.
दिया था ? उ. गौशालक की क्षुद्रवृत्ति को देखकर निर्गन्था
बोले-~~"लगता है जैसा तू है, वैसे ही स्वयं
गृहीत-लिंग तेरे गुरु होंगे। गुरु जैसा चेला...।" प्र. २०३ निर्ग्रन्थ की बात सुनकर गौशालक ने क्या
कहा था ? गौशालक क्रोध में आ गया, बोला--"तुम मेरे गुरु की निन्दा करते हो, मेरे धर्माचार्य के तपस्तेज से तुम्हारा उपाश्रय जल कर राख हो
जायेगा। तभी तुम्हे पता चलेगा।" प्र. २०४ म. स्वामी के पास जाकर गौशालक ने क्या
कहा था ? गौशालक मुझलाकर प्रभु के पास आकर वोला-'भगवन् ! आज तो आरंभी और परिग्रही श्रमणों से मेरा पाला पड़ गया, ढेर सारे वस्त्र, उपकरण रखते हए भी अपने को निर्ग्रन्थी बताने का ढोंग रच रखा है उन्होंने ।'
उ.
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________________
(
६१ . )
प्र. २०५ म. स्वामी ने गौशालक से क्या कहा था ?
सत्य के परम आराधक महावीर ने कहा--- "गौशालक, तुम मिथ्या भ्रम में हो। वे पाश्र्वापत्य अनगार हैं और सच्चे श्रमण हैं।
तुमने उनका अनादर किया है। प्र. २०६ म. स्वामी कुमार सन्निवेश से कहाँ पधारे थे ? उ. चोराक सन्निवेश में। प्र. २०७ उस समय वहाँ का वातावरण कैसा था ? उ. उन दिनों राज्यों में परस्पर कलह और युद्ध
का वातावरण चल रहा था। एक दूसरे पर शत्रु राजा का भय छाया हुआ था। इसलिए एक सीमांत से दूसरे सीमांत में प्रवेश करने पर
वड़ी छानबीन और तलाशी ली जाती थी। प्र. २०८ म. स्वामी को चोराक के निकट किसने उपसर्ग
दिया था ? चोराक सन्निवेश में आने पर प्रारक्षकों ने महावीर का परिचय पूछा। वे श्रमरण रूप में तो उपस्थित थे ही, इसके सिवा अपना और क्या परिचय देते। वे मौन रहे। गुरु को मौन
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( ६२ ) देखकर शिष्य (?) गौशालक भी चुप रहा । आरक्षकों ने उन्हें गुप्तचर समझकर पकड़ लिया. और अनेक प्रकार की यातनाएं दीं। महावीर ने अपने बचाव के लिए कोई भी प्रतिकार नहीं किया, गौशालक ने भी कोई सफाई नहीं दी।
प्र. २०६ म. स्वामी को आरक्षकों ने क्या उपसर्ग दिया...
था?
म. स्वामी को मौन देखकर आरक्षकों ने उनको गुप्तचर समझ लिया। तब दोनों को ( महावीर और गौशालक ) रस्से से बाँधकर कुए में उतारा गया और बार-बार डुबकियां लगवाई गई। फिर भी दोनों ने अपना मौन नहीं तोड़ा। लोग स्तब्ध थे कि इतनी कठोर यन्त्रणा पाने
पर भी ये चुप हैं, 'कैसे हैं ये गुप्तचर ?" प्र. २१० म. स्वामी का परिचय आरक्षकों से किसने
करवाया था ? उ. गुप्तचरों की चर्चा सुनकर वहाँ रहने वाली दो
परिब्राजिकाएँ-शोभा और 'जयन्ती ऊन्हें देखने
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________________
( ६३ )
आई। देखते ही वे श्रमरण महावीर को पहचान गई । आरक्षकों को डाँटते हुए कहा- "अरे ! तुम क्या अन्याय कर रहे हो ? ये तो प्रभु वर्द्धमान है, महाराजा सिद्धार्थ के पुत्र ! गृहत्याग करके मौन साधना कर रहे हैं ।"
प्र. २११ म. स्वामी का परिचय पाकर आरक्षकों ने क्या किया था ?
प्रभु का परिचय पाते ही आरक्षकों को पसीना छूट गया। वे कांपते हुए उनके चरणों में गिर पड़े और अपराध के लिए क्षमा मांगने लगे । प्र. २१२ शोभा और जयन्ती परिव्राजिकाएं कौन थीं ? निमित्त शास्त्री उत्पल की दोनों बहनें थीं । प्र. २१३ म. स्वामी ने चतुर्थ चातुर्मास कहाँ किया था ? पृष्ठ चम्पा नगर में ।
उ.
उ.
प्र. २१४ म. स्वामी ने चतुर्थ चातुर्मास में क्या तप किया था ?
चारमासी तप । १२० दिन का उपवास ( एक साथ चार मांस तक उपवास ) ।
*
प्र. २१५ म. स्वामी ने चतुर्थ चातुर्मास के बाद किस और विहार किया था ?
उ.
उ.
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________________
(
६४ )
उ. कलबुका सन्निवेश की ओर । प्र. २१६ म. स्वामी को कलबुका जाते हुए मार्ग में
किसके द्वारा उपसर्ग दिये गये ?
4
अज्ञानी जनता द्वारा। लाढ़-राढ़ को अनार्य भूमि में लोगों द्वारा वे पीटे गये, बाँधे गये उन्हें
अनेक प्रकार की यंत्रणायें दी गईं। प्र. २१७ म. स्वामी को कलबुका में किसने उपसर्ग
दिया था ?
कालहस्ती ने।
Ad
प्र. २१८ म. स्वामी को कालहस्ती ने क्यों उपसर्ग दिया
था? उ. कलबुका के विकट जनशून्य. मार्ग में महावीर
की कालहस्ती से भेंट हो गई। साथ मैं गौशालक भी था। कालहस्ती ने पूछा-"तुम कौन हो ?" महावीर मौन.रहे। कालहस्ती
को आशंका हुई; कहीं ये गुप्तचर तो नहीं है ? .. उसने दोनों को बड़ी निर्दयता से पीटा और
फिर बाँधकर मेघ के पास भेज दिया ।
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________________
( ६५ )
प्र. २१६ म. स्वामी और गौशालक को देखकर मेघ ने
क्या किया ? मेघ ने महावीर को क्षत्रिय कुड में सिद्धार्थ राजा के घर पर देखा था। उसने पहचान लिया। इस निर्मम पिटाई और क्र र बन्धन को देखकर उसे अपने अपकृत्य पर पश्चात्ताप होने लगा लगा। आँखों आँसू बहाते हुए वह प्रभु के चरणों में गिर पड़ा। 'हे प्रभो! क्षमा कीजिये । आपको नहीं पहचानने से यह घोर अपराध हो गया है । हम बड़े अधम और नीच हैं, जो आप जैसे महापुरुष को कष्ट देने से
नहीं चूके ।" प्र. २२० मेघ और कालहस्ती कौन था ?
कलवुका सन्निवेश के अधिकारी थे। यद्यपि वे वहाँ के जमींदार थे, पर पास-पड़ोस के
राज्यों में जाकर डाका भी डालते थे। प्र. २२१ म. स्वामी ने पंचम चातुर्मास कहाँ किया था। उ. भद्रिका नगर में । प्र. २२२ म. ने पंचम चातुर्मास में क्या तप किया था ? उ. . चारमासी तप ( १२० दिन का एक साथ ..। . उपवास ) ।
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प्र. २२३ म. स्वामी ने पंचम चातुर्मास के बाद किस
ओर विहार किया था ? उ. कुपिक सन्निवेश की ओर। । प्र. २२४ म. स्वामी को कुपिक सन्निवेश में क्या उपसर्ग
आये थे ? उ. मार, धर-पकड़ आदि । प्र. २२५ म. स्वामी को धर-पकड़ का उपसर्ग क्यों
आया था ? उ. श्रमण महावीर विहार करते हुए कुपिक
सन्निवेश पधारे। वहाँ पर भी आरक्षकों ने परिचय पूछा, पर महावीर मौन थे। अतः
उन्होंने प्रभु को कारागार में बंद कर दिया । प्र. २२६ म. स्वामी को कारागार में बंद करने से क्या
हुआ था ? महावीर को कारागार में बंद करने से उसकी चर्चा सन्निवेश में फैल गई। वहाँ पर रहनेवाली विजया और प्रगल्भा नामकी दो परिब्राजिकानों को बड़ा धक्का पहुंचा, वे तुरन्त राज सभा में आई, श्रमण महावीर को देखकर उन्होंने राजपुरुष को खूब आड़े हाथों लिया
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________________
.
a
( ६७ ). "कैसे राजपुरुष हो तुम ! तुम्हें चोर और साहूकार की भी पहचान नहीं ? ये सिद्धार्थ राजा के पुत्र श्रमरण महावीर हैं, इन्हें कष्ट दे. रहे हो ? यदि कहीं देवराज इन्द्र कुपित हो.
गये तो तुम्हारी क्या दशा होगी?" . २२७ म. स्वामी का परिचय पाकर राजपुरुष ने:
क्या किया था ? श्रमण महावीर का परिचय जानकर राजपुरुष. ने तुरन्त कारागार से उन्हें मुक्त किया। उनके चरणों में गिरे और विनय पूर्वक क्षमा याचना करने लगे। प्रभु ने हाथ ऊपर उठा कर अभय
मुद्रा के साथ सबको अभय दान दिया । प्र. २२८ गौशालक ने उपसर्ग से घबरा कर म.स्वामी:
से क्या कहा था ? गौशालक बार-बार आते उपसर्गो से घबरा। उठा। उसने प्रभु से कहा- देवार्य ! आपके . साथ रहते हुए तो मुझे कष्ट उठाने पड़ रहे . हैं, जिनकी जीवन में आज तक कल्पना भी . नहीं की। पशु से भी बदतर मेरी दशा हो.
रही है. आप तो.मुझे कभी बचाते भी नहीं। . ... अतः अब मैं आपके साथ नहीं रहूँगा।" .
.
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________________
(९८ः ). प्र. २२६ म. स्वामो कुपिक सन्निवेश से विहार कर
कहाँ पधारे थे.? . उ. कुपिक सन्निवेश से विहार कर श्रावस्ती होते
हुए प्रभु हलिदुग गाँव की ओर जा रहे थे। प्र. २३० म. स्वामी को हलिदुग गाँव में क्या उपसर्ग
आया था ? उ. अग्नि का। प्र. २३१ म. स्वामी को अग्नि का उपसर्ग कैसे आयाथा? उ. __.. हलिद् दुग गाँव के बाहर एक विशाल वृक्ष
था। रात्रि में प्रभु महावीर उसी वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ खड़े थे। गौशालक भी साथ .'था। वह भी एक ओर बैठा रहा। इस मार्ग से गुजरने वाले अनेक यात्रियों ने भी रात्रि में वृक्ष के नीचे आश्रय लिया। शीतऋतु के कारण यात्रियों ने इधर-उधर से घास‘पात व लकड़ियाँ इकट्ठी कर आग जलाई और
रात भर तापते रहे । प्रातः सूर्योदय के साथ यात्रियों का काफला आगे बढ़ गया, पर किसी ने आग नहीं बुझाई.। हवा के वेग से आग बढ़ने लगी, गौशालक चिल्लाया-"भगवान !
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________________
(६६) आग बढ़ रही है, भागो ! भागो!" वह भाग खड़ा हुआ। प्रभु ध्यान में स्थिर थे। वे आग और पानी से कब भयभीत होते ! आग की लपटे बढ़ती हुई उनके पैरों के निकट आ गई, पाँव मुलस गये, पर महाश्रमण तब भी अपने समता रस स्थाबी ध्यान में निमग्न रहे । अग्नि ज्वालाएँ समता-सुधा निर्भरणी
के समक्ष स्वतः ही शांत हो गई। प्र. २३२ म. स्वामी हलिद दुग से विहार कर कहाँ
पधारे थे ? उ. शालिशीर्ष नगर। प्र. २३३ म. स्वामी को शालिशीर्ष नगर में क्या उपसर्ग
आया था? उ. शीतोपसर्ग । प्र. २३४ म. स्वामी को शीतोपसर्ग किसने दिया था ?
कटपूतना व्यन्तर कन्या ने। प्र. २३५ म. स्वामी को कटपूतना ने शीतोपसर्ग कब
दिया था ? प्रभु महावीर शालिशीर्ष नगर के बाहर उद्यान में कायोत्सर्ग करके खड़े थे। माघ का महीना
to
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( १०० )
था । रोम-रोम को प्रकम्पित कर देने वाली ठंडी हवाएँ प्रवाहित थीं और एकांत स्थल था । प्र. २३६ म. स्वामी को कटपूतना ने शीतोपसर्ग क्यों दिया था ?
भरकर प्रभु
उ. १८ वें त्रिपृष्ठ वासुदेव के भव की अपमानित रानी भव भ्रमण करती हुई कटपूतना राक्षसी हुई थी । प्रभु को ध्यानस्थ देखकर उसके मन में पूर्व जन्म का द्वेष जाग उठा । व्यन्तर कन्या ने विकराल रूप बनाया । बिखरी हुई जटाओं में बर्फ सा शीतल पानी के शरीर पर बरसाने लगी । किन्तु प्रभु महावीर उस भीषण उपसर्ग में भी अपने ध्यान योग में अविचल और शांत रहे । उनके श्रविचल धैर्य, साहस और अभंग समाधिभाव के समक्ष राक्षसी का क्रोध निरस्त हो गया । वह चरणों में विनत हो अपराध के लिए क्षमा माँगने लगी ।
प्र. २३७ म. स्वामी ने षष्ठम चातुर्मास कहाँ किया था ? भद्रिका नगर में ।
उ.
प्र. २३८ म. स्वामी ने षष्ठम चातुर्मास में कौन-सा तप किया था ?
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________________
( १०१ ) उ. चारमासी तप ( १२० दिन का एक साथ
उपवास )। प्र २३६ म. स्वामी ने सप्तम चातुर्मास कहाँ किया
था ? उ. प्रालंभिका नगर में । प्र. २४० म. स्वामी ने सप्तम चातुर्मास में क्या तप
किया था ? उ. चारमासी तप (१२० दिन का एक साथ
उपवास )। प्र. २४१ म. स्वामी ने सप्तम चातुर्मास के बाद क्या
उपसर्ग आया था ? उ. धरपकड़ का। प्र. २४२ म. स्वामी को धरपकड़ का उपसर्ग कहाँ
. आया था ? उ. लोहार्गल के निकट । प्र. २४३ म. स्वामी ने अष्टम चातुर्मास कहाँ किया था? उ. राजगृही नगर में । प्र. २४४ म. स्वामी ने अष्टम चातुर्मास में क्या तप
किया था? . . . . . विविध प्रकार के अभिग्रह तप ।
.
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________________
( १०२ )
प्र. २४५ म. स्वामी ने अष्टम चातुर्मास के बाद किस भोर विहार किया था ? अनार्य देश की ओर ।
:
उ.
प्र. २४६ म. स्वामी अनार्य देश की ओर क्यों पधारे थे? घोर परिषह सहन कर कठोर कर्मों का क्षय करने के लिए ।
उ.
प्र. २४७ म. स्वामी को अनार्य देश में कैसे-कैसे उपसर्ग आये थे ?
3.
मानव कृत क्रूर उपसर्ग ।
प्र. २४८ म. स्वामी ने नवम चातुर्मास कहाँ किया था ? अनार्य देश की लाढ - राढ से पहचानी जाति वज्रभूमि में ।
उ.
प्र. २४६ म., स्वामी ने नवम चातुर्मास में क्या तप किया था ?
उ.
चारमासी तप (१२० दिन एक साथ उपवास ) । प्र. २५० म. स्वामी ने नवम चातुर्मास के बाद किस ओर विहार किया था ?
उ.
प्रभु अनार्यं भूमि से लौटते हुए कुर्मग्राम को ओर जा रहे थे ।
प्र. २५१ मार्ग में क्या देखकर गोशालक ने म. स्वामी पूछा था ?
से
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________________
( १०३ ) 3; , · मार्ग में तिल का एक छोट-सा पौधा खड़ा था,.
जो रास्ते के करीव था और बहुत संभव था, किसी भी क्षण, किसी भी यात्री के पैरों के तले पाकर रौंदा जाय। उसकी इसी अनिश्चित जीवन-लीला को देखकर कुतूहलवश गौशालक ने महावीर से पूछ लिया-"भंते ! यह तिल-. क्षुप ( पौधा ) अभी तो बड़ा सुन्दर दिख रहा है, इस पर सात फूल भी लगे हैं, पर क्याः
इसमें तिल भी पैदा होंगे?" प्र. २५२ म. स्वामी ने गौशालक के प्रश्न का क्या
उत्तर दिया था ? उ. श्रमण महावीर अपनी गज गति से गमन कर
रहे थे। उनकी दृष्टि तो सिर्फ आगे के पथ पर ही थी। गौशालक के प्रश्न को सुनकर वे रूके, तिल-क्षुप की ओर संकेत कर बोले"गोशालक ! इसमें क्या पाश्चर्य की बात है ? जन्म-मरण की लीला तो अविरल प्रतिपल
चल ही रही है। सात फूलों के जीव इस तिल . की एक ही फली में सात तिल के रूप में उत्पन्न
होंगे-~-यह तो प्रकृति का क्रम है-नगम्य होते . . हुए भी सहज !"
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________________
( " १०४ )
प्र. २५३. म. स्वामी से उत्तर पाकर गौशालक ने क्या
40
किया था ?
3.
प्र. २५४ कूर्मग्राम के निकट गोशालक ने किसको देखा था ?
गौशालक हृदय से संशयशील था । कुतूहल और संशय से प्रेरित हो पीछे से उसने उस नन्हें से पौधे को उखाड़कर वहीं डाल दिया ।
i3.
वैश्यायन नामका एक तापस धूप में खड़ा था। उसकी लम्बी-लम्बी जटायें धरती को छू रही थी जैसे बटवृक्ष की शाखाएँ हों । जटा से जूए भूमि पर गिरकर धूप के कारण अकुला रही थी । तपस्वी उन जूत्रों को उठाकर फिर से
अपने सिर में डाल रहा था, ताकि कड़ी धूप
के कारण वे मर न जांय ।
प्र. २५५ गौशालक ने वैश्यायन तापस को क्या
कहा था ?
गौशालक को यह दृश्य बड़ा ही विचित्र सा लगा | उसने श्रमण महावीर को अनेक प्रकार की कठोर तपस्याएँ करते देखा था, पर ऐसा विचित्र तप कभी नहीं देखा, इसलिए गौशालक
3.
3
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________________
( १०५ )
- - .. को कुतूहल सा हुआ। वह मुंहफट तो था ही,
बोलने में भी असभ्य, लोक-व्यवहार से अनभिज्ञ ! फिर अपने ज्ञान और साधना का गर्व भी था उसे । तिरस्कार के स्वर में वह वोला-- "अरे ! अरे! यह क्या तमाशा कर रहे हो ? तू कैसा तापस है। ध्यान करने के स्थान पर जूत्रों को बीन रहा है? ये एही तेरी मेहमान हैं। तू इन जूओं का शय्यात्तर (पाश्रय केन्द्र ) ही लगता है, जो बार बार उठाकर इन्हें अपनी जटाओं में विराजमान कर रहा है।" - गौशालक का कटु आक्षेप सुनकर भी वैश्यायन चुप रहा। उत्तर नहीं पाकर गौशालक को फिर जोश आया और दूसरी बार कुछ जोर से, कुछ और कठोर शब्दों में
पुकारा । . . . . .. 'प्र. २५६ गौशालक. के कटु आक्षेप सुनकर वैश्यायन ने ... . क्या किया था? . . . . उ. बार-बार के वचन प्रहार से तापस का क्रोध ... . - जाग उठा। वह तिलमिला गया, लाल-लाल :: अंगारे-सी आँखो से · गौशालक को निहारने
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लगा और बोला-दुष्ट, तपस्वी से मजाक! ठहर जा! अभी तुझे तेरी करनीका फल चखाता हूं--और क्रोधाविष्ट तापस ने कुछ कदम पीछे हटकर एक भयंकर तेजस् (तेजोलेश्या)
आगन्सा दाहक धूम्र गौशालक पर फेंका। न. २५७ तेजोलेश्या देखकर गौशालक ने क्या
किया था ? तेजोलेश्या देखकर गौशालक के तो होश उड़ गये सिर पर पैर रखकर भागा प्रभु महावीर की ओर-"प्रभु ! मरा, मरा! बचायो !
यह आग मेरा पीछा कर रही है।" च. २५८ म. स्वामी ने गौशालक को चिल्लाते देखकर
क्या किया था? गौशालक की करुण चीख ने श्रमण महावीर के अन्तस को द्रवित कर दिया । करुणा का प्रवाह फूट पड़ा। अग्नि-सा धधकता धूम्र गौशालक पर आता देखकर तुरन्त उन्होंने अपनी शीतल तप:शक्ति ( शीतल तेजोलेश्या) का प्रयोग किया, बस उस महाश्रमण के नयनों में ही अमृत भरा था, अमियः दृष्टि से देखते
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________________
( १०७ )
उ.
ही वैश्यायन की तेजोलेश्या शांत हो गई। गौशालक की जान में जान आई। तापस ने अपने से प्रखर शक्तिशाली साधक का प्रतिरोध देखा, तो वह विनय से झुक गया और वहाँ खड़ा नम्र शब्दों में बोला-" जान लिया प्रभो ! आपकी शक्ति का अद्भुत प्रभाव
जान लिया।" प्र. २५६ म. स्वामी से गौशालक ने क्या पूछा था ?
गौशालक घबराया हुआ तो था ही। तापस की संकेत भाषा में वह कुछ भी समझ नहीं पाया। बोला-"प्रभो! यह यो का पिण्ड
( शय्यातर ) क्या बक-वक कर रहा है ?" प्र. २६० म. स्वामी ने गौशालक के प्रश्न का क्या उत्तर
दिया? प्रभु ने उसे समझाया-"अभी वह तुझे भस्म कर डालता। तेरे कटु आक्षेपों से ऋद्ध हो तुझे भस्म करने के लिए उसने अपनी तेजोलेश्या छोड़ी थी। यदि मैंने शीतलेश्या का प्रयोग न किया होता, तो तू जलकर राख हो जाता। मेरी शीतल प्रयोग के उत्तर में ही वह मुझसे क्षमा मांग रहा है।
띠
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( ११० )
से छुपी नहीं थी, पर क्षीर सागर का अनंत जल साँपो के लोटने से कभी जहरीला हुआ
7
उ.
-
है ? प्रभु उसी गंभीरता के साथ बोले---
.
" गोशालक ! तुम भ्रांति में हो । जिस तिल
-
क्षुप
वह वहीं
पर
..
दब गया और
1
को तुमने उखाड़ फेंका था, कुछ समय बाद गाय के खुर से उसी दिन वर्षा हो जाने से वह पुनः भूमि में अंकुरित हो गया । किसी के आयुष्य बल को क्या कोई समाप्त कर सकता है ? यह वही पौधा : है, और इसकी एक फली में वही सात फूल सात तिल बनकर पैदा हुए हैं ।
श्रद्धाहीन गौशालक ने तिल के पेड़ से फली तोड़ी तो ठीक उसमें सात तिल निकले । गौशालक की वाचा चुप हो गई, पर उसके हृदय में उथल-पुथल मच उठी । इस घटना से वह नियतिवाद का कट्टर समर्थक बन गया । प्र. २६५ गौशालक ने तेजोलेश्या प्राप्त करने के लिए
साधना कहाँ पर की थी ?
श्रावस्ती नगर में हालाहला नामकी संपन्न कुम्हारिन रहती थी। वह आजीवक मत की
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( १११ )
अनुयायी थी, गोशालक भी अपने को इसी संप्रदाय का भिक्षुक बताता था। वह श्रावस्ती में उसी कुम्हारिन की शाला में ठहर गया, और वहाँ तेजोलेश्या की साधना में लग गया । छह मास की कठोर तपश्चर्या एवं प्रतापना के बल पर गोशालक ने सामान्य तंजोलब्धि प्राप्त कर ली ।
प्र. २६६ गौशालक ने अपनी शक्ति का परीक्षण किस पर किया है ?
उ.
गौशालक को संशय हुआ कि मेरी शक्ति महावीर जैसी प्रभावशाली है या नहीं, अतः इसका परीक्षण करने के लिए वह नगर से बाहर निकला । पनघट पर नगर की महिलाएँ पानी भर रही थीं । गौशालक ने एक महिला के भरे हुए घड़े पर कंकर से निशाना मारा, घड़ा फूट गया, महिला पानी से तर हो गई । भिक्षुक वेषधारी की इस शरारत पर महिला को बहुत क्रोध आया, वह गालियाँ बकने लगी । गोशालक तो पहले ही अग्निपिंड था, गालियाँ सुनते ही भड़क उठा और श्राव देखा
4
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( ११२ ) ना ताव, उसने महिला पर तेजोलेश्या का प्रयोग कर डाला। महिला वहीं भस्म हो
गई। बाकी सब महिलाएँ भयभीत होकर
• भाग गई। __प्र. २६७ गौशालक ने निमित्त-शास्त्र का ज्ञान किससे
प्राप्त किया था ? . उ. कुछ दिन बाद पार्श्वनाथ भगवान की परम्परा
के छह पार्श्वपत्य श्रमणों से गौशालक की भेंट हो गई। वे अष्टांग निमित्त के पारंगामी विद्वान थे। गौशालक कुछ दिन उनके साथ भी रहा और उनसे निमित्त शास्त्र का ज्ञान प्राप्त कर लिया, जिसके बल पर वह सुख-दुःख 'लाभ-हानि, जीवन-मरण इन छह बातों में सिद्ध वचन नैमित्तिक बन गया।
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________________
( ११३ )
उ.
'प्र. २७० म. स्वामी ने द्रढ भूमि में किस ओर विचरण
किया था ?
पेढाल ग्राम की ओर। प्र. २७१ म. स्वामी ने पेढाल ग्राम में कहाँ स्थिरता
की थी? उ. पेढाल ग्राम के बाहर पोलास चैत्य में । प्र. २७२ म. स्वामी की पोलास चैत्य में किसने परीक्षा
की थी? उ. संगम देव । प्र. २७३ म. स्वामी की परीक्षा करने संगम देव क्यों
पाया था? उ. म स्वामी की देवराज इन्द्र द्वाग प्रशस्तिः
सुनकर। प्र. २७४ म. स्वामी की देवराज इन्द्र ने क्या प्रशंसा
की थी ? म. स्वामी के अपूर्व ध्यानलीनता देखकर देवराज इन्द्र के मुंह से निकला "आज संसार में ध्यान, धीरता और तितिक्षा में श्रमण . वर्धमान की तुलना में कोई पुरुष नहीं हैं। सुमेरु से भी अधिक उनकी निश्चलता को
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मनुष्य तो क्या, कोई देव और दानव भी भंगनहीं कर सकता। धन्य है ऐसे महाप्राण अध्यात्म योगी को।" इतना कहते-कहते भक्ति
वश देवराज इन्द्र का मस्तक झुक गया। प्रे. २७५ म. स्वामी की इन्द्रदेव द्वारा प्रशंसा सुनकर
संगमदेव को परीक्षा करने का क्या कारण था? संगमदेव बहुत ही ईर्ष्यालु व अहंकारी था। देवराज इन्द्र द्वारा प्रशंसा सुनकर अपना
स्वमान भंग समझकर । "प्र. २७६ म. स्वामी को पोलास चैत्य में कौन-सा
तप था ? 'उ. महा पडिमा तप ( तीन दिन का उपवास
अठ्ठम तप)। प्र. २७७ इन्द्रदेव द्वारा प्रशंसा सुनकर संगम देव ने क्या
कहा था? "देवराज के मुख से मनुष्य जैसे प्राणी को यह प्रशंसा शोभा नहीं देती. यह मिथ्या स्तुति सिर्फ श्रद्धातिरेक का प्रदर्शन है। मनुष्यों में यह क्षमता है ही नहीं कि वह देवशक्ति के समक्ष टिक सके।"
उ.
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( ११५ . )
देवराज संगम की बांत पर क्रुद्ध तो हुए फिर भी संयत स्वर में बोले - " तुम्हारा अहंकार मिथ्या सिद्ध होगा, न कि मेरा कथन ।"
-Y
"यदि आप हस्तक्षेप न करें तो मैं इसकी परीक्षा कर महावीर को ध्यानच्युत कर सकता हूं - "संगम कुछ प्रावेश में आकर बोला । देवराज चुप रहे और संगम अपनी सम्पूर्ण शक्ति बटोर कर श्रमरण महावीर की अग्नि परीक्षा लेने उसी रात्रि में पेढाल के उद्यान में पहुँच गया ।
प्र. २७८ म. स्वामी को संगम देव ने प्रथम रात्रि को कितने उपसर्ग दिये थे ?
२० ( वोस ) उपसर्ग ।
उ.
प्र. २७६ म. स्वामी को संगम देव कैसे-कैसे उपसर्ग
दिये थे ?
उ.
की आवाज से
( १ ) अचानक सांय-सांय दिशाएँ काँप उठी । भयंकर धूल भरी । आँधी से महावीर के शरीर पर मिट्टी के ढेर जम गये । श्राँख, नाक, कान श्रीर पूरा शरीर धूल से दव गया, पर महावीर
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( ११६ )
"
ने अपने निश्चयं के अनुसार आँख की पलकें भी बन्द नहीं की ।
(२) तीक्ष्ण मुँह वाली चींटियाँ चारों ओर
से महावीर के शरीर को काटने लगी ।
.
तन छलनी सा हो गया, पर महावीर
का मन वज्र सा दृढ़ रहा ।
(३) मच्छरों का झुण्ड महावीर के शरीर को काट-काट कर रक्त चुसने लगा, ऐसा प्रतिभासित हुआ कि किसी वृक्ष से रस चू रहा है या पर्वत से रक्त के भरने भर रहे हैं ।
(४) विच्छुओं ने तीव्र दंश - प्रहार किया । (५) नेवलों द्वारा मांस नोचा गया ।
( ६ ) भीमकाय विषधर सर्प शरीर से लिपट कर जगह-जगह दंश मारने लगे ।
(७) तीखे दाँत वाले चूहे काट-काट कर महा योगेश्वर को संत्रास देने लगे ।
(८) दीमक महावीर के पूरे शरीर पर लिपट गई और भयंकर दंश द्वारा काटने लगी ।
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( ११७ )
__(8) जंगली हाथी ने दंतशूल से प्रहार कर
महावीर को सूड में पकड़ कर गेंद की तरह आकाश में उछाल दिया, पैरों के
नीचे मिट्टी की भांति रौंद डाला। (१०) हथिनियों ने भी उसी प्रकार अपना क्रोध
उडेल कर त्रास दिया। (११) एक भयंकर पिशाच अट्टहास से शून्य
दिशाओं को भय-भैरव बनाता हुआ प्रभु के समक्ष आया, अनेक प्राणघातक आक्रमण करने पर भी महावीर को
वह चलित नहीं कर सका। (१२) त्रिशूल जैसे तीक्ष्ण नखों वाला बाघ
महावीर पर झपटा, वह स्थान-स्थान से माँस नोचने लगा, पर वे प्रस्तर-प्रतिमा की तरह अचल खड़े थे, उन पर इन
प्राघातों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। (१३) अपनी असफलता देखते हुए भी दुष्ट
संगम हतोत्साहित नहीं हुआ, उसने सोचा भयं की आग में पकाने वाला घड़ा भी प्रेम व मोह की थपकियों से टूट सकता
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Jianimandalaama
A ARMA
ने अपने निश्चयं के अनुसार आँख की .. पलकें भी वन्द नहीं की। .. (२) तीक्ष्ण मुंह वाली चींटियाँ चारों ओर
से महावीर के शरीर को काटने लगी। तन छलनी सा हो गया, पर महावीर
का मन वन सा दृढ़ रहा। . . (३) मच्छरों का झुण्ड महावीर के शरीर को
काट-काट कर रक्त चुसने लगा, ऐसा प्रतिभासित हुआ कि किसी वृक्ष से रस चू रहा है या पर्वत से रक्त के झरने झर
(४) बिच्छुओं ने तीब्र दंश-प्रहार किया। (५) नेवलों द्वारा मांस नोचा गया। (६) भीमकाय विषधर सर्प शरीर से लिपट
कर जगह-जगह दंश मारने लगे। (७) तीखे दाँत वाले चूहे काट-काट कर महा
योगेश्वर को संत्रास देने लगे। (८) दीमक महावीर के पूरे शरीर पर लिपट
गई और भयंकर दंश द्वारा काटने लगी।
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( ११७ )
(६) जंगली हाथी ने दंतशूल से प्रहार कर
महावीर को सूड में पकड़ कर गेंद को तरह आकाश में उछाल दिया, पैरों के
नीचे मिट्टी की भांति रौंद डाला। (१०) हथिनियों ने भी उसी प्रकार अपना क्रोध
उडेल कर त्रास दिया। (११) एक भयंकर पिशाच अट्टहास से शून्य
दिशाओं को भय-भैरव बनाता हुआ प्रभु के समक्ष आया, अनेक प्राणघातक आक्रमण करने पर भी महावीर को
वह चलित नहीं कर सका। (१२) त्रिशूल जैसे तीक्ष्ण नखों वाला बाघ
महावीर पर झपटा, वह स्थान-स्थान से माँस नोचने लगा, पर वे प्रस्तर-प्रतिमा की तरह अचल खड़े थे, उन पर इन
प्राघातों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। (१३) अपनी असफलता देखते हुए भी दुष्ट
संगम हतोत्साहित नहीं हुआ, उसने सोचा भय की आग में पकाने वाला घड़ा भी प्रेम व मोह की थपकियों से टूट सकता
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(. ११८ )
... . है। उसने जहरीले भयभीत वातावरण ... . में सहसा स्नेह और मोह की मदिरा . बिखेर दी। महावीर के समक्ष सिद्धार्थ
और त्रिशला की करुण-विलाप करते ... . हुए उपस्थित किया, किन्तु महावीर का
ध्यान भंग नहीं हुआ। (१४) महावीर दोनों पैर सीधे सटाये खड़े थे ।
संगम ने पैरों के बीच में आग रख दी .. और उन पर स्वयं रसोइया बनकर खीर
पकाने लगा। . (१५) उसने चंडाल रूप धारण कर अनेक • . . . पक्षियों के पिंजरे महावीर के तन पर
लटका दिये, पक्षियों की तीखी चोंच और न्ख प्रहार से पुनः महावीर के शरीर
को लहु-लुहान कर दिया। (१६) अब उठा भयंकर तूफान, तीखी तेज हवा
तेज वर्षा की बूंदों का कंपा देने वाला प्रहार, वृक्षों को उखाड़ कर धराशायी कर देने वाला पवन वेग, किन्तु महावीर . तो अडोल, अचल खड़े रहे, खड़े ही रहे ।
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( ११६ )
...
१७) हमा
. .
(१७) हवा का गोल बबंडर उठा। (१८) अंत में हार-थककर संगम ने कालचक्रः
. का जबरदस्त प्रहार महावीर पर किया ।। (१६) आखिर संगम हार गया, उसे कुछ नहीं
सूझा तो एक विमान में बैठकर महावीर को पुकारने लगा--"पाप खड़े-खड़े क्यों: कष्ट उठा रहें हैं, आइये, मैं आपको ही स्वर्ग की यात्रा करा लाऊँ ।" इस माया का भी उस पर कोई प्रभाव
नहीं पड़ा। (२०) संगम ने अब वसन्त ऋतु की मंद और
मादक बयार बहाई, भीनी-भीनी सुगंध।। शांत वातावरण और नूपुर की झंकार करती हुई अर्धवसना अप्सराएं अपने मांसल, कामोत्तेजक अंगो का प्रदर्शन कर काम-याचना करने लगी, महावीर के समक्ष । उन्होंने हाव-भाव अंग विन्यास एवं सौंदर्य का उन्मुक्त प्रदर्शन किया । अनिमेष दृष्टि महावीर तो उसी प्रकार: स्थिर खड़े थे।
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( १२० ।
१
प्र, २८० म. स्वामी को उपसर्गों में भी स्थिर देखकर
"संगम को क्या हुआ था? . "एक ही रात्रि में बीस-बीस महान उपसर्ग प्रभु
पर आये, पर संकल्प के धनी महावीर अपनी .. स्थिति से, अपनी नासाग्र दृष्टि से तिल भर —ी डिगे नहीं। दुष्ट संगमा का अहंकार चूर-चूर - हो गया, उसकी उपद्रवी बुद्धि कुंठित हो गई - तथा लज्जा और ग्लानि से वह मन ही मन
- भर गया। प्र:-२८१ म. स्वामी को संगम नो और किस तरह उपसर्ग
दिया था ? 'प्रातःकाल होते ही श्रमरण महावीर आगे चले गये। संगम उनका शिष्य बनकर साथ-साथ चल पड़ा। प्रभु गाँव के बाहर उद्यान में ध्यानस्थ हो जाते तो संगम गाँव में जाकर "कहीं सेंध लगाता, कहीं चोरियां करता, एवं अन्य दुष्कृत्य करता, लोग उसे पकड़कर पीटने लगते तो कह देता-"मैं क्या करूं, मुझे तो गुरुजी ने यह काम सिखाया है, तुम्हें कुछ. कहना है तो उन्हीं से कहो।" भोले लोग
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( १२१ )
महावीर के पास आते, उनसे पूछते, पर वे मौनव्रत धारण किये ध्यान-मग्न रहते। लोग संगम की बात सच मानकर महावीर को मारते-पीटते, प्रहार करते। इस प्रकार संत्रास
देता था। प्र. २८२. म स्वामी को फांसी का उपसर्ग कहाँ पाया . : था? उ. तोसलि गांव में । प्र. २८३ म. स्वामी को फांसी का उपसर्ग कैसे आया था? उ. प्रभु तोसली गांव के बाहर उद्यान में ध्यानस्थ
खड़े थे। संगम ने गांव में जाकर चोरी की और चोरी के औजार लाकर महावीर के पास छिपा दिये। चोर का पता लगाते राजपुरुष महावीर के निकट पहुंचे। पास में शस्त्र रखे देखकर महावीर को ही चोर समझा और पकड़कर गांव के अधिकारी तोसलि क्षत्रिय के समक्ष उन्होंने प्रस्तुत किया। क्षत्रिय ने श्रमण महावीर से पूछा-'तुम कौन हो ?" महावीर मौन थे। दो-चार वार पूछने पर भी महावीर ने उत्तर नहीं दिया तो क्षत्रिय रुद्ध होकर
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प्र. २८४ क्षत्रिय के आदेश पर राजपुरुषों ने क्या किया था ?
उ.
( १२२ )
बोला - "यह रंगे हाथों पकड़ा गया है, चोर तो है ही, फिर भी अपनी चोरी भी स्वीकार नहीं करता है । बोलता भी नहीं, जबान सी रखी है ? जाओ इसे फाँसी पर लटका दो ।"
उ..
क्षत्रिय के आदेशानुसार श्रमरण महावीर को फाँसी के तख्ते पर लाकर खड़ा कर दिया गया। राजपुरुषों ने पुनः पुनः समझाया -- "तुम अपना नाम क्यों नहीं बता देते, कुत्ते की मौत क्यों मर रहे हो ? खैर मरना ही है तो मरो, पर कोई अंतिम इच्छा है तो बताओ, उसे पूरी कर दें, ताकि मरते दम प्रारण अटकें नहीं ।' इन क्रूर व्यंग्य पर भी महावीर शांत और मौन रहे ।
प्र. २८५ म. स्वामी को फाँसी लगाने पर कितनी बार फंदा टूट गया था ?.
क्रूर राजपुरुषों ने भी फांसी का फंदा महावीर के गले में लगाया और नीचे से तख्ता हटा दिया। पर आश्चर्य ! जैसे ही तख्ता हटा,
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( १२३ )
फंदा टूट गया और महावीर नीचे आ गिरे । दुबारा दूसरी रस्सी बांधकर फंदा डाला गया, पर वही पहले जैसा ही टूट गया। सभी दर्शक आश्चर्य से फटी आँखों से देख रहे थे, आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ, आज ही ऐसा क्यों हो रहा है ? हजारों अपराधियों को मारनेवाला यह फंदा आज एक बार नहीं, दो बार नहीं, सात-सात बार टूट गया है । श्राखिर बात क्या है ? कहीं कुछ दाल में काला है । लगता है यह कोई चोर नहीं, साधु हैं । जानबूझ कर कोई अन्याय न हो ।
प्र. २८६ म. स्वामी के गले से बार २ फाँसी का फंदा टूटने पर राजपुरुषों ने क्या किया था ? राजपुरुषों का दिल सहम गया, वे दौड़कर तोसलि क्षत्रिय के पास आये, क्षत्रिय ने यह घटना सुनी तो उसका हृदय धड़क उठा"अरे रूको ! यह कोई परम हंस योगी तो नहीं है ? हम धोखे में कुछ अन्याय न कर बैठें ?" क्षत्रिय स्वयं दौड़कर ग्राया, महावीर
उ.
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प्र. २८४ क्षत्रिय के आदेश पर राजपुरुषों ने क्या किया था ?
क्षत्रिय के आदेशानुसार श्रमण महावीर को फाँसी के तख्ते पर लाकर खड़ा कर दिया गया। राजपुरुषों ने पुनः पुनः समझाया -- "तुम अपना नाम क्यों नहीं बता देते, कुत्ते की मौत क्यों मर रहे हो ? खैर मरना ही है तोः मरो, पर कोई अंतिम इच्छा है तो बताओ, उसे पूरी कर दें, ताकि मरते दम प्रारण अटकें नहीं ।' इन क्रूर व्यंग्य पर भी महावीर शांत और मौन रहे ।
उ.
( १२२ )
बोला - "यह रंगे हाथों पकड़ा गया है, चोर तो है ही, फिर भी अपनी चोरी भी स्वीकार नहीं करता है । बोलता भी नहीं, जबान सी रखी है ? जाओ इसे फाँसी पर लटका दो ।"
प्र. २८५ म. स्वामी को फाँसी लगाने पर कितनी बार फंदा टूट गया था ?
उ..
क्रूर राजपुरुषों ने भी फाँसी का फंदा महावीय के गले में लगाया और नीचे से तख्ता हटा दिया । पर आश्चर्य ! जैसे ही तख्ता हटा,
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( १२५ )
प्र. २८८ म. स्वामी जब गोचरी के लिए किसी के गृह पधारते तब संगम वहाँ कैसा उपसर्ग देता रहा था ?
उ.
प्रभु आहारार्थं पधारते तो बीच में कच्चा पानी डालकर निर्दोष आहार को दोषी वना देता । लोगों को शंका हो ऐसी प्रभु के अंग पर कृत्रिम विकृतियों को बताना । प्रभु को छः माह तक एक करण अन्न और एक बूँद पानी तक प्राप्त नहीं होंने दिया ।
प्र. २८६ म. स्वामी को घोर उपसर्ग देते अंत में संगम ने क्या किया था ?
हताश, निराश, उदास संगम एक दिन श्रमण महावीर के पास आकर विनम्रता का अभिनय करके बोला - " महाप्रभु ! देवराज इन्द्र द्वारा आपकी धीरता और तितिक्षा की प्रशंसा सुनी, वह अक्षरशः सत्य सिद्ध हुई । मैं उसे श्रसत्य करने पर तुला था, पर मेरे समस्त प्रयत्न व्यर्थ गये, आपको असीम कष्ट और पीड़ाएँ देकर भी मैंने देखा कि आपके हृदय के किसी कोने
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******
( १२४ )
:
की शांत, तेजोदीत मुख मुद्रा देखकर सहसा उनके चरणों में गिर पड़ा' हे परम योगराज हमारा अपराध क्षमा कीजिये । कृपाकर अपना परिचय देकर उपकृत कीजिये ।" महावीर फिर भी मौन थे । तोसलि ने बार-बार विनय करके प्रभु से श्रद्धापूर्वक क्षमा मांगी और वहाँ से विदा दी ।
उ.
2
इस प्रकार संगम ने अपनी उपद्रवी बुद्धि द्वारा श्रमण महावीर को हर प्रकार से त्रास, संकट और प्राणान्तक कष्टों से उत्पीड़ित करने की व्यर्थ चेष्टाएँ की मृत्यु के अंतिम चरण फाँसी के तख्ते पर चढ़ाने में भी वह असफल रहा । किन्तु महावीर आज भी प्रशांत प्रमुदित और ध्यान निमग्न दशा में शांति का अनुभव कर रहे थे । ध्यान योग की विशिष्ट प्रक्रियायों से उनका मन तो वज्र-सा हुआ ही, किन्तु फूलों-सा सुकुमार तन भी जैसे वज्रमय हो गया था ।
प्र. २५७ म. स्वामी की संगम देव ने कितने मास तक उपसर्ग दिया था ?
६ मास तक ।
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( १२५ )
प्र. २८८ म. स्वामी जब गोचरी के लिए किसी के गृह पधारते तब संगम वहाँ कैसा उपसर्ग देता रहा था ?
उ.
प्रभु ग्रहारार्थ पधारते तो वीच में कच्चा पानी डालकर निर्दोष आहार को दोषी बना देता । लोगों को शंका हो ऐसी प्रभु के अंग पर कृत्रिम विकृतियों को बताना । प्रभु को छः माह तक एक करण अन्न और एक बूँद पानी तक प्राप्त नहीं होंने दिया ।
प्र. २८६ म. स्वामी को घोर उपसर्ग देते अंत में संगम ने क्या किया था ?
उ.
हताश, निराश, उदास संगम एक दिन श्रमण महावीर के पास श्राकर विनम्रता का अभिनय करके बोला- "महाप्रभु ! देवराज इन्द्र द्वारा श्रापकी धीरता और तितिक्षा की प्रशंसा सुनी, वह अक्षरशः सत्य सिद्ध हुई। मैं उसे श्रसत्य करने पर तुला था, पर मेरे समस्त प्रयत्न व्यर्थ गये, आपको असीम कष्ट और पीड़ाएँ देकर भी मैंने देखा कि आपके हृदय के किसी कोने
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( १२६ ) में भी उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ा, सचमुच . आप अपनी दृढ़ता में सत्य प्रतिज्ञ रहें, मैं अपने निश्चय से पतित हो गया। अब मैं क्षमा
चाहता हूं. आप निर्विघ्न विचरिये।" प्र. २६० म. स्वामी ने संगम देव से क्या कहा था ?..
संगम के वचन सुनकर. प्रभु धीर-गंभीर स्वर
में बोले- "संगम ! मैं न किसी के प्रार्थना. वचन सुनकर प्रसन्न होता हूँ और न आक्रोश
वचनों से क्षुब्ध । मैं तो सदा आत्महित की दृष्टि से स्वेच्छापूर्वक विहार करता हूं। तुमने जो कष्ट दिये, वे मेरे तन को भले ही उत्पीडित करते रहें हो, किन्तु मन तक उनकी वेदना का स्पर्श नहीं पहुँच सका, अतः तुम्हारे प्रति मेरे मन में रत्ती भर भी दोष-रोष या. आक्रोश नहीं है ! हाँ एक बात का अफसोस है कि मेरा निमित्त बहुत जीवों के हित व कल्याण का साधन बनता है, वहाँ तुमने अपने निबिड़ कर्म-बंधनों के होने में मुझे हेतु भूत बना लिया। तुम्हें मेरे निमित्त से लगे हुए पापों के कारण घोर दुर्गतियों में कैसे दुःख सहने
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( १२७ ) . पड़ेंगे? तुम्हारा भविष्य जब अंधकारमय ,
और सघन कर्म-कालिमा से कलुषित देखता हूँ तो.... " कहते-कहते प्रभु की अनंत करुणा और वात्सल्य वर्षा की तरह उमड़ कर आँखों . मे बरस पड़े। उनकी पलकें करुणाद्र हो उठी, मुख मुद्रा वात्सल्य रस से आप्लावित हो गई। श्रमण महावीरके वचनों की हृदय-वेधकता, उनकी आँखों की प्रार्द्रता और मुखाकृति की करूणा शीलता ने संगम के पाषाण तुल्य हृदय पर वह चोट की, जो आज तक उनकी कठोर तितिक्षा से भी नहीं हो पाई थी। संगम लज्जित हो गया, उसका अनन्त हृदय उसे धिक्कारने लगा और वह महावीर के समक्ष
ऊँचा मुह किये क्षण भर भी ठहर नहीं सका। .... : आग से खेलनेवाला संगम पानी से हार कर
भाग गया। 'प्र. २६१ म. स्वामी को सुगम देव के कारण कितने दिन ।
का उपवास हुया था ? 8. छः मासी नप ( १८० दिन का उपवास)। 'प्र. २६२ म. स्वामी ने छः मासी तप का पारणा कहाँ
किया था?
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( १२८ . ) उ. पेढाल नगर में। . : .. प्र. २६३ म. स्वामी ने छः मासी तप का पारणा किसके
यहाँ किया था ? उ. वत्सपालिका (ग्वालिन) के यहाँ । ' प्र. २९४ म. स्वामी को छः मासी तप का पारणा
किसने कराया था? उ. वत्सपालिका ने (ग्वालिन ।।। प्र. २६५ म. स्वामी ने छः मासी तप का पारणा किससे
किया था ? उ. क्षीर से (खीर ) । प्रे. २६६ म. स्वामी ने दशम चातुर्मास के बाद क्या तप
किया था? उ. भद्र, महा भद्र और प्रतिमा भद्र तप । प्र. २६७ म. स्वामी ने भद्र आदि तप का पारणा कहाँ
किया था? उ. सानुलब्धिक ग्राम में । प्र. २६८ म. स्वामी ने भद्र अादिः तप का.....
किसके यहाँ किया - आनंद श्रावक के ...
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( १२६ )
प्र. २६६ म. स्वामी को भद्र आदि तप का पारणा
किसने कराया था? उ. वहुल दासी ने । - प्र. ३०० म. स्वामी ने भद्र प्रादि तप का पारणा
. किससे किया था ? उ, . वीरंज से ( शक्कर मिश्रित भात से ) . प्र. ३०१ म. स्वामी ने एकादश चातुर्मास कहां .
किया था ? - उ. वैशाली नगर के बाहर महाकामवन
उद्यान में । प्र. ३०२ म. स्वामी को प्रतिदिन भिक्षा ग्रहण की
विनति (प्रार्थना) कौन करता था ? जीरण शेठ प्रतिदिन प्रातःकाल उद्यान में प्रभु की वन्दना करता, और अपने घर पर भिक्षा ग्रहण करने की भाव-भीनी प्रार्थना भो। श्रेष्ठी ने मासांत के दिन सोचा "आज तो महाश्रमण एक मास के तप को पूरा कर मेरी भावना को अवश्य सफल । . करेंगे, अतः उसने विशेप भक्तिपूर्वक आग्रह किया। पर महाश्रमण तो कहीं भिक्षुार्थ
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( १३१ )
उ.
a
दासी ने। ३०६ मः स्वामो ने चारमासी तप का पारणा
किससे किया है।
रूखे-सूखे वासी अन्न से । प्र. ३०७ म. स्वामी का पारणा हो गया-ऐसा जीरण
शेठ को कब पता चला था। तीर्थकरों के दिव्य अतिशय के अनुसार पारणा करते हो आकाश मण्डल देव-दुन्दुभियों से गुज उठा। "अहो दान की उद्घोषणाएं होने लगी और पाँच प्रकार की दिव्य वृष्टियों से धरती का सौन्दर्य सहस्त्रगुणा निखर उठा, यह आवाज सुनते ही जीरण शेठ को पता लगा कि अहो किसी अन्य भाग्यवान को प्रभु के पारणे का लाभ मिला और "मैं तो
ऐसे ही रह गया।" प्र. ३०८ म. स्वामी का पारणा हो गया ऐसा सुनते
ही जीरण शेठ को क्या हुआ था ? उ०. जैसे ही दिव्य उद्घोष सुना, उसकी प्राशाओं
पर तुषारापात हो गया। जैसे कोई दिव्य स्वप्न भंग हो गया हो। वह हताश होकर
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( १३२ ) अपने भाग्य को कोसने लगा.. जीरण शेठ को भावना इतनी उच्च श्रेणी पर पहुँच गई थी यदि मुहूर्त भर वह उसी भाव श्रेणो पर चढ़ता रहता तो चार घनघाती कर्मों का क्षय कर 'केवलज्ञानी' बन जाता। किन्तु भगवान के पारणे का सम्वाद सुनकर ही उसको उच्च धारा टूट गई। अन्त में आयु पूर्ण होने पर जीरण शेठ बारहवें स्वर्ग में
उत्पन्न हुए। प्र. ३०६ म. स्वामी ने एकादश चातुर्मास के वाद
किस ओर विहार किया था ?
सुसुमारपुर नगर की ओर। . प्र. ३१. म. स्वामो सुसुमारपुर में कहां विराजमान थे? उ.. सुसुमारपुर के निकट अशोक वनमें ध्यानस्थ थे। प्र. ३११ म. स्वामी के चरणों में अशोक वन में
किसने शरण ग्रहण की थी? .
असुरराज चमरेन्द्र ने। प्र. ३१२ म. स्वामी के चरणों में चमरेन्द्र ने शरण
। क्यों ग्रहण की थी ? . .उ. . सुरों के इन्द्र सौधर्मेन्द्र के वज्रप्रहार से ।
म
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( १३३ )
प्र. ३१३ सौधर्मेन्द्र ने चमरेन्द्र पर वज्रप्रहार क्यों
किया था ?
उ.
एक दिन ध्यानलीन श्रमण महावीर के चरणों में असुरेन्द्र पाया। महावीर तो ध्यान में अन्तर्लीन थे। उसने विनय पूर्वक प्रदक्षिणा की और वोला-"प्रभो! आज मैं उस अहंकारी सौधर्मेन्द्र से लोहा लेने जा रहा हूं। मेरी जीवन रक्षा आपके हाथ में है, आप ही मेरी अनन्य-शरण हैं।" महावीर को वन्दना कर असुरराज चमरेन्द्र विकराल रूप बनाकर, रौद्र हुंकार करता हुआ स्वर्ग में पहुंचकर देवराज इन्द्र को ललकारने लगा। उसका भयानक रौद्र रूप देखकर हास-विलास में मग्न देवगण डर गये, देवियों को कान्ति मन्द पड़ गयी। स्वर्ग में खलबली मच गई, अचानक असुरराज के अाक्रमण का सम्वाद बिजली को भांति सर्वत्र फैल गया, अनन्तकालमें ऐसा कभी नहीं हुआ, महाश्चर्य! देवराज इन्द्र ने असुरेन्द्र को ललकारा-"दुष्ट ! यह धृष्टता तेरी !
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दूसरे के भवन में आकर यों उत्पात मचाना" और क्रोध में आकर उन्होंने अपना दिव्यास्त्र
वज्र असुरेन्द्र पर फेंका। ३१४ असुरेन्द्र ने वज्र को देखकर क्या किया था ?
हजार-हजार विलियों की तरह चमकताकौंधता वज्र देखकर असुरेन्द्र घबराया, जान मुट्ठी में लेकर उल्टे पैरों भागा। वज्र उसका पीछा कर रहा था। तीक्ष्ण अग्नि-ज्वालाओं की तरह किरणें असुरराज को भस्म करने को दौड़ रही थी, तीव्र वेग से दौड़त-भागता घबराया हुआ असुरराज सीधा पहुंचा, ध्यानलीन श्रमण महावीर के चरणों में। भय से कांपता हुआ वह पुकार रहा था भयवं शरणं, भयवं शरणं-प्रभो! आप मेरे शरण दाता हैं, बचाइये, रक्षा कीजिए। और वह छोटीसी चींटी का रूप बनाकर महावीर के चरणों
में छुपकर-दुबक कर बैठ गया। . ३१५ देवराज को वज्र छोड़ने के बाद क्या स्मरण
पाया था ? देवराज ने क्रोधाविष्ट होकर असुरराज पर
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( १३५ ) प्रहार करने वज्र तो फेक दिया, किन्तु तुरन्तः ही उन्हें स्मरण आया, दुष्ट असुरराज को मेरे देव-विमान पर अचानक आक्रमण करने का साहस कैसे हुआ ? किसी भावितात्मा महापुरुष का आश्रय या शरण लिये विना वह यहाँ तक कैसे आ पहुंचा ? और तत्क्षण ही उसे ध्यान आया "अरे ! यह तो तपोलीन महावीर के चरणों का प्राश्रय लेकर आया है।" देवराज का हृदय अनिष्ट की आशंका से व्याकुल हो गया- कहीं मेरे वज्र-प्रहार से
प्रभु महावीर का अनिष्ट न हो जाय । प्र.३१६ देवराज ने स्मरण में आने के बाद क्या
किया था? उ. दिव्य देवगति से देवेन्द्र अपने वज्र के पीछे
दौड़े । प्रागे - पागे असुरराज, पीछे अग्नि ज्वालाएँ फेंकता हुया वज्र और उसके पीछे. वज्र को पकड़ने में उतावले देवराज । असुरराज तो महावीर के चरणों में जा छुपा । वज्र सिर्फ चार अंगुल दूर था तभी देवराज ने उसे पकड़ लिया और वे प्रभु महावीर से अविनय के लिये क्षमा मांगने लगे।
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( १३६ ) "प्र. ३१७ चमरेन्द्र पूर्व भव में कौन था ?
विन्ध्याचल की तलहटी में “पूरण" नामक एक समृद्ध गृहस्थ रहता था। एक बार उसके मन में एक संकल्प उठा कि मैं यहाँ जो सुख. भोग कर रहा हूं, वह सब पूर्व-जन्म-कृत पुण्य का फल है, इस जन्म में यदि कुछ ऐसा विशिष्ट तपश्चरण आदि न करूंगा तो अगले जन्म में सुख कैसे प्राप्त होगा? अतः कुछ तप
आदि करना चाहिये। इस संकल्प के अनु-सार मन में भावी जीवन के पुण्य फल की कामना का संस्कार लिये वह घर-बार छोड़कर सन्यासी बन गया और 'दानामा' (दानप्रेधान) प्रव्रज्या अंगीकार कर ली। उसकी विधि के अनुसार वह दो दिन का उपवास करके पारणे के लिये निकलता तो हाथ में एक लकड़ी का चार खानों वाला पात्र रखता। पात्र के पहले खाने में जो भिक्षा प्राप्त होती वह भिखारियों को दे देता, दूसरे खाने में प्राप्त भिक्षा कौआ, कुत्तों आदि को खिला देता। तीसरे खाने में जो कुछ प्राप्त भिक्षा
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( १३७ ) मछलियों, कछुओं आदि जलचर प्राणियों को डाल देता और चौथे खाने में जो कुछ बचता वह स्वयं खाकर पारणा करता। इस प्रकार का घोर तप वारह वर्ष तक करता रहा । अन्त में एक मास का अनशन कर आयुष्य
पूर्णकर वह असुर कुमारों का इन्द्र चमरेन्द्र वना। प्र. ३१८ चमरेन्द्र सौधर्मेन्द्र के देव विमान में क्यों
गया था ?
a
चमरेन्द्र ने अपने ज्ञान - बल से इधर-उधर देखा-ससार में मुझसे भी कोई अधिक बलशाली और ऋद्धिशालो है क्या? तभी ठीक उसे देव-विमानों के ऊपर सौधर्म-विमान में इन्द्रासन लगा दिखाई दिया। सौधर्मेन्द्र अपने भोग-विलास, आमोद-प्रमोद व ऐश्वयं में मस्त था। अपने सिर पर इस प्रकार सौधर्मेन्द्र को प्रानन्द-विलास करते हुए देखकर चमरेन्द्र का अहंकार क्रोध के रूप में भड़क उठा। उसने अन्य असुर कुमारों से पूछा-यह कौन पुण्यहीन, विवेकहीन, अहंकारी देव है, जो यों हमारे मस्तक पर निर्लज्जता पूर्वक बैठा
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( १३८ )
देवियों के साथ हास- विलास कर रहा है ?' क्यों न इसके अहंकार को चूर-चूर कर दिया जाय ? अन्य असुर कुमारों ने उसे समझाया"यह सौधर्मेन्द्र है. और अपने विमान में बैठा है, हमसे अधिक शक्तिशाली है, अतः इससे कुछ छेड़-छाड़ करना अपनी जान से खेलना होगा ?
उ
अहंकार में दीप्त चमरेन्द्र ने अट्टहास के साथ अन्य असुर कुमारों का उपहास किया - "तुम सब कायर हो, मैं किसीको यों अपने सिर पर बैठा नहीं देख सकता । श्रभी मैं उसकी टांग पकड़कर श्रासन से क्या, स्वर्ग से भी नीचे फेक देता हूं ।
प्र. ३१९ सौधर्मेन्द्र के सामने प्रहार करने के पूर्व चमरेन्द्र किसकी शरण लेने गया था ?
अहंकार, ईष्या, और क्रोध के आवेग में अंधा वना हुआ सुरेन्द्र एक भयंकर हुंकार के साथ उठा सौधर्मेन्द्र पर प्रहार करने, तभी सहसा मनके सघन अन्धकार के एक कोने में हलकी सी ज्योति जली, उसे अपनी दुर्बलता और
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( १३६ )
तुच्छ सामर्थ्य का अनुभव हुआ, कहीं मैं पराजित हो गया तो, जान भी नहीं बच पायेगी ? तभी एक रात्रि को महाप्रतिमा ग्रहण करके ध्यानयोग में स्थिर श्रमण महावीर का स्मरण हुआ बस यही एक तपोमूर्ति श्रमरण ऐसे सामर्थ्य शाली हैं, जो मुझे शरणभूत हो सकते हैं ।
प्र. ३२० म. स्वामी ने एकादश चातुर्मास के बाद किस ओर विहार किया था ?
उ.
वत्स देशको राजधानी कौशंवी नगर की ओर । प्र. ३२१ म. स्वामी ने विहार में कैसा ग्रभिग्रह तप
किया था ?
उ.
कठोर ( घोर) अभिग्रह तप किया था ।
प्र. ३२२ म. स्वामी ने अभिग्रह तप कब किया था ?
उ.
पौष कृष्ण प्रतिपदा को ।
प्र. ३२३ म स्वामी ने कितने बोलका अभिग्रह तप
•
ग्रहण किया था ?
उ.
तेरह बोल का ।
प्र. ३२४ म स्वामी ने कौन-कौन से तेरह बोल फा
•
श्रभिग्रह किया था ?
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( १४० )
(१) सुशीला राजकुमारी हो। (२) दासी बनकर जी रही हो । (३) कमरे में बन्द हो । (४) हाथ-पैर बेड़ियों से बँधे हो। (५) सिर मुण्डा हो। (६) तीन दिनकी भूखो-प्यासी हो। (७) कच्छ बाँधा हो। (८) देहली में बैठी हो। (8) एक पांव देहली के बाहर एवं एक पांव अन्दर हो। (१०) भिक्षा का समय बीत गया हो व तोसरा प्रहर हो। (११) हाथ में सूप हो । (१२) उड़द के बाकुले
हों। (१३) अांखों में प्रांसुत्रों का धारा हो । प्र ३२५ कौशंबी में किसका राज्य था ? उ भारतवंशी राजा शतानीक का राज्य था। प्र. ३२६ शतानीक को रानो का क्या नाम था ? उ. मृगावती। प्र. ३२७ कौशंबी का पड़ोसी राज्य कौन था ?. उ. अंग देश। राजधानी थी चम्पा नगरी । प्र. ३२८ चम्पानगरी में किसका राज्य था ? उ. राजा दधिवाहन का राज्य था ? प्र. ३२६ दधिवाहन को रानी का नाम क्या था ? उ. धारिणो ।
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( १४१ )
प्र. ३३० मृगावती और धारिणी रानी का क्या संबंध था ?
दोनों एक माता-पिता की पुत्रियां यानी बहनें थीं प्र. ३३१ मृगावती और धारिणी किसकी पुत्रियां थीं ?
उ.
प्र. ३३२ शतानीक और दधिवाहन का क्या संबंध था ? दोनों परस्पर साढू थे 1
प्र. ३३३ चम्पानगरी पर किसने ग्राक्रमरण किया था ? कौशँवी नरेश शतानीक ने ।
उ.
उ.
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भः महावीर के मामा वैशाली गणाध्यक्ष राजा चेटक की पुत्रियां थी ।
प्र. ३३४ अचानक श्राक्रमरण के कारण राजा दधिवाहन को क्या हुआ था ?
अपने सम्बन्ध के कारण दोनों एक दूसरे के प्रति विश्वस्त और निर्भय थे । इस विश्वास का लाभ उठाकर शतानीक ने अचानक चम्पा नगरी पर आक्रमण कर दिया । दधिवाहन को जैसे ही आक्रमण का पता चला, वह स्तब्ध रह गया, किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया । विश्वास में की गई इस चोट का उसके मन पर इतना गहरा श्राघात लगा कि उसे प्रति
उ.
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3.
( १४२ )
शतानीक की सेनाएँ
सार रोग हो गया । चम्पा में घुस गई । पराजित हुआ दधिवाहन । राजा जान बचाकर कहीं भाग गया ।
प्र. ३३५ शतानीक की सेना ने चम्पा नगरी में घुसकर क्या किया था ?
उ.
विजयोन्माद में मत्त वत्स देश की सेनाओंने चम्पानगरी में लूट-पाट, अत्याचार, सुन्दरियों का अपहरण एवं बलात्कार का लोमहर्ष क्रूर तांडव मचाया, उसका वर्णन सुनने पर इसीं लूट
ही
से आँखें भींग जायें । पाट में एक रथिक ( रथ सैनिक ) में घुस गया ।
राजमहलों
प्र. ३३६ रथिक ने राज महलों में घुसकर क्या किया था ? रथिक हीरों-जवाहरात का लोभी नहीं, वरन् सौन्दर्य का लोभी था । स्वर्ण - मरिण - माणिक्य के खुले भण्डारों को छोड़कर भी उसने परम सुन्दरी रानी धारिणी एवं राजकुमारी वसुमती को अपने कब्जे में कर लिया और दोनों माँ-बेटियों को अपहरण कर रथ में बिठाकर चल पड़ा ।
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( १४३ )
प्र. ३३७ रथिक ने माँ-बेटी के साथ कैसा व्यवहार
किया था ?
रानी धारिणी के सहज सौन्दर्य पर वह अत्यन्त आसक्त हो गया । उसने रानी से कामप्रस्ताव किया :
प्र. ३३८ धारिणी रानी ने काम प्रस्ताव पर क्या किया ? जब रथिक उसके सतीत्व पर आक्रमण करने पर उतारु हुआ तो सिंहनी की भाँति गरजती
धारिणी रानी ने रथिक को फटकारा, विषयान्ध रथिक भूखे भेड़िये की तरह रानी के सतीत्व को चाट जाना चाहता था, तभी वीर क्षत्राणी ने जीभ खींचकर सतीत्व की रक्षा के लिए प्राणोत्सर्ग कर दिया ।
उ.
9
उ.
४. ३३६ माता धारिणी के प्रारणोत्सर्ग पर वसुमती ने क्या किया था ?
एक और जाल में फँसी मृगी-सी भयाकुल राजकुमारी भय से थर-थर काँप रही थी. माता का प्राणोत्सर्ग उसकी श्रांखों में सावन 'बरसा रहा था, तो दूसरी ओर रथिक की -नीचता और अधमता पर चण्डी की तरह
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आक्रोश के अंगारे भी बरसा रही थी "रथिक सावधान ! तुम्हारी नोचता ने मेरी माँ के प्राण ले लिये हैं, अगर मेरी ओर हाथ बढ़ाया तो मैं भी उसी मार्ग पर चल पड्गो और सती को कष्ट देने के घोर पाप से तुम्हारा भी
सत्यानाश हो जायेगा।" प्र. ३४० वसुमती के वचनों को सुनकर रथिक ने क्या
किया था? यह दृश्य देखते ही रथिक स्तब्ध रह गया। धारिणी के प्राणोत्सर्ग और वसुमती की ललकार ने उसके नीच हृदय को बदल दिया । वह गिड़गिड़ाता हुआ बोला-"राजकुमारी ! तुम मत डरो। मैं तुम्हें अपनी बहन मानता
हूं। चलो तुम बहन बनकर मेरे घर पर रहो।" ३४१ वसुमतो रथिक के घर पर क्या करती थी ?
वसुमती आश्वस्त होकर कौशंबी में रथिक के घर पर रहने लगी। वह भूल गई कि वह कोई राजकुमारी है । एक नौकरानी की भांति वह घर कापूरा काम करती, दिनभर व्यस्त रहती ताकिपुरानी दुःखद स्मृतियों को उभरने " का अवकाश भी न मिले ।
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( १४५ )
प्र. ३४२ रथिक की पत्नी ने वसुमती के सौन्दर्य को देख . कर क्या किया था ? ।
पुराने, मैले-फटे कपड़ों में रहने और दिन भर दासी का काम करने पर भी वसुमती का स्वर्ण-कांति-सा दीप्त सौंदर्य कैसे छिप सकता था ? रथिक की पत्नी के हृदय में वसुमती का यह सौंदर्य शूल बनकर चुभने लगा। इस आशंका से वह व्यथित हो उठी कि मेरा पति. इस दासी को ही अपनी प्रियतमा बनालेगा अन्यथा चम्पा की लूट में जहाँ अन्य सैनिकों ने स्वर्ण, होरे-मोती से अपने घर भर लिए और पीढ़ियों की दरिद्रता मिटा ली, वहां इसे क्या कुबुद्धि हुई कि इस कलमही दासी को ही उठा लाया? यह तो मेरी आस्तीन का ही साँप बनकर रह रही है। इस मिथ्या
आशंका और ईष्यावश घर में पति-पत्नि में ।
, कलह शुरू हो गया। प्र. ३४३ रथिक पति-पत्नि के कलह पूर्ण वातावरण को ।
देखकर वसुमती ने क्या किया था? गृहकलह कहीं महाभारत का रूप न ले ले,
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( १४६ ) अतः एकदिन वसुमती ने ही रथिक से कहा"भाई ! भाभी को स्वर्ण-मुद्राओं की इच्छा है, अतः तुम मुझे दासों के बाजार में बेच आओ तो तुम्हारा गृह-कलह भो मिटे और भाभी की
मनोकामना भी पूर्ण हो जाय ," . प्र. ३४४ वसुमतो के कथन पर रथिक ने क्या किया था?
अनेक विकल्पों के बाद आखिर छाती पर पत्थर रखकर रथिक ने वसुमती को कौशंबी
के बाजार में खड़ी कर बोली लगादी । प्र. ३४५ वसुमती को किसने खरीद लिया था ?
हजारों दासियाँ वहाँ बिक रही थी, किन्तु वसुमती का शील-सौंदर्य कुछ विलक्षण ही प्रतीत हो रहा था। लोगों ने हजार-दस हजार तक बोली लगाई, किन्तु रथिक ने एक लाख स्वर्ण मुद्रा की मांग रखी। तब कौशंबी की प्रसिद्ध गरिणका ने इस अप्सरा तुल्य दासी को
खरीद लिया एक लाख स्वर्ण मुद्राओं में । 'प्र. ३४६ गणिका के खरीदने पर वसुमती ने उन से क्या
कहा था ? वसुमती ने जब गरिएका के हाथों स्ता
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। १४७ )
.."
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.........
.
विका देखा तो उसका रोम-रोम कांप उठा। _. फिर भी वह साहस और धीरज की पुत्तली थी .. उसने गरिएका से जब उसके काम के विषय में
पूछा तो उसने कह दिया-"माताजी! मैं ..... यह कार्य कभी भी नहीं कर सकती, आपकी
... एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ पानी में चली जायेगी। ..... मुझे मत खरीदिये। मैं आपके घर हरगिज
नहीं जा सकती। प्र. ३४७ वसुमती का कहना न मानने पर गरिएका पर
कैसी वीती? . गरिएका के सेवकों व दलालों ने वसुमतो को पकड़ कर ले जाने की और सीधे पांव न चलने पर घसीट कर ले जाने की धमकी दो। कहते है तभी कुछ ऋद्ध बंदरों को टोली अचानक गरिएका पर टूट पड़ी, उसके वस्त्र फाड़ डाले शरीर को नोंच-नोंच कर खून की धाराएँ वहा दी। वाजार में चारों और भगदड़ मच
गई, शोर-शरावा होगया , प्र. ३४८ वाजार में शोर-शराबा सुनकर वहां पर
किसने रुककर पूछताछ की थी?
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( १४८ )
ने बन्द
वल्ट इसीके
यह मना कर
उस समय कौशंबी का कोट्याधिपति धनावह सेठ उधर से निकला। यह अजीब दृश्य देख कर वह रुका और पूछा-"क्या बात है ?" . लोगों ने कहा-"यह दासी एक लाख स्वर्णमुद्रा में बिक गई है, पर जिस गरिणका ने खरीदा है, उसके साथ जाने से यह मना कर रही है और उल्टे इसीके किन्हीं गुप्त दलालों
ने बन्दरों से गणिका को नुचवा डाला है।" प्र. ३४६ लोगों की बात सुनकर धनावह सेठ ने क्या
किया ? धनावह की सरल और पारखी नजरों ने वसुमतो को देखा तो उसकी आँखे सजल हो गई-"यह तो दासी नहीं, कोई देवकन्या है।" उसने दलालों से कहा-"रुको! सब रखो इस कन्या के साथ जबर्दस्ती मत करो! अगर यह गणिका के घर नही जाना चाहती है तो मैं इसे खरीदता हूं, एक लाख स्वर्णमुद्राएँ मैं
देता हं .......।" प्र. ३५० धनावह सेठ के खरीदने पर वसुमती ने उससे
क्या पूछा था ?
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उ.
प्र. ३५१ वसुमती के पूछने पर धनावह सेठने क्या कहा
था ?
उ.
( १४६ )
वसुमती धनावह सेठ की प्रेम स्नेहसनी वाणी से आश्वस्त तो हुई, पर वह ठोकरें खा चुकी थी, उसे अनुभव हो गया था कि- देवता की मूर्ति के पीछे दुष्ट दानवका असली चेहरा छिपा रहता है नकली चेहरे की चकाचौंध में । अतः उसने पूछा - "पिताजी ! आपके यहाँ मुझे क्या सेवा करनी होगी ? '.
उ.
धनावह सेठकी श्रांखे सजल हो गई - "वेटी यह क्या कम सेवा है कि मुझ संतानहीन के शून्य घर में तुम सरीखी एक देवकन्या का प्रवेश हो जाय । मेरा शून्य घर मंदिर बन जायेगा, अँधेरे में एक दीपक जल उठेगा, वस, मैं तुम्हें अपनी पुत्री रूप में देखकर ही प्रसन्न हूं और कुछ नहीं ।"
प्र. ३५२ वसुमती ने धनावह सेठकी बात सुनकर क्या किया था ?
व्यथा के अगणित घाव होते हुए भी वसुमती का मुख प्रसन्नता से दमक उठा । वह
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प्र. ३५३ चन्दना को देखकर मूला सेठानी को क्या हुआ था ?
उ.
( १५० )
धनावह के घर पर आ गई, और धनावह को पिताकी तरह श्रौर सेठानी मूला को माताकी तरह मानकर दिन-रात उनकी सेवा में लगी रहती । उसके शील व स्वभाव की सौम्यता देखकर धनावह उसे प्यार से 'चन्दना' कहकर पुकारने लगा ।
उ.
चन्दना का असीम सौंदर्यं और भावनाशील सहज स्नेह को देखकर मूला सेठानी भी रथिक पत्नी की भाँति सशंक हो गई।
प्र. ३५४ मूला सेठानी की शंका को पुष्ट करने के लिए कौनसी घटना घटी थी ?
एक दिन मध्यान्ह के समय धनावह सेठ बाहर से प्राया । उसने दासी को हाथ पैर धोने के लिए पानी लाने को कहा । दासी किसी कार्य में व्यस्त थी । चन्दना ने पिताजी की आवाज सुनी, वह स्वयं जल लेकर दौड़ी आई । सेठ वहुत थका हुआ धूप से क्लान्त दीख रहा था, पितृभक्तिवश चन्दना स्वयं ही जल लेकर
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( १५१ ) पिताजी के पैर धोने लगी। उसके लम्बे-लम्बे सघन केश खुले हुए थे, नीचे झुकने पर वे भूमि छने लगे, तब धनावह ने सहज भाव से चन्दना. की खुली केश राशि को अपने हाथों से ऊपर उठा दिया।
प्र. ३५५ मूला सेठानी को धनावह सेठके इस व्यवहार
से कैसो कैसी शंकाएँ हुई ? उ. मूला सेठानी यह सब देख रही थी। उसकाः
पापी हृदय पाप की कल्पना में ड्व गया, चन्दना की सहज भक्ति और धनावह का यह शुद्ध स्नेहपूर्ण व्यवहार उसके हृदय में फैली दुर्भावना और आशंका की घास में आग की तरह फैल गया। उसे लगा-'सेठको वुढापे में जवानी याद आ रही है, आज जिसे पुत्री कहकर पुकारता है, कल उसे पत्नी बनाने में भी शर्म नहीं करेगा। यह पुरुष का कामी स्वभाव ही है। अतः विपवेलको बढ़ने से पहले ही उखाड़ फेंकना चाहिये, वरना यह वेटी वनकर पाई हई सपिणी मेरे सुखी-संसार को निगल जायेगी।"
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( १५२ )
प्र. ३५६ मूला सेठानी ने शंका में ही चन्दना के साथ
कैसा व्यवहार किया था? . उ. एक दिन धनावह सेठ नगर से कही बाहर
गया था। दुष्ट मूला सेठानी ने यह अवसर देखकर चन्दना के भ्रमर-से काले केशों को उस्तरे से मुडवा दिये, तन पर सिर्फ एक पुराना वस्त्र लिपटा छोड़ा, हाथ-पैर बेड़ियों से जकड़ दिये और पकड़ कर भूमिगृह में डाल दिया। भूमिगृह पर ताला लगाकर अपने
पीहर में चली गई। ‘प्र. ३५७ म. स्वामी कौशंबी नगर में कितने समय से
भिक्षार्थ पर्यटन करते थे ? चार महीने से पर्यटन करते थे लेकिन उनका
संकल्प पूर्ण नहीं होता था। प्र. ३५८ म. स्वामो किसके यहाँ भिक्षार्थ जाते थे ? उ. कौशंबी नगर के महामात्य सुगुण के घर
भिक्षार्थ जाते थे। प्र. ३५६ म. स्वामी को भिक्षा लिए बिना लौटने पर
किसको गहरी चोट पहुंची थो ? महामात्य की पत्नी सनन्दा प्रभुको उपासिका
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। १५३ )
थी। प्रभुके पधारने पर उसने शुद्ध भिक्षा का निमन्त्रण दिया, किन्तु प्रभु तो अभिग्रहधारीथे, अभिग्रह पूर्ण हुए विना कैसे आहार ग्रहण कर सकते थे ? विना कुछ लिये ही लौट
आये । सुनन्दा के हृदय को गहरो चोट पहुंची, अपने भाग्य को कोसती हुई वह फूट-फूट कर
रोने लगी। प्र. ३६० सुनंदा को रोती देखकर दासियों ने क्या
कहा था ? उ. दासियों ने कहा-"स्वामीनी ! आप इतना
पश्चात्ताप क्यों करती हैं ? देवार्य तो यहाँ नगर में प्रतिदिन पाते है और विना कुछ लिये ही लौट जाते है, आज लगभग चार मास से
तो हम देख रही हैं......।" प्र. ३६१ सुनंदा ने अपनी मनोव्यथा किससे कही थी ? उ. महामात्य मुगुप्त से । प्र. ३६२ सुनंदा ने सुगुप्त को मनोव्यथा बताते हुए
कहा-"प्रापको चतुरता और बुद्धिमानी किस काम को ? जो आप इतना भी पता नहीं लगा सकते कि देवार्य प्रभु महावीर चार मान
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और आप जैसे महान राजाकी महारानी होने में मुझे आज कोई सार्थकता नहीं लगती। मैं
आज अपने को इस राज्य की रानी होने में हीनता एवं दीनता अनुभव करतो हूं, जबकि देवार्य चार मास से विना अन्न-जल प्राप्त किये
नगर में घूम रहे हैं. कुछ पता भी है आपको? प्र. ३६७ मृगावतो की बात सुनकर राजा शातानोक ने
क्या कहा था ? उ. शतानीकने अफसोस के साथ देवार्य के अभिग्रह
का पता लगाने का आश्वासन दिया । प्र. ३६८ शतानीक ने प्रभुके अभिग्रह के संबंध में क्या
किया था ?
राजा शतानीक ने महामात्य सुगुप्त, राजपुरोहित, अनेक बुद्धिशाली श्रमणोंपासकों एवं चतुर नागरिकों को बुलाया और देवार्य के अभिग्रह का पता लगाने का आदेश दिया। पर कोई भी उनके मनोगत वज्रासंकल्प का
पता लगाने में सफल नहीं हो सका। प्र. ३६६ धनावह शेठ बाहर से आया तो क्या देखा था? उ. चन्दना को भूखे-प्यासे भूमिगृह में पढ़े-पड़े
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( १५६ ) तोन दिन बीत गये थे, चौथे दिन धनवाह सेठ बाहर से नगर में आया तो घर को सूना देखा, चन्दना भी नहीं दिखाई दी तो इधर-उधर
जाकर उसने पुकारा - "चन्दना ! चन्दना ! प्र. ३७० सेठ के पुकारने पर चन्दनाने क्या कहा था ? उ. चन्दना भूमिगृह में बन्द थी। उसने धीमे
स्वर में उत्तर दिया "पिताजो, मैं यहाँ हूँ।" प्र. ३७१ धनावह ने चन्दना को भूमिगृह में देखकर क्या
किया था? धनावह ने भूमिगृह में बन्द चन्दना को विद्रूप देखा तो वह फुट-फूट कर रोने लगा-"बेटी
तेरी यह दशा ! मेरे जोतेजी तेरा यह हाल ।" प्र. ३७२ चन्दना ने धनावह सेठ को क्या कहा था ?
चन्दना ने धीरज के साथ कहा-"पिताजी ! कष्ट के समय रोने-धीने से वेदना और भी तीव्र हो जाती है, आप धीरज रखिये, आप किसी पर रोष और आक्रोश न करें, यह अपने ही कृत-कर्मों का फल है, आप शीघ्र भूमिगृह
से बाहर निकालिये।" प्र. ३७३ धनावह ने चन्दना को भूमिगृह से बाहर
निकाल कर क्या किया था ?
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( १५७ )
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उ. . धनावह ने हाथ के सहारे चन्दना को घर के
दरवाजे में ला बिठाया, खाने को कुछ था ही नहीं, एक सूपके कोने में वासो उड़द उवला हुआ रखा था। धनावहने वही चन्दना के . सामने रख दिया और वोला-“वेटी! बेड़ियाँ
कटवाने मैं अभी लुहार को बुला लाता हूं।" . प्र. ३७४ म. स्वामी को कितने दिन के उपवास हो
गये थे ? पाँच मास और पच्चीस दिन (१७५दिन) का
उपवास । प्र. ३७५ म. स्वामो का अभिग्रह कहाँ पूर्ण हुआ था ? उ. कौशंबी नगर में। प्र. ३७६ म. स्वामी का अभिग्रह किसके यहाँ पूर्ण
हुया था ? उ. धनावह सेठ के वहाँ । प्र. ३७७ म. स्वामो धनावह सेठ के वहाँ से क्यों वापस
लौटे थे ? उ. १३ बोलका अभिग्रह पूर्ण न होने से ।
३७८ म. स्वामी के अभिग्रह में से कौन सा बोल पूर्ण _ नहीं हुआ था ? उ. आँखों में से अश्र धारा का।
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( १५८ )
प्र. ३७६ म. स्वामी का एक बोल क्यों पूर्ण नहीं
हुआ था ?
प्रभुको पधारते देखा तो, उसका रोम-रोम
नाच उठा, दुःख की भीषण ज्वाला के बीच सुख की यह मधुर वयार उसके तन- मनको प्रफुल्लित कर गई । प्रभु के दर्शन कर चन्दना हर्ष विभोर हो गई, परिणामत: उसके आँसू सूख गये और इस प्रकार अभिग्रह अपूर्ण देखकर प्रभु वापस लौट गये ।
प्र. ३५० म. स्वामी के वापस लौटने पर चन्दना को क्या हुआ था ?
3.
a
उ. प्रभु को वापस लौटते देखकर चन्दना की आँखें अपने दुर्भाग्य पर बरस पड़ी ।
प्र. ३८१ म. स्वामी ने अभिग्रह पूर्ण होने पर किससे आहार दान लिया था ?
उ.
चन्दना की आँखों में धारा देखकर प्रभु वापस लौट गये । उन्होंने चन्दना के हाथों से
आहार दान लिया |
प्र. ३८३ म. स्वामी ने अभिग्रह पूर्ण होने पर किससे पाररणा किया था ?
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( १५६ ) उ. उड़द के बाकुलों से । प्र. ३८३ म. स्वामी ने बाकुले किसमें लिये थे ? उ. कर-पात्र में। प्र. ३८४ म. स्वामी को आहार दान देने पर क्या
हुना था ? सहसा आकाश,मंडल में देव-दुदुभियों की ध्वनि के साथ जय-जयकार हुआ ।' अहोदानं-अहोदानं' की घोषणा से कौशंबी नगरका कोना-कोना मुखर हो गया। चन्दना के हाथ-पैरों की बेड़ियाँ टूटकर सुवर्णमय कंकरण और पायल का आभूषण बन गई। सिर पर दिव्य केशराशि विखर गई। सर्वत्र हर्षनाद 'हुआ।
पंचदिव्य प्रगट हुए थे। अ. ३८५ म. स्वामी के आहार दान के समय कौन-कौन
दिव्य प्रगट हुए थे? (१) वसुधारा ( स्वर्ण मुद्राओं) की वर्षा । (२) वस्त्रों की वर्षा । (३) पचरंगी पुष्प वृष्टि । .. (४) गगन में देव-दुदुभीकी घोषणा। (५) आकाश में अहोदानं अहोदानं का जयघोष
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( १६२: ). स्वयं छः मास तक भूखे-प्यासे रहकर उनके
उद्धार का वातावरण बनाया।" . प्र. ३६० म. स्वामी ने कौशंबो से किस ओर विहार
किया था ? उ. पालक ग्राम की ओर। . . . . प्र. ३६१ म. स्वामी को पालक ग्राम की ओर विहार में
कौन मिला था ? उस भायल नामका वैश्य। प्र. ३९२ म. स्वामी को देखकर भायल वैश्य ने क्या
किया था ? जिस मार्ग से प्रभु पालक ग्राम की ओर जा रहे थे, उसी मार्ग से भायल नामक कोई वैश्य धन कमाने जा रहा था। मार्ग में सामने महावीर मिल गये, वैश्य ने मुडित सिर श्रमण को देखा तो उसे लगा-यह तो बड़ा भारी अपशुकन हो. गया; उसे श्रमण पर इतना प्रचंड क्रोध आया 'कि अपने होशहवाश भूल कर वह तलवार से महावीर के टुकड़े-टुकड़े करने दौड़ पड़ा। पर, महाश्रमण तो मौन थे, अपनी ही मस्ती में चल रहे थे। वैश्य को तलवार का प्रहार
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करने आते देखकर वे वहीं स्थिर खड़े हो गये। उनको तेजोदीप्त मुखमुद्राको देखते ही दुष्ट वैश्य । के हाथ से तलवार छूट गई और वह उसी के सिर पर जा पड़ी । दुष्ट वैश्य अपने ही दुष्कृत्य
से मर गया। प्र, ३९३ म. स्वामी ने द्वादश चातुर्मास कहां किया था ? उ. चंपानगर में। प्र. ३९४ म. स्वामी ने द्वादश चातुर्मास में क्या तप
किया था ? उ. चारमासों तप ( एक साथ १२० उपवास ) प्रे. ३६५ म. स्वामी ने द्वादश चातुर्मास के बाद किस
ओर विहार किया था।
छम्माणि गाँव की ओर । प्र. ३६६ म. स्वामी को चातुर्मास के बाद कौनसा उपसर्ग
पाया था ? उ. कान में शूल भोंकनेका। प्र. ३९७ म. स्वामी के कानमें शूल कहाँ भोंकी गई थीं? उ. छम्माणि ग्राम के बाहर उद्यान में। प्र. ३६८ म. स्वामी के कानमें शूल किस अवस्था में
की गई?
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( १६४ ) उ. ध्यानस्थावस्था में। प्र. ३६६ म. स्वामी के पास उद्यान में कौन आया था ? उ. रवाला। प्र. ४०० म. स्वामी के पास आकर ग्वाला ने क्या
कहा था ? उ. प्रभु छम्मारिण गाँव के बाहर कायोत्सर्ग करके
ध्यानस्थ खड़े थे। संध्याके समय एक ग्वाला खेतों से काम करता हया पाया था। श्रमरण महावीर को ध्यानस्थ देख कर बोला-देवार्य, जरा मेरे बैलों की देखभाल करना, मैं अभी
पाता हूँ। प्र. ४०१ म. स्वामी के पास बैल छोड़कर ग्वाला कहाँ
गया था ? उ. ग्वाला किसी कार्यवश गांव में गया था। प्र. ४०२ ग्वाला ने वापस लौटकर प्रभु से क्या कहा था?
ग्वाला अपना कार्य करके गांव से कुछ समय पश्चात् लौटा, बैल चरते-चरते कहीं दूर निकल गये थे, वहाँ कहाँ मिलते ? उसने इधरउधर ढूढा, पर बैल दिखाई नहीं दिये। उसने पूछा-"देवार्य ! बताओ मेरे बैल कहां गये.?"
ब
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महावीर किसके बैलोंका अता-पता रखते । मौन-ध्यान में लीन थे । ग्वालाने दुबारा पूछा, फिर भी प्रभु तो मौन। अब तो ग्वाला आगबबूला हो गया, और खूब जोर से चिल्ला उठा-"रे ढोंगी बाबा ! तुझे कुछ सुनाई भी देता है या नहीं। बहरा तो नही है ?"
महावीर ने कोई उत्तर नहीं दिया। प्र. ४०३ म. स्वामी से कोई उत्तर नहीं मिलने पर
ग्वाले ने क्या किया था ? ग्वाला क्रोधावेश में आगया, "अच्छा, लगता है दोनों ही कान फूटे हैं, जरा ठहर, अभी तेरी चिकित्सा करता हूं।" आवेश में मूढ़ ग्वालेने
महावीर के कानों में आर-पार शूल ठोंक दी। प्र. ४०४ म. स्वामी के कान में जो शूल ठोंकी गई, वह
ग्वालेने किस से बनाई थी,?
शरकट नामके कठोर वृक्ष को डालो. से। प्र. ४०५ म. स्वामी के कौनसे कान में शूल ठोंकी थी ? उ. दोनों कानों में ।
प्र. ४०६ म. स्वामी के कानमें शूल किससे ठोंकी थी ? ___ उ. कुल्हाड़ी से।
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( १६६ ) प्र. ४०७ म. स्वामी के कान में शूल ठोंककर ग्वाला
कहाँ चला गया था? प्रभुके कान में शल ठोंककर ग्वाला अपने ग्राम
की ओर चल दिया था। प्र. ४०८ म. स्वामो ध्यान पूर्ण कर किस ओर पधारे थे ? उ. मध्यम पावा नगर की ओर। प्र. ४०६ म. स्वामी मध्यम पावाको ओर क्यों गये थे ? उ. भिक्षार्थ। प्र. ४१० म. स्वामी भिक्षार्थ किसके यहाँ पधारे थे ? उ. सिद्धार्थ सेठ के वहाँ । प्रे. ४११ म. स्वामी भिक्षार्थ पधारे तब सिद्धार्थ सेठ
क्या करता था? . . . .
परम मित्र खरक वैद्य के साथ बात कर रहा था। प्र. ४१२ म. स्वामी को देखकर दोनों ने क्या किया था?
तेजस्वी महाश्रमण को देखकर दोनों ही उठे, प्रभुको आदर पूर्वक वन्दना की और आहार
दान दिया। .. प्र. ४१३ म. स्वामी के कानोंमें शूल हैं ऐसी जानकारी
वैद्य को कैसे प्राप्त हुई थी ?
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( १६७ )
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उ. खरक वैद्य ने प्रभुकी मुखाकृति से भांप लिया
कि प्रभु को कुछ न कुछ पीड़ा अवश्य है । प्रभुः भिक्षा ले रहे थे तब खरक वैद्य ने सूक्ष्मता से उनके शरीरका अवलोकन किया। और शीघ्रः ही पता लगा लिया कि श्रमणवर के कानों में
किसी दुष्ट ने कष्टकारक शूलें ठोंक दी हैं। प्रः ४१४ म. स्वामी के कानों में शूल है। यह बात वैद्य ने.
किससे कही थो? ऐसे महाश्रमण के तन में वेदना! मित्र! ऐसे महातपस्वी की सेवा करना ती महापुण्य का कार्य है।" "ऐसा दुष्ट, अधम कौन होगा ? जिसने प्रभु के कान में शूल ठोंककर असह्य मर्मान्तक वेदना दी है ? पर खैर, अभी तो शीघ्र ही श्रमण की चिकित्सा का प्रबंध करनाः
चाहिये।" प्र. ४१६ म. स्वामी के कानों में से शूलें किसने
निकाली थी? उ..
खरक वैद्य ने ।
खरक वद्य प्र. ४१७ म. स्वामी के कानों से शूलें कहां निकाली थी?
मध्यम पावा नगर के वाहर उद्यान में। .
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( १६८ ) "प्रे. ४१८ म. स्वामी उद्यान में क्या कर रहे थे ? उ. कायोत्सर्ग कर ध्यान में स्थिर खड़े थे। प्र. ४१६ म स्वामी के कानों से शूलें कैसे निकाली गई ? (उ. खरक वैद्यने शूले निकालने केलिये सभी साधन
जुटाये। पहले तैलादिक से महावीर के तन का मर्दनादि किया और दोनों ओर से दोनों में संडासियों से पकड़ कर कुशलता पूर्वक वे शूलें खींची। शूलों के निकलने के साथ ही रक्त की धारा छूट गई। खरक ने संरोहण औषधिका
लेपकर प्रभु के घावों को शीघ्र ही भर दिया। प्र. ४२० खरक वैद्य ने कानों में से शूलें निकाली तब
प्रभुको क्या हुआ था ? उ. शूलें निकालते समय सुमेरु सम अडोल महावीर
को भी इतनी असह्य और मर्मान्तक वेदना हुई कि उनके मुखसे एक भयंकर चीख निकल
पड़ी। प्र. ४२१ म. स्वामी के कानों में से शूलें निकाल कर
सुश्रूषा करनेवाले वैद्य एवं सेठ मृत्यु के बाद कहाँ गये थे। अच्युत् नाम के बारहवें देवलोक में।
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( १६९ )
प्र. ४२२ म. स्वामी का साधनाकाल का क्षेत्र कौनसा
था ?
उ. पूर्व एवं उत्तर भारत का प्रदेश । प्र. ४२३ म. स्वामी को साधनाकालमें कितने प्रकार के
उपसर्ग आये थे? उ. तीन प्रकार के । प्र. ४२४ म. स्वामी को साधनाकालमें किस-किस
प्रकार के उपसर्ग आये थे ? जघन्य कोटि के, मध्यम कोटि के एवं उत्कृष्ट
कोटि के। प्र. ४२५ म. स्वामी के जघन्य कोटिके कौनसे उपसर्ग थे? उ. कटपूतना का उपसर्ग । प्र. ४२६ म. स्वामी के मध्यम कोटिके कोनसे उपसर्ग थे?
संगम द्वारा प्रस्तुत कालचक्र का सबसे
भयानक उपसर्ग । प्र. ४२७ म. स्वामी के उत्कृष्ट कोटि के कौन से
उपसर्ग थे ? कानोंमें शूलें ठोंकना और निकालना सबसे
दारुण उपसर्ग था। प्र. ४२८ म स्वामो के जीवन में उपसर्गों के संबंध में
आश्चर्य क्या है ?
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( १७०)
उ. श्रमण महावीर के जीवन में आश्चर्य और
संयोग की बात यह है कि उपसर्गों का प्रथम चक्र एक अबोध, अज्ञान ग्वाले द्वारा चलाया गया, और कष्टों का महान् रूप भी एक ग्वाले द्वारा कानों में शूलें ठोंक कर प्रस्तुत
हुआ। प्र. ४२६ म. स्वामी ने छमस्थावस्था के चारित्रपर्याय
में कितने उपवास किये थे ? उ. ४१६६ उपवास । प्रे. ४३० म. स्वामी ने छदमस्थावस्था के चारित्रपर्याय
में कितने पारने किये थे ? उ. ३४६ पारने। प्रे. ४३१ म, स्वामी के देवकृत कितने अतिशय थे ? उ. १६ ( उन्नीस ) प्र. ४३२ म.स्वामी ने कौन से आसन में साधन की थी? उ. प्रायः खड़े-खड़े, कायोत्सर्ग आसन में । प्र. ४३३ म. स्वामी का दीक्षा के बाद प्रथम शिष्य कौन
हुप्रा था ? गौशालक।
A
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तीर्थंकर पर्याय
प्र. १ म. स्वामी को केवलज्ञान कौनसी तिथिको
प्राप्त हुआ था ? उ. वैशाख शुक्ला-१०। प्र. २ म. स्वामी को केवलज्ञान किस दिन हुआ था ? उ. सुव्रत दिन ( शास्त्रीय नाम ) । प्र. ३ म स्वामी को केवलज्ञान कौनसे मुहुर्त में
हुआ था ? उ. विजय मुहूर्त में (शास्त्रीय नाम ) । प्र. ४ म. स्वामी को केवलज्ञान कौनसे नक्षत्र में
हुआ था ? उ. हस्तोत्तरा नक्षत्र में ( उत्तराफाल्गुनी)। प्र. ५ म. स्वामी को केवलज्ञान किस प्रहर में
हुआ था?
दिन के तीसरे प्रहर में । प्र. ६ म. स्वामी को केवलज्ञान किस ग्राम के बाहर
हुआ था ? जभिक ग्राम के बाहर ।
a.
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( १७२ )
प्र. ७ म. स्वामी को केवलज्ञान किस क्षेत्र के निकट
हुआ था ? उ. साभग गाथापति क्षेत्र के निकट । ८ म. स्वामी को केवलज्ञान किस नदी के तट पर
हुआ था ? उ. ऋजुवालिका नदीके तट पर । प्र. ६ म. स्वामी को केवलज्ञान किस वृक्षके नीचे
हुआ था? उ. शाल वृक्ष के नीचे । प्र. १० म. स्वामी को केवलज्ञान किस आसन में
444444444
हुआ ?
उ. गोदुहिकासन में। प्र. ११ म. स्वामी केवलज्ञान के समय किस अवस्था
में थे?
ध्यानस्थावस्थामें। प्र. १२ म. स्वामी केवलज्ञान के समय किस ध्यान
में थे। उ. शुक्लध्यान में। प्र. १३ म. स्वामी ने केवलज्ञान के समय कौन सा
तप कर रखा था?
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( १७३ )
उ. छठ तप । १४ म. स्वामी की केवलज्ञान के समय चारित्र
पर्याय कितनी थी ? उ. १२ वर्ष ६ मास १५ दिन । १५ म. स्वामी के शरीर पर केवलज्ञान के समय
कोई वस्त्र था ? उ. नहीं। प्र. १६ म. स्वामी के केवलज्ञान के समय कोई शिष्य
थे? उ. नहीं। १७ म. स्वामी ने केवलज्ञान के समय पास में क्या
रख रखा था? उ. कुछ नहीं, वे सर्वथा अपरिग्रही थे ? प्र. १८ म. स्वामी की केवलज्ञान के समय क्या
राशि थी?
कन्या। प्र. १६ म. स्वामो को किनके साथ केवलज्ञान
हुआ था। उ. अकेले ही हुआ था। प्र. २० म. स्वामी की केवलज्ञान के समय कितनी
उम्र थो?
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( १७४ )
उ. ४३ वर्ष प्र. २१ म. स्वामी ने केवलज्ञान के पूर्व चारित्र पर्याय
में क्या उपदेश दिये थे? । उ. विशिष्ट उपदेश के रूपमें प्रायः नहीं बोले,
वार्तालाप हो सकता है। प्र. २२ म. स्वामी के घाती कर्मों का क्षय कब हुआ था? उ. केवलज्ञान-केवलदर्शन प्रगट हा तब । प्र. २३ म. स्वामी ने कितने घाती कर्मों का क्षय
किया था ?
चार। प्र. २४ म. स्वामी ने कौन-कौन से घाती कर्मों का क्षय
किया था ? उ. (१) ज्ञानावरणीय (३) मोहनीय
(२) दर्शनावरणीय (४) अन्तराय प्र. २५ म. स्वामी ने केवलज्ञान प्राप्त करने के बाद
प्रथम देशना कहाँ दी थी ? उ. राजगृही नगर में। प्र. २६ म. स्वामो की प्रथम देशना में कितने जीवों को
प्रतिबोध प्राप्त हआ था ? ... . .. उ. एक भी जीव को नहीं। ..
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। १७५ )
प्र. २७ म. स्वामी की प्रथम देशना किसने सुनी थी ? उ. देवोंने । प्र. २८ म. स्वामी ने प्रथम देशनाके बाद किस ओर
विहार किया ? उ। अपापा नगर की ओर ( वर्तमान पावापुर) प्र. २६ म. स्वामी ने अपापानगर में कहाँ स्थिरता
की थो? उ. नगर बाहर उद्यान में। प्र. ३० म. स्वामी ने कौनसे उद्यान में स्थिरता की थी? उ. सर्व ऋतुओं के पुष्पों और फलों से समृद्ध एवं
रमणीय महासेन उद्यान में। प्र. ३१ म. स्वामी महासेन उद्यान में पधारे तब नगरमें
क्या चल रहा था ?
यज्ञ चल रहा था। प्र. ३२ यज्ञ कहाँ चल रहा था ?
सोमिल ब्राह्मण की यज्ञशाला में । ३३ यज्ञ कौन कर रहे थे ? उ. इन्द्रभूति आदि ११ ब्राह्मण अपने ४४००
शिष्य परिवार के साथ यज्ञ कर रहे थे ? प्र. ४ इन्द्रभूति कौन थे ?
उ.
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( १७६ )
ज्ञ-कर्म के अंगोपांग एवं रहस्य के साथ, ऋग्वेद-यजुर्वेद सामवेद- श्रथर्ववेद - चारों वेदों में, पांचवे इतिहास और छट्ट े निघंटुमें निश्रणात थे। स्मारक (दूसरे को याद करानेवाले) वारक (अशुद्ध पाठको रोकनेवाले) और धारक (अर्थको जाननेवाले थे । वे छ: अंगो के जानकार, खष्टि
1
तंत्र ( सांख्य शास्त्र ) में विशारद, गणित में, शिक्षण में, शिक्षा में, कल्प में, व्याकरण में, छंद में, निरुक्तमें, ज्योतिष में, ब्राह्मणों के अन्य शास्त्रों में एवं परिव्राजकों के आचार- शास्त्र में निपुण, सर्व प्रकार की बुद्धियों से संपन्न, यज्ञ कर्म में निपुण इन्द्रभूति ब्राह्मण थे ।
प्र. ३५ म. स्वामी प्रपापा नगरी पधारे तथा किसकी
रचना हुई थी ? समवसरण की ।
3.
प्र. ३६ समवसरण की रचना किसने की थी ?
देवोंने ।
उ.
प्र. ३७ समवसरण की रचना क्यों की थी ?
उ.
मिथ्यात्वको दूर करने और शासन प्रभावना के लिए ।
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( १७६ )
व
Ei.
एक योजन तक ( ८ मील = १३ कि. मी.) प्र. ५१ म. स्वामी की द्वितीय देशना में कितने जीवों
को प्रतिबोध प्राप्त हुया था ? उ. ४४११ । प्र. ५२ म. स्वामो को द्वितीय देशना में कितने जीव
दीक्षित हुए थे?
११ ब्राह्मण और उनके ४४०० शिष्य । ५३ म. स्वामी को द्वितीय देशना में इतने जीव
एक साथ क्यों दीक्षित हुए थे । ११ ब्राह्मणों के मन में रहे हुए संशयों का समाधान होने पर प्रभु महावीर स्वामीके प्रति सत्य और श्रद्धा से, प्रज्ञा और अनुभूति से आप्लावित हो उठे। उन्होंने सर्वज्ञ महावीर स्वामी के चरणों में अपने जीवन समर्पण कर दीक्षित होने के भाव प्रदर्शित किये। इनके साथ ही ११ ब्राह्मणों के ४४०० शिष्यों ने भी
अपने भाव प्रदर्शित किये। प्र. ५४ म. स्वामी की द्वितीय देशना में यह सव जीव
कैसे दीक्षित हुए थे। म. स्वामी की परम पावनी देशना सुनने के
उ.
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( १७८ )
समस्त जीवों के मनको जीत ले ऐसे; महा
प्रतिहार्यों को प्रगट किया था। प्र. ४४ इन्द्रोंने कितने प्रतिहार्य प्रगट किये थे? उ. पाठ। प्र. ४५ इन्द्रोंने कौन-कौन से प्रतिहार्य प्रगट किये थे ? उ. (१) अशोक वृक्ष, (२) अचित्त पुष्प-वृष्टि,
(३) दिव्य ध्वनि, (४) चामर, (५) स्फटिक रत्न सिंहासन, (६) भामंडल, (७) देवदु'दुभी,
(८) आतपत्र (छत्र)। प्र. ४६ म. स्वामी ने महासेन उद्यान में दूसरी देशना
कब दी थी ? उ. केवलज्ञान प्राप्ति के दूसरे दिन । प्र. ४७ म. स्वामी ने दूसरी देशना कौन सी मिति को
दी थी ? उ. वैशाख शुक्ला ११ । प्र. ४८ म. स्वामी ने कौन सी भाषा में देशना दी थी? .उ. अर्धमागधी। 'प्र. ४६ म. स्वामी ने कौन से राग में देशना दी थी ? ' उ. मालकोष । प्र. ५. म. स्वामी की वारणी कितने योजन तक प्रसृत
होती थी?
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( १७६ ) उ. एक योजन तक ( ८ मील = १३ कि. मी. ) प्र. ५१ म. स्वामी की द्वितीय देशना में कितने जीवों
को प्रतिबोध प्राप्त हुआ था ?
४४११ । प्र. ५२ म. स्वामो को द्वितीय देशना में कितने जीव
दीक्षित हुए थे ? उ. ११ ब्राह्मण और उनके ४४०० शिष्य । प्र. ५३ म. स्वामी को द्वितीय देशना में इतने जीव
एक साथ क्यों दीक्षित हुए थे। ११ ब्राह्मणों के मन में रहे हुए संशयों का समाधान होने पर प्रभु महावीर स्वामीके प्रति सत्य और श्रद्धा से, प्रज्ञा और अनुभूति से आप्लावित हो उठे। उन्होंने सर्वज्ञ महावीर स्वामी के चरणों में अपने जीवन समर्पण कर दीक्षित होने के भाव प्रदर्शित किये। इनके साथ ही ११ ब्राह्मणों के ४४०० शिष्यों ने भी
अपने भाव प्रदर्शित किये । प्र. ५४ म. स्वामी की द्वितीय देशना में यह सब जीव
कैसे दीक्षित हुए थे। .उ. म. स्वामी की परम पावनी देशना सुनने के
.
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( १८० )
लिए भवनपति, व्यंतर, ज्योतिषी और वैमानिकादि देव देवियाँ अपने सुसज्जित विमानों में बैठकर आ रहे थे । इन विमानों को दूर से आते देखकर ग्रामवासी देखने के लिए उमड़े । यज्ञशाला में यज्ञ करते ब्राह्मणों को भी जानकारी हुई। हुई । सब ब्राह्मणों में सर्वश्र ेष्ठ इन्द्रभूति ब्राह्मण को गर्व हुआ। वे कहने लगे अपना कैसा यज्ञ ; जिसको देखने के लिए स्वर्ग से देव-देवेन्द्र भी ना रहे हैं। पर एक के बाद एक विमान यज्ञशाला को पार कर आगे बढने लगे । इन्द्रभूति को सन्देह हुआ । हमारे से भो श्र ेष्ठ श्रौर महान व्यक्ति इस नगर में कौन आया; जिसके वहाँ स्वर्ग के देवेन्द्र भी जा रहे हैं । इस प्रकार अपने ही मन में शंका करते वे भी प्रभु के समीप पहुँचे । वहाँ प्रभु द्वारा उनकी . शंका का निवारण होने पर अपने शिष्यसमुदाय के साथ उन्होंने दीक्षा ले ली। इस प्रकार क्रमश : अन्य मुख्य ब्राह्मण भी अपनी-अपनी शंकाओं के समाधान होने पर अपने २ शिष्य परिवार के साथ प्रभु के चरणों में दीक्षित हो गये ।
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( १८१ ) प्र. ५५ म. स्वामी के पास ११ ब्राह्मण कितने-कितने
शिष्यों के साथ दीक्षित हुए थे ? प्रथम पाँच ब्राह्मण ५००-५०० के साथ, छठे ओर ७वें दो ब्राह्मण ३५०-३५० के साथ, और अंतिम चार ब्राह्मण ३००-३०० के साथ
दीक्षित हुए थे। प्र. ५६ म. स्वामो के कितने गणधर थे ?
यज्ञशाला से अपनी २ शंका के साथ आनेवाले ११ मुख्य ब्राह्मणों की शंकाओं का निवारण हुआ और वे प्रभुके चरणों में दीक्षित हुए। प्रभुने उन मुख्य ११ ब्राह्मणों को ११ गणधर
बनाये। प्र. ५७ म. स्वामी के ११ गणधरों के क्या नाम थे?
(१) इन्द्रभूति (२) अग्निभूति (३) वायुभूति १४) व्यक्तजी . (५) सुधर्मा (६) मंडित (७) मौर्यपुत्र (८) अंकपित (8) अचल भ्राता
(१०) मेतार्य (११) प्रभास ! . प्र. ५८ म. स्वामी के ११ गणधरों को किस २ विपय
में शंका थी ? . . . . (१) इन्द्रभूति को "जीवकी सत्ता के विषय में।
दम
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________________
( १८२ )
(२) अग्निभूति को " कर्मफल" के विषय में (३) वायुभूति को "जीव और शरीर एक है या भिन्न" के विषय में ।
(४) व्यक्त जी को "ब्रह्म ही सत्य है, पंचभूत प्रादि तत्र यथार्थ नहीं हैं" इस विषय में । (५) सुधर्माजी को "प्राणी मृत्यु पुनः अपनी योनि में हो उत्पन्न होता है" के पश्चात् इस विषय में ।
(६) मंडितजी को "बंध और मोक्ष नहीं है" के विषय में ।
( ७ ) मौर्यपुत्र को "स्वर्ग नहीं है" के विषय में ( 5 ) अंकपितजी को "नरक नहीं है" के विषय में ।
(e) अचल भ्राता को "पुण्य और पाप कोई तत्व नहीं, मात्र कल्पना है" इस विषय में । (१०) मेतार्यजी को "पुनर्जन्म नहीं है" के विषय में ।
(११) प्रभासजी को "मोक्ष नहीं है" के संबंध में । इन्द्रभूति, प्रग्निभूति और वायुभूति किस नगर के निवासी थे ?
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________________
( १८३ )
उ. इन्द्रभूति, अग्निभूति और वायुभूति गौवर'
संनिवेश नगर के निवासी थे। त्र. ६० इन्द्रभूति, अग्निभूति और वायुभूति के पिताका.
नाम क्या था ? उ. इन्द्रभूति,अग्निभूति और वायुभूति तीनों सहो
दर भाई थे। इनके पिताका नाम वसुभूति था । प्र. ६१ इन्द्रभूति,अग्निभूति और वायुभूति की माताका
नाम क्या था। उ. इन्द्रभूति,अग्निभूति और वायुभूति की माताका
नाम पृथ्वीदेवी था। प्र. ६२ इन्द्रभूति, अग्निभूति और वासुभूति का गोत्र
क्या था ?
इन्द्रभूति, अग्निभूति और वायुभूति का गोत्रः
गौतम था। प्र. ६३ इन्द्रभूति का जन्म नक्षत्र क्या था ? उ. ज्येष्ठा। प्र. ६४ इन्द्रभूति ने कितनी आयुमें दीक्षा ग्रहण की था?' उ. ५० वर्ष की आयु में। प्र. ६५ इन्द्रभूति को दीक्षा के कितने वर्ष बाद केवलज्ञान
प्राप्त हुआ था ?
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________________
( १८२ )
(२) अग्निभूति को "कर्मफल" के विषय में । (३) वायुभूति को "जीव और शरीर एक है या
भिन्न" के विषय में। (४) व्यक्त जी को "ब्रह्म ही सत्य है, पंचभूत
आदि तत्त्त्र यथार्थ नहीं हैं" इस विषय में । (५) सुधर्माजी को "प्राणी मृत्यु के पश्चात्
पुनः अपनी योनि में हो उत्पन्न होता है"
इस विषय में। (६) मंडितजो को "बंध और मोक्ष नहीं है"
के विषय में। (७) मौर्यपुत्र को "स्वर्ग नहीं है" के विषय में (८) अंकपितजी को "नरक नहीं है" के
विषय में। (६) अचलभ्राता को "पुण्य और पाप कोई
तत्व नहीं, मात्र कल्पना है" इस विषय में । (१०) मेतार्यजी को "पुनर्जन्म नहीं है" के
विषय में। (११) प्रभासजी को "मोक्ष नहीं है" के संबंध में। . प्र. ५६ इन्द्रभूति, अग्निभूति और वायुभूति किस नगर
के निवासी थे?
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________________
( १५३ )
इन्द्रभूति, श्रग्निभूति और वायुभूति गौवर संन्निवेश नगर के निवासी थे ।
ST. ६० इन्द्रभूति, अग्निभूति श्रौर वायुभूति के पिताका नाम क्या था ?
उ.
इन्द्रभूति, अग्निभूति श्रोर वायुभूति तीनों सहोदर भाई थे । इनके पिताका नाम वसुभूति था ।
प्र. ६१ इन्द्रभूति, अग्निभूति और वायुभूति की माताका
उ.
नाम क्या था ।
इन्द्रभूति, अग्निभूति और वायुभूति की माताका नाम पृथ्वीदेवी था ।
प्र. ६२ इन्द्रभूति, अग्निभूति और वायुभूति का गोत्र क्या था ?
उ.
उ.
200
க்
प्र. ६३ इन्द्रभूति का जन्म नक्षत्र क्या था ?
ज्येष्ठा ।
प्र.
६४ इन्द्रभूति ने कितनी श्रायुमें दीक्षा ग्रहण की था? ५० वर्ष की आयु में ।
उ.
प्र. ६५ इन्द्रभूति को दीक्षा के कितने वर्ष बाद केवलज्ञान प्राप्त हुआ था ?
उ.
इन्द्रभूति, अग्निभूति और वायुभूति का गोत्रः गौतम था ।
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________________
( १८४ ) उ. ३० वर्ष के बाद । । प्र. ६६ इन्द्रभूति केवली अवस्थामें कितने वर्ष रहे थे ?
१२ वर्ष । प्र. ६७ इन्द्रभूति गणधरका संपूर्णायु कितना था ?
उ.
६२ वर्ष ।
६८ अग्निभूति का जन्म नक्षत्र क्या था ? उ. रोहिणी। प्र. ६६ अग्निभूति ने कितनो आयुमें दोक्षा ग्रहणकी थो?
४६ वर्ष की आयु में।। प्र. ७० अग्निभूति को दीक्षा के कितने वर्ष बाद केवल
ज्ञान प्राप्त हुआ था ?
१२ वर्ष बाद । ७१ अग्निभूति केवली अवस्था में कितने वर्ष रहे थे?
१६ वर्ष । प्र. ७२ अग्निभूति गणधर का संपूर्णायु कितना था ?
७४ वर्ष । प्र. ७३. वायुभूति का जन्म नक्षत्र क्या था ? .. ..
मृगशीर्ष । , . . . . . . ७४ वायुभूति ने कितनी प्रायुमें दीक्षा ग्रहण की थी?
४२ वर्ष की आयु में। :: :.
उ.
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________________
4
છે
( १८५ ) प्र. ७५ वायुभूति को दीक्षा के कितने वर्ष बाद केवल. . . ज्ञान प्राप्त हुआ था ? उ. १० वर्ष बाद । प्र. ७६ वायुभूति केवली अवस्था में कितने वर्ष रहे थे?
१८ वर्ष। प्र. ७७ वायुभूति गणधर का संपूर्णायु कितना था ?
७० वर्ष । प्र. ७८ व्यक्तजी किस नगर के निवासी थे ? उ. कोल्लाग नगर के । 'प्र. ७९ व्यक्तजी के पिताका नाम क्या था ?
उ. धनमित्र । 'प्र. ८० व्यक्तजी के माताका नाम क्या था ?
उ. वारुणी देवी। 'प्र. ८१ व्यक्तजो का गोत्र क्या था ?
उ. भारद्वाज । 'प्र. ८२ व्यक्तजी का जन्म नक्षत्र क्या था? ड. श्रवण । प्र. ८३ व्यक्तजी ने कितनी आयुमें दीक्षा ग्रहण को थी? उ ५० वर्ष की आयु में। .. प्र. .. ८४ व्यक्तजो को दीक्षा के कितने वर्ष वाद केवल
ज्ञान प्राप्त हुया था ? .
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________________
उ. १२ वर्ष बाद । प्रे. ८५ व्यक्तजी केवली अवस्था में कितने वर्ष रहे थे? उ. १८ वर्ष । प्र. ८६ व्यक्तजी गणधर की संपूर्णायु कितनी थी ?
८० वर्ष । प्र. ८७ सुधर्माजी किस नगर के थे ? उ. कोल्लाग सन्निवेश नगर के । प्र. ८८ सुधर्माजी के पिताका नाम क्या था ? उ. धमाल । प्र. ८६ सुधर्माजी की माता का नाम क्या था? उ. मछल देवी। प्र. ६० सुधर्माजी का गोत्र क्या था ? उ. अग्निविशाल ।
६१ सुधर्माजी का जन्म नक्षत्र क्या था ? उ. उत्तराफाल्गुनी।
१२ सुधर्माजी ने कितनी आयु में दीक्षा ग्रहण की
थी?
उ. ५० वर्ष की आयु में । प्र. ६३ सुधर्माजी को दीक्षा के कितने वर्ष बाद केवल
ज्ञान प्राप्त हुआ था ?
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________________
( १८७ )
४२ वर्ष वाद। प्र. ९४ सुधर्माजी केवली अवस्था में कितने वर्ष रहे थे?' उ. ८ वर्ष । प्र. ६५ सुधर्माजी गणधरका संपूर्णायु कितना था ? उ. १०० वर्ष । प्र. ९६ मंडितजी किस नगर के थे ?
मोरीस नगर के । प्र. ९७ मंडितजी के पिताका नाम क्या था ? उ. धनदेव । प्र. १८ मंडितजी की माता का नाम क्या था ? उ. विजया देवी। प्र. ९६ मंडितजी का गोत्र क्या था ? उ. वशिष्ठ । प्र. १०० मंडितजी का जन्म नक्षत्र क्या था ? उ. मृगशीर्ष । प्र. १०१ मंडितजी ने कितनी आयु में दीक्षा ग्रहण की
थी ? उ. ५३ वर्ष की आयु में । प्र. १०२ मंडितजी को दीक्षाके कितने वर्ष बाद केवल
ज्ञान प्राप्त हुआ था ?
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________________
उ.
१४ वर्ष वाद |
प्र. १०३ मंडितजी केवली अवस्था में कितने वर्ष रहे थे ?
१६ वर्ष ।
प्र. १०४ मंडितजी गणधर का संपूर्णायु कितना था ? . ८३ वर्ष ।
उ.
प्र. १०५ मौर्यपुत्र किस नगर के थे ?
उ. मोरीस नगर के ।
प्र. १०६ मौर्यपुत्र के पिता का नाम क्या था ? उ. मोरोदेव ।
उ
ANANT
( १८८ )
प्र. २०७ मौर्यपुत्र के माता का नाम क्या था ? उ. विजया देवी |
प्र. १०८ मौर्यपुत्र का गोत्र क्या था ?
उ.
काश्यप ।
प्र. १०९ मौर्यपुत्र का जन्म नक्षत्र क्या था ? उ. रोहिणी ।
प्र. ११० मौर्यपुत्रने कितनी आयु में दीक्षा ग्रहण की थी ? ६५ वर्ष की श्रायु में 1
उ.
उ.
प्र. १११ मौर्यपुत्र को दीक्षा के कितने वर्ष बाद केवल
ज्ञान प्राप्त हुआ था ?
१४ वर्ष बाद |
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________________
( १८8 )
प्र. ११३ मौर्यपुत्र गणधर की संपूर्णायु कितनी थी ? ६५ वर्ष ।
उ.
प्र. ११४ अंकपित जी किस नगरके निवासी थे ?
उ. कोल्लाक नगर के ।
प्र. ११५ अंकपितजी के पिता का नाम क्या था ? देवदिन्न ।
उ.
प्र. ११६ अंकपितजी की माता का नाम क्या था ? नंदा देवी |
उ.
प्र. ११७ अंकपितजी का गोत्र क्या था ? गीतम ।
उ.
प्र. ११८ अंकपितजी का जन्म नक्षत्र क्या था ?
उ.
उत्तराषाढ़ा ।
प्र. ११९ अंकपितजी ने कितनी ग्रायुमें दीक्षा ग्रहण की थी ?
उ.
४८ वर्ष की आयु में ।
प्र. १२० अंकपितजी को दोक्षा के कितने वर्ष वाद केवलज्ञान प्राप्त हुआ था ?
उ.
६ वर्ष वाद |
प्र. १२१ अंकपितजी केवली अवस्था में कितने वर्ष रहे थे ?
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________________
उ.
२१ वर्ष ।
प्र. १२२ अंकपित जी गणधर का संपूर्णा कितना था ?
७८ वर्ष ।
उ.
( १६० )
प्र. १२३ अचल भ्राता किस नगर के थे ?
उ. तुरंगीया नगर के ।
प्र. १२४ अचल भ्राता के पिता का नाम क्या था ? उ. वसुदेव ।
प्र. १२५ अचल भ्राता के माता का नाम क्या था ?
उ.
वारुणीदेवी |
प्र. १२६ अचल भ्राता का गोत्र क्या था ?
H
उ.
हरिश्राण ।
प्र. १२७ अचल भ्राता का जन्म नक्षत्र क्या था ?
.उ,
मघा ।
प्र. १२८ अचल भ्राता ने कितनी आयु में दीक्षा ग्रहण को थी ?
उ.
४६ वर्ष को
आयु में 1
प्र. १२६ अचल भ्राता को दोक्षा के कितने वर्ष बाद केवलज्ञान प्राप्त हुआ था ? १२ वर्ष बाद ।
उ.
प्र. १३० अचलभ्राता केवलो अवस्था में कितने वर्ष रहे थे ?
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________________
उ,
१४ वर्ष ।
प्र. १३१ अचलभ्राता गणधर का सपूर्णायु कितना था ?
उ.
७२ वर्ष ।
प्र. १३२ मेतार्यजी किस नगर के थे । वत्थुभूमि के ।
3.
प्र. १३३ मेतार्यजी के पिताका नाम क्या था ?
उ.
दत्त ।
प्र. १३४ मेतार्यजी की माता का नाम क्या था ?
( १६१ )
देवी ।
उ.
प्र. १३५ मेतार्यजी का गोत्र क्या था ? कोदिन्न ।
उ.
प्र. १३६ मेतार्यजी का जन्म नक्षत्र क्या था ?
उ. अश्विनी ।
प्र. १३७ मेतार्यजीने कितनो ग्रायुमें दीक्षा ग्रहण की थी ? ३६ वर्ष की आयु में ।
उ.
प्र १३८ मेतार्यजी को दीक्षा के कितने वर्ष बाद केवलज्ञान प्राप्त हुआ था ? १० वर्ष बाद |
उ.
प्र. १३९ मेतार्यजी केवली अवस्था में कितने वर्ष रहे थे ? १६ वर्ष ।
ܕ
उ.
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________________
( १६२ )
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प्र. १४० मेतार्यजी गणधर का संपूर्णायु कितना था ? . उ. ६२ वर्ष। प्र. १४१ प्रभासजी किस नगर के थे ? उ. राजगही नगर के । प्र. १४२ प्रभासजी के पिता का नाम क्या था ?
बल। प्र. १४३ प्रभासजी की माता नाम क्या था ? उ. आत्तभद्रा देवी। प्र. १४५ प्रभासजी का गोत्र क्या था ? उ. कोदिन्न। प्र. १४५ प्रभासजी का जन्म नक्षत्र क्या था? उ. पुष्य । प्र. १४६ प्रभासजीने कितनी आयुमें दीक्षा ग्रहण की थी? उ. १६ वर्ष की आयु में । प्र. १४७ प्रभासजी को दीक्षा के कितने वर्ष वाद केवल-.
ज्ञान प्राप्त हुआ था ? उ. ८ वर्ष बाद ।। प्र. १४८ प्रभासजी केवली अवस्था में कितने वर्ष . रहे थे? : . .
.. ... उ. १६ वर्ष ।
।
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________________
.
4
( १९३ ) प्र. १४६ प्रभासजी गणधर का संपूर्णायु कितना था ? उ. ४० वर्ष । प्र. १५० म. स्वामी की द्वितीय देशना में अन्य कितने
जीव दीक्षित हुए थे ? चंदनबाला दीक्षित हुई, उनके साथ बहुत सी उग्रवंशी, भोगवंशी और राजवंशी कन्याएँ. एवं आमात्य आदि की पुत्रियों ने संसार का
परित्याग कर प्रवज्या अंगीकार की थी। । प्र. १५१ म. स्वामी की द्वितीय देशना में किन्होंने.
गहस्थ धर्म अंगीकार किया था ? . . . . . उग्रकुल, भोगकुल, राजकुल आदि की नर.. नारियों ने पांच अणुव्रत, चार शिक्षाव्रत और तीन गुणवत-इस प्रकार बारह व्रत के साथ :
गृहस्थ धर्म अंगीकार किया था। . प्र. १५२ म. स्वामी ने द्वितीय देशना में किसकी:
स्थापना की थी ? उ. चतुर्विध संघ रूप धर्मतीर्थ की स्थापना की थी। प्र. १५३ महावीर स्वामी ने चतुविध संघ की स्थापना ...... क्यों की थी ? उ.. तीर्थकर नाम गोत्र को क्षय करने के लिए।
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________________
1 १६४ )
प्र. १५४. म. स्वामी ने संघकी स्थापना किस तिथि को
की थी ? वैशाख शुक्ला - ११ ।
उ.
प्र. १५५ म. स्वामी ने संघ की स्थापना कहाँ की थी ? अपापा नगरी के बाहर महासेन उद्यान में ।
उ.
प्र. १५६ चतुर्विध संघ किसे कहते है ?
3.
श्रमण- श्रमरणी, श्रमणोपासक-श्रमरणोपासिका यह चार मिलकर चतुविध संघ बनता है ।
. १५७ म. स्वामी ने गणधरों को क्या ज्ञान दिया था ?
3.
उत्पाद, व्यय और प्रोव्य का ज्ञान प्रदान किया था ?
प्र. १५८ म. स्वामी ने ११ गणधरों के कितने गच्छ
किये थे ?
उ.
नव ।
प्र. १५६ म. स्वामी ने ११ गरणधरों के नव गच्छ कैसे बनाये थे ?
उ.
प्रथम सात गणधरों की अलग - अलग
वाचनायें होने के कारण सात गच्छ बने ।
"
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________________
( १६५ )
८वें अंकपितजी और हवें अचल भ्राताजी दोनों की समान वाचना होने के कारण एक गच्छ बना । १० • वें मेतार्यजी और ११वें प्रभासजी दोनों की समान वाचना होने के कारण एक गच्छ बना । ऐसे ११ गणधरों के नव गच्छ बने ।
प्र. १६० म. स्वामी ने श्रमणों का दायित्व किसे सौंपा था ?
उ.
इन्द्रभूति गौतम श्रादि ११ गणधरों को ।
प्र. १६१ म. स्वामी ने श्रमणियों का दायित्व किसे
·
सौंपा था ।
साध्वी चन्दनबालाजी को ।
उ
प्र. १६२ म. स्वामी के धर्मसंघ में कितने प्रकार के साधक थे ?
.
उ.
साधना की दृष्टि से भगवान महावीर के धर्मसंघ में तीन प्रकार के साधक थे ?
प्र. १६३ म. स्वामी के धर्मसंघ में कौन २ से तीन प्रकार के साधक थे ?
उ.
( १ ) प्रत्येक बुद्ध - जो प्रारम्भ में ही संघोय मर्यादा से मुक्त रहकर साधना करते रहते थे ।
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________________
( १६६ )
(२) स्थविरकल्पी - जो संघीय मर्यादा एवं अनुशासन में रहकर साधना करते थे । (३) जिनकल्पी - जो विशिष्ट साधना पद्धति अपना कर संघीय मर्यादा से मुक्त होकर
तपश्चरण प्रादि करते थे ।
प्र. १६४ स्थविरकल्पी साधको में कितने पदों की व्यवस्था थी ?
उ.
प्रत्येक बुद्ध एवं जिनकल्पी स्वतंत्र विहारी होते थे इसलिए उनके लिये किसी अनुशासक की अपेक्षा ही नहीं थी । स्थविरकल्पी संघ में रहकर एक पद्धति के अनुसार, एक व्यवस्था के अनुसार जीवन यापन करते थे अतः उनके लिये सात विभिन्न पदों की व्यवस्था थी ।
"
(१) आचार्य ( आचार की विधि सिखानेवाले ) (२) उपाध्याय ( श्र ुतका अभ्यास कराने वाले) (३) स्थविर (वय दीक्षा एवं श्रुत से अधिक
,
अनुभवी )
(४) प्रवर्तक (प्रज्ञा अनुशासन की प्रवृत्ति कराने वाले)
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________________
( १६७ )
(५) गरणी (गरण की व्यवस्था का संचालन करने वाले)
(६) गरणधर (गरणका संपूर्ण उत्तरदायित्व ) निभानेवाले ।
उ.
(७) गरगावच्छेदक (संघकी संग्रह - निग्रह आदि व्यवस्थाओं के विशेषज्ञ )
प्र. १६५ म. स्वामी ने धर्म संघकी स्थापना कर किस ओर विहार किया था ? राजगृही नगर की ओर ।
उ.
प्र. १६६ म. स्वामी ने राजगृही नगर में कहाँ स्थिरता की थी ?
राजगृही नगर के बाहर गुणशील चैत्य में अपने विशाल धर्म संघ के साथ यहीं आकर विराजित हुए ।
उ
प्र. १६७ म. स्वामी के दर्शनार्थ कौन-कौन आये थे ? राजगृही नगर के महाराजा श्रेणिक, महारानी धारिणी, महारानी चेलरणा, प्रभय कुमार और विशाल राज परिवार के सदस्य प्रभु के दर्शन करने आये ।
प्र. १६८ म. स्वामी के ग्रागमन का संवाद सुनकर किसे जिज्ञासा हुई थी ?
4
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________________
( १९८ )
a
उ. महाराजा श्रोणिक का एक अत्यन्त प्रिय एवं
प्रतिभाशाली पुत्र मेघ कुमार को। प्र. १६६ मेघ कुमार को क्या जिज्ञासा हुई थी ?
प्रभु के आगमन का समाचार सुनकर उसे उत्कंठा हुई कि महावीर कौन हैं ? ऐसा क्या आकर्षण है उनमें ? क्यों यह अपार जनसमूह उनके दर्शनों के लिए उमड़ रहा है ? इस प्रकार जिज्ञासा की लहरें उसके मानस-सागर में प्रबल वेग से उठने लगी। वह इस उत्कंठा के प्रवाह को रोक नहीं सका! अपने रथ में बैठकर सीधे गुणशील चैत्य की ओर प्रस्थान
किया। प्र. १७० मेघ कुमार ने गुणशील चैत्य में क्या देखा ?
मेघ कुमार गुणशील चैत्य में पहुंचा तो वहाँ पर पहले से ही महाराजा श्रेरिणक, महारानी माता धारिणी, महारानी चेलणा, अभय कुमार तथा राजगृही के हजारों श्रेष्ठी, सामन्त और साधारण नागरिक गण को
उपस्थित देखा। . ... प्र. १७१ मेघकुमार को सबसे अधिक प्राश्चर्य की बात
क्या लगी थी? ..
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________________
उ.:
( १६६ )
मेघकुमार को सबसे अधिक आश्चर्य की बातः लगी कि भगवान् के इस दरबार ( समव -- सरण ) में सब समान आसन पर बैठे थे ।. चाहे देव या देवेन्द्र हों, सम्राट या, महारानी हों या अति साधारण प्रजाजन सर्वत्र समता
।
उ,
का साम्राज्य था, समानता का वातारण था । समानता की इस नई दृष्टि ने मेघकुमार के मन को प्रभावित कर दिया, महावीर की दिव्य चेतना के प्रति आकृष्ट कर दिया । उसे एक अनुभूति हुई; यहाँ कुछ नवीन है, अव तक जो नहीं सुना, नहीं देखा वह यहाँ उपलब्ध है । . मेघकुमार विनय पूर्वक श्रभिवंदन करके प्रभु
.
के समक्ष बैठ गया और ध्यानपूर्वक तन्मयता के साथ उनकी अनुपम वाणी का रसपान करने
लगा ।
प्र १७२ म स्वामी की वाणी को श्रवण कर मेघा कुमार को क्या हुआ था ?
प्रभु की अनुपम वारणी में मानव जीवन की महत्ता, उपयोगिता और उसे सफल बनाने की कला का सरल हृदयग्राही विश्लेपरण:
•
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________________
( १६८ )
न
महाराजा श्रेणिक का एक अत्यन्त प्रिय एवं
प्रतिभाशाली पुत्र मेघ कुमार को। प्र. १६६ मेघ कुमार को क्या जिज्ञासा हुई थी ?
प्रभु के आगमन का समाचार सुनकर उसे उत्कंठा हुई कि महावीर कौन हैं ? ऐसा क्या आकर्षण है उनमें ? क्यों यह अपार जनसमूह उनके दर्शनों के लिए उमड़ रहा है ? इस प्रकार जिज्ञासा की लहरें उसके मानस-सागर में प्रवल वेग से उठने लगी। वह इस उत्कंठा के प्रवाह को रोक नहीं सका! अपने रथ में बैठकर सीधे गुरगशील चैत्य की ओर प्रस्थान
किया। प्र. १७० मेघ कुमार ने गुणशील चैत्य में क्या देखा?
मेघ कुमार गुणशील चैत्य में पहुंचा तो वहाँ पर पहले से ही महाराजा श्रेणिक, महारानी माता धारिणी. महारानी चेलणा, अभय कुमार तथा राजगृही के हजारों श्रेष्ठी, सामन्त और साधारण नागरिक गण को
उपस्थित देखा। . ..... प्र. १७१ मेघकुमार को सबसे अधिक प्राश्चर्य की बात
क्या लगी थी?
उ.
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________________
उ.
( १६६ )
मेघकुमार को सबसे अधिक आश्चर्य की बात: लगी कि भगवान् के इस दरबार ( समव-सरण ) में सब समान आसन पर बैठे थे ।. चाहे देव या देवेन्द्र हों, सम्राट या, महारानी हों या प्रति साधारण प्रजाजन । सर्वत्र समता
→
का साम्राज्य था, समानता का वातारण था
समानता की इस नई दृष्टि ने मेघकुमार के मन को प्रभावित कर दिया, महावीर की दिव्य चेतना के प्रति आकृष्ट कर दिया । उसे एक अनुभूति हुई; यहां कुछ नवीन है, अब तक जो नहीं सुना, नहीं देखा वह यहाँ उपलब्ध है | मेघकुमार विनय पूर्वक अभिनंदन करके प्रभु के
समक्ष बैठ गया और ध्यानपूर्वक तन्मयता के साथ उनकी अनुपम वारणी का रसपान करने
लगा ।
प्र १७२ म स्वामी की वाणी को श्रवण कर मेघ कुमार को क्या हुआ था ?
उ,
प्रभु की अनुपम वाणी में मानव जीवन की महत्ता, उपयोगिता और उसे सफल बनाने की कला का सरल हृदयग्राही विश्लेषण
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। २०० )
8.
पाकर मेघकुमार की अन्तश्चेतना जागृत हो गई। भोगासक्ति से विरक्ति की ओर मुड़ गया उसका अन्तःकरण। देशना का क्रम समाप्त होते ही वह प्रभु के चरणों में
प्राकर भाव-विभोर मुद्रा में विनत हो गया। प्र. १७३ म. स्वामी के चरणों में आकर मेघकुमार
ने क्या कहा था ? "प्रभो ? आपने जीवन का चरम सत्य उद्घाटित कर दिया ! जन्म-जन्म से मेरी सोई आत्मा नाग उठी है, मैं आपके चरणों में दीक्षित होकर साधना के इस महापथ पर बढ़ना चाहता हूँ और पाना चाहता हूँ उस अक्षय अनंत आनंद को, जिस आनन्द को जिस आत्म वैभव को, काल का ऋ र प्रवाह
कभी लुप्त नहीं कर सकता।" ‘प्रे. १७४ म. स्वामी ने मेघकुमार से क्या कहा था ?
मेघकुमार की अंतर् जागृति में जो वेग था, उसकी भावना में जो तीव्रता थी, प्रभु महावीर ने उसका स्वागत किया-"देवानुप्रिय ! जिस मार्गका अनुसरण करने से तुम्हारी
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________________
प्र. १७५ म. स्वामी की स्वीकृति पाकर मेघकुमार ने क्या किया था ?
उ.
( २०१ )
आत्मा को सुखकी प्राप्ति हो, उस कार्य में विलम्व मत करो ! "
उ.
प्रभु की स्वीकृति पाकर मेघकुमार अपने माता-पिता के पास पहुँचा । प्रभुकी वाणी की दिव्यता, आत्म जागृति की प्रेरणा और संसार त्याग कर श्रमरण वनने की भावनाएक ही सांस में उसने व्यक्त कर डाली । माता-पिता का स्नेह, वात्सल्य और मोहममता मेघकुमार को रोक नहीं सके । वैभव का प्रलोभन और यौवन - सुख की लालसा तो उसे धूल से भी प्रसार लगने लगी ।
राज
प्र. १७६ मेघकुमार की बात सुनकर माता-पिता को
क्या हुआ था ?
राजकुमार मेघकी संसार त्याग कर श्रमण बनने की बातें सुनते ही महाराज श्रेणिक दिग्मूढ़ से रह गये. महामाता धारिणी रानी मर्माहत - सी हो गई। दोनों की आँखों में श्रश्र - प्रवाह उमड़ पड़ा। श्रेणिक और
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( २०२)
धारिणी के अनेक तर्क-वितर्क से जब मेघकुमार की भाव-चेतना रुद्ध नहीं हो सकी तो हारकर धारिणी रानी ने एक आखिरी प्रस्ताव रखा। 'बेटा मेघ! तुम मेरे अत्यन्त प्रिय पुत्र हो, आंखों के तारे और कलेजे की कोर, हो, मेरी सब बाते ठुकराते जा रहे हो, तो एक आखिरी बात तो मान लो, कुछ तो मेरा
मन रखो।' प्र. १७५ धारिणी रानी के प्रस्ताव पर मेघकुमार ने
क्या कहा था ? ____उ. माँ ! क्या चाहती हो तुम ? मैं श्रमण
बनूंगा, अपने निश्चय को कभी नहीं बदल सकता, बाकी जैसा तुम चाहोगी वैसा
करूंगा।" प्र. १७८ महामाता धारिणो ने मेघ कुमार के सामने
क्या प्रस्ताव रखा था ? धारिणी रानी ने भरे दिल से मेघकुमार से कहा-"खैर ! मैं तुम्हें राजसिंहासन पर बैठा देखना चाहती हूँ, भले ही एक दिन के लिए। राजरानी का गौरव मुझे प्राप्त है, पर मैं तुम
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( २०३ )
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जैसे सुयोग्य पुत्र को पाकर 'राजमाता' का गौरव पूर्ण सम्बोधन भी सुनना चाहती हूँ ।" प्र. १७६ धारिणी रानी के प्रस्ताव को सुनकर मेघकुमार ने क्या उत्तर दिया था ?
"माताजी ! ठीक है ! मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगा । सिर्फ एक दिन के लिए. मगध के राजसिंहासन पर बैठना मुझे स्वीकार है । " मेघकुमार ने विनम्रता से कहा, पर उसके हर शब्द में दृढ़ता और विरक्ति अभिव्यक्त थी ।
उ.
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प्र. १८० महाराज श्ररिक ने महारानी के प्रस्ताव पर क्या किया था ?
उ.
रानो के प्रस्तावानुसार महाराज श्रोणिक ने मेघकुमार का राज्याभिषेक किया, एक दिन के लिए पूरे राज्य में मेघ कुमार के शासन को उद्घोषणा कर दी गई। महाराजा श्र ेणिक स्वयं मेघकुमार के समक्ष उपस्थित होकर बोले - "मेघकुमार ! राजकीय घोषणा के अनुसार मैं श्रेणिक, तुम्हारा मगधपति के रूप में अभिवादन करता हूँ, प्रदेश दो. मैं तुम्हारे लिए क्या करू ?"
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( २०४ ) प्र. १८१ म. स्वामी की देशना से राजगृही में
किस-किसको बोध प्राप्त हुआ था ? ___ महाराज श्रेणिक, अभयकुमार, मेघकुमार,
नन्दीषेण कुमार। प्र. १८२ मेघकुमार ने मगध के राजसिंहासन पर बैठ
कर क्या आदेश दिया था ? मगध के राजसिंहासन पर बैठकर भी मेघ कुमार आत्मसिंहासन से दूर नहीं हटा ! राज्यसत्ता पाकर भी वह आत्मसत्ता से विस्मृत नहीं हुआ। श्रोणिक के प्रश्न के उत्तर में उसने बड़ी दृढ़ता और निस्पृहत्ता के साथ कहा-"पिताजी ! आप मेरे लिए कुछ करना ही चाहते है तो मेरे दीक्षामहोत्सव की तैयारी कीजिये। मैं कल प्रातः
ही दीक्षित होना चाहता हूँ।" प्र. १८३ मेघकुमार ने मगध पर एक दिन का राज्य
करने के बाद क्या किया था ? एक दिन का राज्य स्वीकार कर मेघकुमार दूसरे दिन संसार के समस्त भोग व ऐश्वर्य का त्याग कर वह भगवान महावीर के वरणों में पहुँचा और अनगार बन गया।
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( २०५ )
प्र. १८४ मेधकुमार को दीक्षा की प्रथम रात्रि में कैसा
अनुभव हुअा था ? प्रभु महावीर के पास जितने श्रमण थे वे सभी अपनी-अपनी दीक्षा-क्रम के अनुसार अपनी २ शय्या लगाने लगे। मेघमुनि सबसे लघु थे, उनका आखिरी कम था, प्रतः सोने का स्थान भी उन्हें सबसे अंत में द्वार के पास में हो मिला। उसी द्वार से रात्रिमें लघुशंका आदि निवारणार्थ तथा व्यान आदि के लिए मुनियोंका बाहर आना-जाना रहा। आतेजाते श्रमणों के पैरों की आहट से मेघ की नींद उचट गई, कभी-कभी अधकार में कुछ दिखाई न पड़ने के कारण मेघ के हाथ-पैरों को श्रमणों के पांवों का आघात भी लग जाता। मेघ को इस निद्रा-विक्षेप और पदाघात से बड़ी खिन्नता अनुभव हुई। श्राज दीक्षा की प्रथम रात्रि में ही यह अपशुकन ! आज ही सिर मुड़ाया और आज ही ओले पढ़े। मेघ मुनि का मन व्यथा से भर गया। आँखों की नींद उड़ गई, वह जागता रहा, पर अन्तश्चेतना मुच्छित. होने लगी। उनकी
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( २०६ )
चेतना पूर्व जीवन की स्मृतियों में खो गई,
आत्म चेतना विस्मृति में डूब गई ।
1
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प्र. १८५ मेघ मुनि रात भर क्या सोच रहा था ? उ. "मैं जब राजकुमार था, तो सब लोग मेरा यादर करते थे, आज यहां भयंकर अनादर हो रहा है । मैं मखमल की कोमल शैय्या पर सोता था - आज एक ही वस्त्र बिछाकर कठोर भूमि पर सोना पड़ा है। तब मैं कितनी शांति से सोता था, मेरा शयनकक्ष कितना मनोहर, विशाल, शांत और सुखद था । आज रात में कितनी अशान्ति है ? सोने का यह स्थान कितना छोटा, सिर्फ ढाई गज भर । कितना भीड़ भरा, संकुल । और आखिर में, सबके पैरों की ठोकरें खानी पड़ रही है । यह श्रमरण - जीवन तो बड़ा ही रूखा। नीरस, कष्टमय और उपेक्षित सा जीवन है । मैं जीवन भर कैसे इन कठोर नियमों को निभा सकूंगा - कैसे हमेंशा रातभर जागता रहूँगा और दिनभर भी ! बापरे ! मुझ से नहीं हो सकेगा, यह निरंतर जागरण !
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( २०७ )
जब सुख से सोने को भी नहीं मिला तो मैं साघु जीवन अंगीकार कर क्या खाक साधना श्रौर अध्ययन करूँगा ?" पूर्व संस्कारों की स्मृति ने मेघको आत्म विस्मृति के गर्त में डूवो दिया । उसने निश्चय कर लिया - "चाहे कुछ भी हो, मैं प्रातःकाल प्रभु महावीर से अनुमति लेकर पुनः अपने घर लौट जाऊँगा ।', प्र. १८६ मेघमुनि ने प्रातःकाल उठकर क्या किया था ? मानसिक व्यथा और विकल्पों के भंवर में डूबते-उतराते जैसे-तैसे रात्रि व्यतीत की । सूर्योदय के समय वह भगवान महावीर के चरणों में उपस्थित हुए ।
उ.
प्र. १८७ म. स्वामीने मेघमुनि को देखकर क्या कहा था? "मेघ ! कल तुम्हारा मुख प्रसन्नता से दीप्त था, आज चिन्ता से म्लान हो रहा है । कल तुम्हारी आंखों में श्रात्म जागृति का तेज था, आज विस्मृति की निद्रा व मुर्च्छा छाई हुई है । तुम्हारी ऊर्ध्वमुखी चेतना का प्रवाह आज अधोमुखी हो रहा है- तुम विकल्पों के जाल में फँस गये हो । कल तुमने उत्साह के साथ
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( २०८ )
विजय के लिए चरण बढ़ाया था, आज क्षणिक कष्ट से पीड़ित होकर वापस लौट जाना चाहते हो ! क्या यह ठीक है ?" प्र. १८८ म. स्वामी को मेघ मुनि ने क्या कहा ? "प्रभो ! श्राप सत्य कह रहे है ? रात्रि में सचमुच ही मेरी मनोदशा बदल गई । श्रमरण-जीवन को कष्टसाध्य चर्या मेरे लिये दुःसह्य: है हे प्रभु ! "
उ.
प्र. १८९ म. स्वामी ने मेघ मुनिको जागृत करने के लिये कैसे प्रतिबोध दिया था ?
उ.
"मेघ ! तुम भूल रहे हो । एक तुच्छ और क्षणिक वेदना ने तुम्हारे चैतन्य दीप को श्रावृत कर दिया। तुम अंधकार में भटक गये ?. स्मरण करो अपने अतीत को । प्रज्ञान - दशा में, पशु-योनि में सहिष्णता और तितिक्षाका जो महान संकल्प तुमने किया था, उससे तुम मानव बने और आज मानव बनकर तुम क्लोवता के शिकार हो रहे हो ?"
·
प्र. १८० मेघमुनि को अतीतकी स्मृति के लिए क्या जिज्ञासा हुई थी ?
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उ.
( २०६ )
भंते ! मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ । कृपया इस रहस्य को स्पष्ट समझायें । " मेघ के मन में जिज्ञासा के अंकूर फूटने लगे ।
प्र. १८१ म. स्वामीने मेघ मुनिको पूर्वभव की क्या बात: कही थी ?
उ.
"मेघ ! मैं तुम्हें सुदूर अतीत में ले चलता हूं। अतीत की स्मृति तुम्हारा सुषुप्ति को तोड़ सकेगी, तुम्हारी चेतना का दीप पुनः प्रज्वलित कर सकेगी ।" तीसरे जन्म में तुम एक सुन्दर विशालकाय हाथी के रूप में वैताढ्य पर्वतकी उपत्यकात्रों में स्वच्छंता से विहार करते थे । एक बार ग्रीष्म ऋतु में: तेज हवा के वेग से कुछ वन में ग्राग लगी । ही क्षणों में अग्नि सारे वन प्रदेश में फैल गई । अरण्य के पशु भयाकुल हो जान: बचाने के लिए दौड़े। तुम बूढ़े थे, पीछे: रह गये । भयंकर गर्मी के कारण तुम्हें: प्यास सताने लगी । पानी की खोज में तुमः दूर जा निकले, एक सरोवर दिखाई दिया । तुम पानी पीने के लिए सरोवर पर गये, पानी
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( २१० )
कम था; तुम दलदल में फँस गये, निकल नही पाये । उस समय एक युवा हाथी उधर आया । पूर्व कभी तुमने उसे दंत - प्रहारों से घायल
करके भगाया था । तुम्हें देखते ही उसके मन में क्रोध और द्वेष का उफान उठा। उसने अपने तीक्ष्ण दांतों से स्थान २ पर प्रहार कर घाव कर दिये । वह युवा हाथी अपना -बदला लेकर चला गया । तुम सात दिन तक उसी दलदल में फँसे पीड़ा से कराहते रहे। आखिर वहीं तुम्हारी मृत्यु हो गई । वहाँ से मरकर विंध्य पर्वतकी तलहटी में पुनः - तुम हाथी बने ।
मेरु से विशाल शरीर और प्रखर तेजस्विता से तुम हस्तिमंडल के नायक बने । वनचरों ने तुम्हारा नाम रखा 'मेरुप्रभ" । एक वार उस वन प्रांतर में दावानल लग गया। तुम अपने हस्ति मंडल के साथ दूर जंगल में भाग गये । इस दावानल के आकस्मिकं आक्रमण से तुम्हें 'जाति - स्मृति हो गई । वैताढ्य में लगे दावानल का रोमांचक दृश्य साकार हो गया । कुछ
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( २११)
समय वाद दावानल शान्त होते ही अतीतकी स्मृति से तुमने लाभ उठाया। भविष्य को निरापद बनाने के लिए हस्ति परिवार के साथ दूर-दूर तक के प्रदेश को वृक्ष व वनस्पति रहित कर समतल कर दिया।
कुछ समय बाद वन में फिर आग भड़क उठी । वन के छोटे-बड़े असंख्य प्राणी भाग-भागकर हस्तिमंडल में आश्रय लेने लगे। तुमने भी उदारतापूर्वक सबको आश्रय दिया । सिंह
और हिरन, लोमड़ी और खरगोश, साँप और नेवले, जन्मजात शत्रु भी अपनी जान लेकर यहाँ आकर एक साथ बैठ गये। मंडल खचाखच भर गया, पैर रखने को भी खाली स्थान नहीं रहा। उस समय शरीर खुजलाने के लिये तुमने एक पैर उठाया। वापस पैर नीचे रखने लगे तो तुमने देखा-उस खाली स्थान में एक खरगोश पाकर बैठ गया है। तुम्हारे मन में अनुकम्पा की धारा वही, करुणा की लहर उठी, अगर मैंने पैर रख दिया. तो इस नन्ही-सी जान का कचूमर
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( २१२ )
निकल जायेगा । अनुकम्पा से द्रवित हो तुमने अपना एक पैर ऊपर ही रोक कर रखा और तीन पैर पर ही खड़े रहे ।
दो दिन-रात बीत गये। तीसरे दिन दावानल शांत हुआ। सब प्राणी हस्ति मंडल से निकल कर जाने लगे । खरगोश भी वहाँ से निकला, स्थान खाली होने पर तुमने पैर पृथ्वी पर रखना चाहा। जैसे ही पैर नीचे किया, तुम अपना सन्तुलन नहीं संम्हाल सके । तुम तत्क्षरण धराशायी हो गये । उस अनुकम्पा जनित प्रसन्नतानुभूति के कारण गिरने के साथ प्रारण त्याग कर तुम यहाँ मगधपति श्रेणिक के पुत्र एवं धारिणी देवी के आत्मज बने हो ।
प्र. १६२ म. स्वामी द्वारा पूर्व भव की घटना सुनते हुए मेघ को क्या हुआ था ?
उ.
प्रभु महावीर की वाणी सुनते ही मेघ के सामने पूर्व भव की घटनाएँ साकार हो गईं। उसके स्मृति पट पर घटनाएँ छविमान हो उठीं। वह अपने चितन में गहरा लोन हो गया ।
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( २१३ ) प्र. १६३ म. स्वामी ने मेघ मुनि को उद्बोधित करते
क्या कहा था ? मेघ ! तिथंच योनि में जब तुम्हें न सम्यग् दर्शन था. न ज्ञान-चेतना इतनी विकसित थी और न गुरु का सानिध्य ही था, तव तुमने एक नन्हें से खरगोस के प्रारण के लिए इतना कष्ट सहन किया. तीव्र पीड़ा को पीड़ा न मानकर अहिंसा, करुणा एवं समभाव की निर्मल धारा में वह गये थे और आज तो तुम मनुष्य हो, सम्यग दर्शन पाप्त किया है, ज्ञान-चेतना का द्वार उन्मुक्त है । सद्धर्म की ज्योति-शिखा तुम्हारे सामने प्रज्वलित है, बल वीर्य, पराक्रम और विवेक का सुयोग मिला है और महान् उदात्त संकल्प के साथ कष्टों से जुझने को निकल पड़े हो, तो एक रात के क्षुद्र कष्ट ने ही तुम्हें कैसे विचलित कर दिया?
ज्ञान का सूर्य उदित होते हुए भी अज्ञान और अधीरता भरी अंधियारी ने कैसे तुम्हें दिग्मूढ़ बना दिया ? तुम थोड़े से कष्ट से कैसे विचलित हो गये ? श्रमणों की थोड़ी सी उपेक्षा तुम्हारे
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( २१४ ) जैसे वीरों के लिए शिरःशूल बन गई ? मेघ !
प्रबुद्ध हो जानो।" प्र. १६४ म. स्वामी से मेघ मुनिने क्या कहा ?
भगवान महावीर द्वारा पूर्व भव की घटना
और उद्बोधन सुनकर मेघ की स्मृति पर से विस्मृति का पर्दा उठ गया । जातिस्मरण हुआ
और उसने देखा-अपने अतीत जीवन को। वह स्तब्ध रह गया, रोमांचित हो गया। प्रस्तर-प्रतिमा की भाँति वह शांत मौन, निचेष्ट खड़ा रहा। दो क्षण बाद जैसे ही
चेतना लौटी उसका मन प्रशांत हो गया, व्याकुलता का कोहरा हट गया और सुज्ञान का प्रकाश जगमगा उठा। वह हृदय की असीम श्रद्धा के साथ, अविचल संकल्प के साथ प्रभु के चरणों में विनत हो गया- "प्रभो! मेरी स्मृति जागृत हो गई, मेरी चेतना के आवरण दूर हो गये, मैं अपनी भूल और प्रमाद पर, अपनी विस्मृति पर पश्चात्ताप करता हूं और भविष्य के लिए अपने शरीर को ( आँखों को छोड़कर ) सर्वात्मना आपको
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( २१५ )
समर्पित करता हूं। समस्त श्रमणों की सेवा के लिए, मेरा तन, मन और जीवन अर्पित है। मैं आपके द्वारा निर्दिष्ट पथ पर बढ़ता रहूँगा,.
अविचल ! अकम्पित !" प्र. १६५ म. स्वामी के पास राजगही में और किसने
दीक्षा ली थी?
नंदीषेणकुमार ने। प्र. १६६ नंदीषेणकुमार कौन था ? उ. मगध के अधिपति महाराजा श्रेणिक का पुत्र ।' प्र. १६७ नंदीषेण किस कला में पारंगत था ? उ. वह गज-कला में पारंगत था । सेचनक हाथी ... को जगल से पकड़ कर श्रेणिक की हस्ति
शाला में लाना नंदीषेण की गजकला का
अद्भुत चमत्कार था। प्र. १९८ नंदीषेण कुमार को वैराग्य कैसे पाया था? उ. प्रभु महावीर का राजगृही नगर में पधारना
और मेघकुमार द्वारा प्रव्रज्या ग्रहण करना। एक दिव्य प्रेरणा नंदोपेण कुमार के मन-.. मंदिर में उमड़ी और वैराग्य प्राप्त हुआ।
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( २१६ ) अ. १६६ नंदीषेण कुमार को त्याग मार्ग पर जाने से
किसने रोका? महाराजा श्रेणिक और नंदीषेण के ईष्ट
मित्रों ने। 'प्र. २०० नंदीषेण कुमार को उनके मित्रों ने कैसे
समझाया था ? "नंदीषेण ! तुम अभी रुको, मनको साधो । मेघ' का अनुसरण तुम कैसे करोगे ? उसकी वृत्तियाँ प्रशांत थीं और तुम्हारी वृत्तियों में अभी भोग-विलास का ज्वार है, कुछ दिन
और रुको।" 'प्र. २०१ नंदीषेण ने उसके मित्रों से क्या कहा था? .
"मैं तप और ध्यान के द्वारा स्वभाव और संस्कार को बदल डालूगा। "इसी विश्वास पर उसने सबकी सुनी-अनसुनी कर दी और भगवान महावीर के पास जाकर दीक्षित
हो गया। 'प्र. २०२ नंदीषेण मुनि ने दीक्षा लेकर क्या किया था ?
नंदीषेण ने रागानुबंधित वृत्तियों को क्षीण करने के लिये कठोर तपश्चरण प्रारम्भ कर
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( २१७ )
4.
दिया। वे चिल-चिलाती धूप में बैठकर आतापना लेते, कड़कड़ाती सर्दी में वस्त्र उतार कर खड़े हो जाते। विकट तप और अनेक परिसहों को सहन करते हुए वे साधना के उत्कृष्ट पथ पर निरंतर बढ़ते चले गये । तपःसाधना के दिव्य प्रभाव से अनेक प्रकार को
चामत्कारिक शक्तियाँ भी उन्हें प्राप्त हो गई थीं। प्रे. २०३ नंदोषेण मुनि तपश्चर्या के पारणे पर किसके
यहाँ भिक्षार्थ गये थे? नंदीषण मुनि का छठु तपका पारणा था। भिक्षार्थ पर्यटन करते हुए नगर की एक प्रमुख गणिका के प्रासाद में पहुँच गये। द्वार में
प्रविष्ट होते ही मुनिने 'धर्मलाभ' कहा । प्र. २०४ नंदीषण मुनि को देखकर गरिएका ने क्या
कहा था ? नंदीषण मुनिको देखकर गणिका उपहास के स्वर में वोली-महाराज ! "हमें तो धर्मलाभ नहीं, अर्थलाभ चाहिए। धर्मलाभ करना हो
तो किसी बनिये के घर में जाइये। गरिएका . के घर में तो पहले अर्थलाभ दिया जाता है।"
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( २१८ )
प्र. २०५ नंदीषेण मुनिने गरिका के उपहास को सुनकर क्या किया था ?
उ.
गरिका के उपहास ने मुनि के सुप्त अहं को जगा दिया । यह तुच्छ गरिणका मुझे दीन-हीन भिखमंगा समझ रही है, इसे पता नहीं, मैं महाराज श्रोणिक का पुत्र हैं । महान ऋद्धि सम्पन्न तपस्वी हूँ ! मुनि ग्रावेश में आ गये । उन्होंने अपने तपोबल का चमत्कार दिखाने हेतु एक हाथ आकाश की ओर उठाया । बस देखते ही देखते प्रांगन में रत्नों का ढेर लग गया । "वस मिल गया अर्थलाभ ?" मुनि ने कहा ।
प्र. २०६ नंदीषेण मुनि के चमत्कार को देखकर गरिएका ने क्या किया था ?
3.
नंदीषेण मुनि बिना भिक्षा लिये लौटने लगे, गरिएका हाव-भाव करती हुई रास्ता रोककर खड़ी हो गई - "महाराज ! यह रत्नोंका ढेर लगाकर व आप कहाँ जा रहे हैं ? धर्मलाभ से ग्रर्थलाभ किया तो अव अर्थलाभ से प्राप्त भोगलाभ को भी प्राप्त कीजिये। मैं आपकी
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( २१६ )
चरणसेविका सर्वात्मना समर्पित हूं। मेरा सुकुमार सौंदर्य आपके मधुर तन स्पर्श को पाकर कृतकृत्य हो जायेगा। प्राणेश्वर ! मेरे प्रणयाकुल हृदय को लात मार कर अब आप नहीं जा सकते ।" कामासक्त गरिएका ने अपनी भुजाएँ फैलाकर मुनिका मार्ग रोक दिया। ऐसा लग रहा था~मानों गरिएका की मांसल भुजाओंसे वासना की ज्वालाएँ निकलकर वैराग्य के हिमाद्रि को पिघलाने का प्रयत्न कर
रही हैं। प्र. २०७. नंदीषेण मुनि पर गणिका के ऐसे कथन का
क्या प्रभाव पड़ा? . एक दिन जो वासना का ज्वार, मोह का सस्कार कठोर तपश्चर्या से मंद हो गया था, प्राग जो गख से ढक गई थी, विरक्ति की शीतल लहरों से वासना का जो साँप ठिठुर कर मुच्छित हो गया था. वह आज पुनः वासना की गर्मी पाकर फुफकारने लग गया व सुप्त वासनायें पुनः जाग उठी। मुनि नंदीपेण गरिएका के स्नेहपाश में बंध गये। धर्मलाभ
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( २२० )
कहकर आनेवाला तपस्वी 'अर्थलाभ' में अटका 'अर्थलाभ' से 'भोगलाभ' के दलदल में फंसा और अंत में अलाभ की खाई में गिर गया और
सब कुछ हार गया। प्र. २०८ नंदीषण मुनिने गरिएका के मोह जाल में
फँसने के बाद भी क्या संकल्प किया था? उ. मैं प्रतिदिन कम से कम दस मनुष्योंको प्रतिबोध
देकर ही मुह में अन्न-जल ग्रहण करूंगा। प्र. २०६ नंदीषण मुनि अपने संकल्प पर कितने
दृढ थे! संकल्प का क्रम सतत चलता रहा। एक दिन मध्यान्ह तक यह क्रम पूरा नहीं हो सका । नौ व्यक्ति बोध पा चुके थे पर दसवाँ व्यक्ति था एक स्वर्णकार । वह तार से तार खींचने की
आदत के अनुसार नंदीषण को भी तर्कवितर्क के जाल में इस प्रकार उलझाता रहा कि न नंदीषेण उस जाल को तोड़ सके और न स्वर्णकार ने उनका उपदेश स्वीकार किया। धूप चढ़ चुकी थी। रसोई ठंडी हो रही थी। गरिएका ने बार-बार नंदीषण को बुलावा भेजा, पर नदीषेण भी पाते तो कैसे ? प्रतिज्ञा
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( २२१ )
पूरी नहीं हो पा रही थी। इस तरह नदीषण
अपने संकल्प पर दृढ थे । प्र. २१० नंदीषण के भोजन के विलम्ब पर गणिकाने
क्या किया था। उ. नंदीषेण के भोजन के विलम्ब से मुझलाकर
गणिका स्वयं उन्हें बुलाने आई-"प्राणेश्वर ! चलिये रसोई ठडी हो रही है।" नंदीषण ने कहा-"क्या करूं, अभी तक दसवां मनुष्य समझ ही नहीं पा रहा है।" गणिका कटाक्ष पूर्वक हँसकर वोली-"तो क्या हुआ मेरे देवता ! दसवें स्वय को ही
समझ लो और चलो-भोजन ठडा हो रहा है।" प्र. २११ नंदीण ने गरिएका के कटाक्षको सुनकर क्या
किया था ? नदोपेण के अन्तश्चक्षु खुल गये, तंद्रा टूट गई, अधकार में एक चमक-सी दिखाई दी-ठीक कहती हो तुम-दसवां स्वयं को ही समझ लू ? कैसी विडम्बना है यह मेरी कि दस-दस मनुष्यों को प्रतिवोध देने वाला स्वयं शव तक ऊंघ हो रहा हं ? दूसरों को त्याग के पथ पर
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( २२२ )
प्रेरित करने वाला स्वयं भोग के दल-दल फँसा पड़ा हूँ । बस, अब मैं जाग गया, मेरी स्मृति प्रबुद्ध हो गई, मेरे वासना के संस्कार समाप्त हो गये - लो मैं जा रहा हूं, उसी पथ पर, जिस पथ से भटक कर यहाँ आ गया था । नंदीषेरण प्रबुद्ध होकर चल पड़े और सीधे भगवान महावोर के पास पहुंचे ।
प्रे. २१२ नदीषेण ने भगवान महावीर के पास जाकर क्या किया था ?
उ.
माद और मोह गई थी । प्रभो !
"प्रभो ! मैं भटक गया था, के नशे में मेरो चेतना लुप्त हो पुनः मुझे अपना शरण में लीजिये । खोई हुई अमूल्य चारित्रनिधि पुनः प्राप्त करने का मार्ग
बताइये । "
प्र. २१३ म. स्वामीने नंदीषेरण से क्या कहा था ? प्रभु ने नंदीषेरण को धैर्य वंधाया - नंदीषेरण ! तुम पुनः जाग गये, यह अच्छा हुआ भोग में भी तुम्हारी अतश्चेतना योग की ओर केन्द्रित रही - पतन में भी पवित्रता के संस्कार लुप्त नहीं हुए थे अतः तुम पुनः अपना कल्याण कर
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उ.
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( २२३ )
सकते हो। प्रमाद का क्षरण ही जीवन में दुर्घटना का क्षरण होता है, तुम दुर्घटनाग्रस्त होकर भी वच गये, अब पुनः उस प्रमाद के दलदल में मत फँसना। दुवारा उस भूल का आचरण मत करना।" प्रभू के सानिध्य में नंदीषण ने प्रायश्चित्त लिया और पुनः कठोर तपश्चरण रूपी अग्नि
में आत्म-स्वर्ण को तपाने में जुट गये। प्र. २१४ म. स्वामी के पास राजगृही में किसने दीक्षा
ली थी ? उ. महाराज श्रोणिक के पुत्र मेघकुमार और
नंदीषेण कुमार ने। . प्र. २१५ म. स्वामी ने १३ वा चातुर्मास कहाँ किया
था ? उ. . राजगृही नगर में । प्र. २१६ म. स्वामी ने १३वें चातुर्मास के वाद किस
ओर विहार किया था ? उ. ब्राह्मणकुन्ड की ओर । . २१७ म. स्वामी ने ब्राह्मणकुण्ड में कहाँ स्थिरता
की थी? .
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( २२४ ) उ. क्षत्रियकुण्ड और ब्राह्मणकुण्ड के बीच बहुसाल
उद्यान में । प्र. २१८ म. स्वामी ने वहाँ किस-किसको दीक्षा प्रदान
की थी? अपनी ससारी प्रथम माता देवानंदा और पिता: ऋषभदत्त को। उनको ससारी पुत्री प्रियदर्शनाने एक हजार स्त्रियों के साथ और जामाता जमालि ने ५०.
पुरुषों के साथ दीक्षा ग्रहण की थी। प्र. २१६ म. स्वामी ने १४वा चातुर्मास कहाँ किया था ? उ. वैशाली नगर में। प्र. २२० म. स्वामाने चातुर्मास के बाद किस ओर विहार
किया था ? उ. ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए कौशंबी नगर
पधारे। प्र. ५२१ म. स्वामी कौशबी नगर में कहाँ विराज
मान थ? उ. कौशंबो नगर के बाहर चन्द्रावतरण चैत्य में
विराजे थे। प्र. २२२ म. स्वामी के पास वंदनार्थ और धर्मदेशना
श्रवणार्थ कौन-कौन आये थे?
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उ.
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उ.
( २२५ )
कौशंबी का राजा उदयन, राजमाता, मृगावती,. राज परिवार के सदस्यगरण, जयन्ती श्राविका आदि प्रभु के वंदनार्थ आये | हजारों नागरिकों की विशाल धर्मसभा को संबोधित कर भगवान: ने उपदेश दिया । प्रभु की धर्म देशना सुनकर :
धर्मसभा
अनेक व्यक्ति प्रतिर्वाधित हुए । विसर्जित हुई । राजपरिवार भी लौटा ।
प्र. २२३ म स्वामी के पास शंका का समाधान करनें
कौन रुकी थी ? जयंति श्राविका ।
प्र. २२४ जयति श्राविका कौन थी ?
उ.
कौशंबी नरेश सहस्त्रानीक की पुत्री, कौशंवी पति शतानीक की बहन, कौशंवी के राजा. उदयन की बुआ लगती थी । वह ग्रर्हत् धर्म: के रहस्यों की जानकार और अनन्य उपासिका थी । कौशंवी में आने-जाने वाले श्रमरण--- श्रमणियों को ग्रावास देनेवाली प्रथम स्थान दात्री के नाम से प्रसिद्ध थी ।
प्र. २२५. म. स्वामी से जयंति श्राविका ने किस प्रकार से प्रश्न पूछे थे ?
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( २२६ ) उ. प्रभु को वंदन-नमस्कार कर, अनुमति लेकर
विनय पूर्वक प्रश्न पूछे थे । प्र. २२६ म. स्वामी ने १५वाँ चातुर्मास कहाँ किया था ? उ. वाणिज्यनाम में। प्र. २२७ म. स्वामी के पास चातुर्मास में किसने श्रावक
व्रत अंगीकार किया था ?
आनन्द गाथापति ने। प्रे. २२८ म. स्वामी के पास आनन्द गाथापति ने कौन
कौन धावक व्रत अंगीकार किये थे? . आनन्दने समस्त मर्यादा महावीर के समक्षप्रकट की और उसके उपरांत वस्तु-सामग्रीसेवन का त्यागकर पांच अणुव्रत, तीन गुणवत और चार शिक्षावत रूप श्रावक के बारह व्रत
ग्रहण किये। प्र. २२६ प्रानन्द गाथापति की पत्नी का नाम क्या था ? उ. आनंदकी धर्मपत्नी का नाम शिवानन्दा था।
वह अत्यन्त रूपवती और पतिभक्तिपरायणा थी। आनन्द से श्रावक धर्मकी बात सुनकर शिवानन्दा के मन में धर्म-जिज्ञासा जागी। वह भी प्रभुकी धर्मसभा में गई और तत्त्व-बोध को सुनकर श्रावक धर्मको ग्रहण किया।
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. .
4
24
( २२७ ) , २३० म. स्वामी ने १५वें चातुर्मास के बाद किस
ओर विहार किया था? उ. मगध देश की ओर । प्र. २३१ म. स्वामी ने १६वाँ चातुर्मास कहाँ किया था ? उ. राजगृही नगर में। प्र. २३२ म. स्वामी ने राजगृही में किसको दीक्षा
दी थी?
धन्ना-शाली भद्र को ( राजगृही का धन्ना ) प्र २३३ धन्ना-शालि भद्र दोनों का क्या सम्बन्ध था ? उ. . वे दोनों साला (शालिभद्र) बहनोई (धन्ना) . . होते थे? प्र. २३४ शालिभद्र कौन था? उ. राजगृही के अत्यन्त धनाढ्यं सेठ गोभद्र और
सेठानी भद्रा का आत्मज था। प्र. २३५ शालिभद्र के कितनी पत्नियाँ थी? उ. बत्तीस पत्नियाँ थी! प्र, २३६ महाराजा श्रेणिक को शालिभद्र से मिलने
को जिज्ञासा कैसे हुई थी ? उ. . . एक बार राजगृह में विदेशी व्यापारी रत्न. .. कम्बल लेकर आये । उनका मूल्य बहुत अधिक
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२२८ ।
होने के कारण महाराजा श्रेणिक भी नही खरीद सके । विदेशी व्यापारी निराश होकर जा रहे थे। संयोग से वे भद्रा सेठानीके महलों की तरफ आ गये । भद्रा सेठानी ने उन विदेशी व्यापारियों को मुँह मांगा मूल्य देकर रत्न कम्बल खरीद लिए । कम्बल सोलह ही थे, अतः उनके दो- दो टुकड़े करके बत्तीसों पुत्रवधु को दे दिये ।
महारानी चेलणा ने राजा श्रेणिक से एक रत्न कम्बल की मांग की । राजा ने व्यापारी को बुलाया तो पता चला कि सभी कम्बल भद्रा सेठानी ने खरीद लिए हैं। राजाने सेठानी के पास कहलाया कि "एक कम्बल हमें चाहिए, जो भी मूल्य हो वह लेकर कम्बल दे दें।" भद्राने विनयपूर्वक वापस सूचित किया कि वे रत्नकम्बल तो खण्डित हो गये हैं मेरी पुत्र वधुनों ने उनके पाद प्रोच्छन बना लिए है, अतः मैं क्षमा चाहती हूँ ।"
'जति
राजा श्रेणिकको यह जानकर बहुत ही आश्चर्य हुआ कि नगर में उससे भी अधिक
416
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(२२६ )
श्रीमंत और उदार लोग बसते है, जिनके वैभव और भोग-साधनों की थाह पाना कठिन
है। राजा को जिज्ञासा हुई कि आखिर उसका . . . पुत्र कैसा है, जिसकी पत्नियाँ देव-दुर्लभ रत्न
कम्बल के पाद प्रोच्छन बनाकर फेंक देती है। प्र. २३७ महाराजा श्रेणिक ने शालिभद्र को देखने के
लिए क्या किया था ? उ... राजा ने भद्रा को कहलाया-"वे आपके पुत्र
शालिभद्र को देखना चाहते है। .. प्र. २३६ भद्रा ने राजा के संवाद को सुनकर क्या ..... किया था.? : .. उ. भद्रा असमंजस में पड़ गई । शालिभद्र अाज
तक सातवीं मंजिल से नीचे ही नहीं उतरा था, - उसे लोक-व्यवहार का कुछ भी पता नहीं था।
राजा कहीं अप्रसन्न न हो जाय, अतः वह स्वयं राज-दरबार में गई और महाराज से प्रार्थना की ' महाराज ! शालिभद्र आज तक कभी महल से नीचे नहीं उतरा, वह बहुत ही सुकुमार है, यहाँ आने में उसे बहुत कष्ट
होगा, अतः कृपा कर आप सपरिवार मेरे घर - पर पधारकर आतिथ्य स्वीकार करें।"
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( २३० ) प्र. २२६ भद्रा की प्रार्थना सुनकर राजा ने क्या
किया था ? उ. भद्रा की प्रार्थना को स्वीकार कर राजा श्रोणिक
उसके भवन पर पधारे। भवन की शोभा और
मनोहर सज्जा देखकर वे चकित रह गये। प्र. २४० राजा के पधारने पर भद्राने क्या किया था ?
भद्राने राजा का भव्य शाही स्वागत किया व शालिभद्र को बुला कर लाने के लिये सेवक
को ऊपर भेजा। प्र. २४१ सेवक ने शालिभद्र से क्या कहा था ?
"अपने महलों में गजाणिक आये है, अतः
आपको नीचे बुलाया है।" प्र. २४२ शालिभद्र ने सेवक से क्या कहा था ? उ. "उसे जो कुछ लेना-देना हो, देकर विदा करो,
मेरा वहाँ क्या काम है ?" प्र. २४४ शालिभद्र की बात सुनकर भद्रा ने क्या
किया था? भद्रा स्वयं सातवीं मंजिल पर गई। उसने सब स्थिति समझाई-"श्रीणिक राजा अपने स्वामी हैं, नाथ हैं. वे तुमसे मिलना चाहते हैं. तुमको अपने राज भवन में बुलाया था, लेकिन मेरी
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( २३१ )
प्रार्थना स्वीकार कर वे अपने घर आये है, चौथी मंजिल में मैंने उन्हें बैठाया है ।" बेटा ! दो-तीन मंजिल उतरकर तो अपने स्वामी का स्वागत करना चाहिए ।"
प्र. २४४ माता की बात सुनकर शालिभद्र ने क्या किया था ?
शालिभद्र माता के आग्रह पर नीचे आया,. अनमने भावसे राजा से औपचारिक मुलाकात की । श्रेणिक और चेलरणा आदि राज परिवार के सदस्य शालिभद्र के सहज वैभव सौन्दर्य व सुकुमारता से अत्यन्त चकित हुए, पर शालिभद्र इस मुलाकात से खिन्न हो गया | प्र. २४५ शालिभद्र को वैराग्य कब हुआ था ?
उ.
उ.
राजा श्रेणिक के आगमन पर माता भद्रा जव शालिभद्र को बुलाने के लिए गई, तब उसने : राजा का परिचय कराते हुए "राजा अपने: स्वामी है, नाथ हैं" ऐसा कहा । शालिभद्र ने "स्वामी ! नाथ ! ये शब्द जीवन में पहली पहली वार सुने थे । इन शब्दों की ध्वनि से उसके मन, मस्तिष्क और श्रन्तश्चेतना के तार
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( २३२ ) झनझना उठे। उसे आज पहली बार अपनी तुच्छता और पराधीनता का भान हुआ। उसके मन में पराधीनता की गहरी पीड़ा जगी। उस पीड़ा से मुक्त होकर पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त करने के लिए वह सब कुछ निछावर करने
के लिये तैयार हो गया। 'प्र. २४६ शालिभद्र ने वैराग्य आने पर क्या किया था ?
शालिभद्र वैराग्य आने के बाद धर्मघोष नामक मुनि के सम्पर्क में आया, फलस्वरूप उसे पूर्ण स्वतंत्रता का मार्ग-संयम व साधना के पथ का ज्ञान हुआ। उसके मन में धोरे-धीरे विषयों से विरक्ति होने लगी। प्रतिदिन एक-एक पत्नी और एक-एक शैय्या का परित्याग कर वह संयम-साधना का
अभ्यास करने लगा। “प्र. २४७ शालिभद्र के वैराग्य की बात सुनकर कौन
उदास हो गई थो? . शालिभद्र की छोटी बहिन उसी राजगृही नगरके एक श्रेष्ठी धन्यकुमार को ब्याही हुई थो। उसने अपने भाई के वैराग्य की बात सुनी तो वह बहुत उदास हो गई, आंखें भीग गई।
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( २३३ ) प्र. २४८ धन्यकुमार ने अपनी पत्नी के उदासी का
कारण जानकर क्या कहा था ? "क्यों चिन्ता कर रहो हो ? उसका वैराग्य नकली है, एक-एक पत्नी को छोड़नेवाला कभी साधु-धर्म के प्रसिधारा पथ पर नहीं चल
सकता।" प्र. २४६ धन्यकुमार की बात सुनकर उसकी पत्नी ने : क्या कहा था ? - उ. "आपसे तो वह भी नहीं हो रहा है, किसी का ...: मजाक करना सरल है, त्याग करना कठिन... ... कठिनतर है। प्र. २५० धन्यकुमार को अपनी पत्नीकी बात सुनकर
क्या हुआ था ? धन्यकुमार' के मन में सहसा एक चिनगारी जगी-"अच्छा, तो लो, हमने आज से सभी
पत्नियोंको एक साथ छोड़ दिया।" प्र. २५१ धन्यकुमार पत्नियों को त्यागकर कहां चल
दिया था? ..... धन्यकुमार घर से निकलकर शालिभद्र के पास
पहुँचे और कहा-“यदि वैराग्य सच्चा है तो
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। २३२ ) झनझना उठे। उसे आज पहली बार अपनी तुच्छता और पराधीनता का भान हुआ। उसके मन में पराधीनता की गहरी पीड़ा जगी। उस पीड़ा से मुक्त होकर पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त करने के लिए वह सब कुछ निछावर करने
के लिये तैयार हो गया। अ. २४६ शालिभद्र ने वैराग्य आने पर क्या किया था ?
शालिभद्र वैराग्य आने के बाद धर्मघोष नामक मुनि के सम्पर्क में प्राया, फलस्वरूप उसे पूर्ण स्वतंत्रता का मार्ग-संयम व साधना के पथ का ज्ञान हमा। उसके मन में धोरे-धीरे विषयों से विरक्ति होने लगी। प्रतिदिन एक-एक पत्नी और एक-एक शैय्या का परित्याग कर वह संयम-साधना का
अभ्यास करने लगा। “प्र. २४७ शालिभद्र के वैराग्य की बात सुनकर कौन
उदास हो गई थी ?, .. शालिभद्र की छोटी बहिन उसी राजगृही नगरके एक श्रेष्ठी धन्यकुमार को व्याही हुई थी। उसने अपने भाई के वैराग्य की बात सुनी तो वह बहुत उदास हो गई, आंखें भीग गई।
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( २३५ ) कामदेव श्रावक ने। प्र. २५६ म. स्वामी ने चम्पापुरी से किस ओर प्रस्थान
किया था ? उ. . सिंधु-सौवीर देशकी ओर । पूर्वाचल से
से पश्चिमांचल की ओर । प्र. २५७. सिंधु-सौवीर का राजा कौन था ? उ.. उदायन (उद्रायन)। प्र. २५८ उदायन किसका अनुगामी था ? उ. तापस-परंपरा का अनुगामी था। प्र. २५६ उदायन की रानी का नाम क्या था ? उ. प्रभावतो। प्र. २६० महारानी किसकी पुत्री थी ? उ... वैशाली गणाध्यक्ष चेटक की पुत्री थी और
..निम्रन्थ धर्मकी परम उपासिका थी। प्र.. २६१ महाराजा उदायन निर्ग्रन्थ धर्मका अनुयायी
. .. . . कैसे बना था ?.... उ... महारानी प्रभावती की प्रेरणा से महाराजा
उदायन निर्ग्रन्थ धर्मका अनुयायी बन गया था। प्र. २६२ महाराजा उदायन ने किसको बंदी किया था ? उ. चंडप्रद्योत जैसे पराक्रमी राजा को पराजित
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( २३४ )
.
क्यों नहीं सब कुछ एक साथ छोड़ देते। जब भोग से घृणा हो गई तो फिर त्याग का नाटक क्यों ? आओ, वज्र संकल्प के साथ
आगे बढ़ो ?" प्र. २५२ धन्यकुमार की बात सुनकर शालिभद्र ने क्या
किया? शालिभद्र (साला) और धन्य (बहनोई) दोनों घर से निकलकर चले आये सीधे भगवान महावीर के पास। प्रभु महावीर तब राजगृह के बाहर गुरगशील चैत्य में विराजमान थे। दोनों साले-बहनोई ने प्रभु से दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा के बाद वे अध्ययन और
तपश्चरण में जुट गये। प्र. २५३ म स्वामी ने १६वें चातुर्मास के बाद किस
ओर विहार किया था ? . उ. चम्पापुरी की ओर। प्र. २५४ म चम्पापुरी में कहाँ विराजे थे ? ..... उ. पूर्णभद्र चैत्य में। .. प्र. २५५ म. स्वामी के पास चम्पापुरी में किसने श्रावक
पडिमा धारण की थी ?. . . . . , .
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उ.
4
( २३७ )
चंडप्रद्योत के इस तीखे व्यंग्य ने विजेता उदायन के धर्मपरायण सरल हृदय को झकभोर डाला, उसे लगा - सचमुच वह विजेता
होकर भी अपराधी बन गया है, जो किसी
1
को बन्दी बनाकर उसके साथ क्षमापना का नाटक कर रहा है । उदायन ने चन्डप्रद्योत
4
के बंधन खोल दिये, प्रचंड शत्रु को मुक्त कर दिया। चंडप्रद्योत उदायनं को इस सरलता, विशालता और क्षमाशीलता से गदगद हो गया और उसका सदैव के लिए मित्र : वन गया ।
M.
उ.
-
प. २६६ म. महावीर सिंधु सौवीर के किस नगर में
पधारे थे ?
उ.
सिधु - सौवीर की राजधानी वीतभयनगर में ।
प. २६७ म. स्वामी के चरणों में कौन वंदन करने आया और क्या प्रार्थना की थी ?
महाराजा उदायन ने प्रभु के चरणों में वंदना करके प्रार्थना की- ' भते ! आपके दर्शन करके मैं कृतार्थ हुआ हूँ, अब संसार त्याग कर दीक्षा लेना चाहता हूँ ।' P
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( २३६ )
कर बंदी बनाया था। इससे उसके उद्दाम बाहुबल एवं प्रचंड सैन्य बल की धाक पूरे
दक्षिण-पश्चिम भारत में जम गई थी। प्र. २६३ महाराजा उदायन ने किसको क्षमादान कर
मुक्त किया था? पर्युषण-पर्व पर संवत्सरी के दिन महारांज उदायनने बंदी चंडप्रद्योत से क्षमा याचना की और शुद्ध अध्यात्म द्रष्टि से क्षमादान कर
मुक्त कर दिया। प्र. २६४ उदायन के क्षमादान पर चडप्रद्योत ने क्या
कहा था ? उ. बंदी चंडप्रद्योत ने कहा- पर्युषण पर्व पर
आप मुझसे क्षमायाचना कर रहे है, पर मैं तो आपका कैदी हूँ, अपराधी हूँ, पराधीन से क्षमा-याचना कैसी? किसी को बंधन में
बांधकर कैदी बना लेना और फिर उससे . . क्षमापना करना:-यह कैसी क्षमापना ? यह
.... कैसी पर्वाराधना.?". .:.: प्र. २६५ चन्डप्रद्योत की बात सुनकर उदायेन के मन
पर क्या प्रभाव पड़ा? :: ....
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( २३६ )
महाराजा उदायन भगवान महावीर के चरणों में पहुँचे और दीक्षित हो गए ।
प्र. २७३ म. स्वामी सिंधु सौवीर से विहार कर कहां पधारे थे ?
उ.
पश्चिमांचल सिंधु - सौवीर से पूर्वांचल की ओर । प्र. २७४ म. स्वामी ने १७वां चातुर्मास कहां किया था ? वाणिज्य ग्राम में |
उ.
उ.
प्र. २७५ म. स्वामी ने १७ वें चातुर्मास के बाद किस ओर विहार किया था ? वाराणसी नगर की ओर ।
उ.
प्र. २७६ म. स्वामी वाराणसी नगर में कहां विराजे थे ? वाराणसी नगर के बाहर कोष्ठक चैत्य में ।
उ.
प्र. २७७ म. स्वामी के पास किसने श्रावक पडिमा धारण की थी ?
चुल्लनी पिता और सुरादेव ने अपनी पत्नी के साथ श्रावक पडिमा धारण की थी ।
प्र. २७८ म. स्वामी वाराणसी से विहार कर कहां
पधारे थे ?
उ.
उ.:..
मालंभिका नगर में ।
प्र. २७६ म. स्वामी आलंभिका नगर में कहां विराजे थे ?
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( २३८ )
प्र. २६८ म. स्वामी ने उदायन से क्या कहा था ? उ. "राजन् ! जहा सुहं-तुम्हारी आत्मा को
जिसमें सुख हो, वैसा करो, सत्कार्य में प्रमाद
मत करो।" प्र. २६६ महाराजा उदायन के पुत्र का क्या नाम था ? उ. अभीचिकुमार । प्र. २७० महाराजा उदायन ने राज्य के बारे में क्या
सोचा था ? राजा ने सोचा-जिस राज्य को मैं स्वयं बंधन और दलदल समझ कर त्याग रहा हूँ, उस राज्य-पाश से पुत्र को क्यों बांधू ? सच्चा पिता पुत्र के लोकोत्तर हित की कामना करता है, क्षणिक लौकिक हित की नहीं। इस प्रकार राजर्षि उदायन ने राजनीति से ऊपर उठकर
अध्यात्म दृष्टि से चिंतन किया। प्र. २७१ महाराजा उदायन ने राज्य का उत्तराधिकारी
किसको बनाया था? महाराजा उदायन ने राज्य का उत्तराधिकार
अपने भानजे केशीकुमार को सौंप दिया। प्र. २७२ महाराजा उदायन ने राज्य भार सौंप कर क्या
किया था ?
.
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________________
( २४१ )
वह प्रभु के समवसरण में जा पहुंचा था । वंदना नमस्कार कर उसने प्रभु का उपदेश सुना, तत्त्व - चर्चा की ।
प्र. २८४ म. स्वामी का उपदेश सुनकर पुद्गल परि-व्राजक को क्या हुआ था ।
उं. :
उ.
उ.
उसके अज्ञान की ग्रन्थी खुल गई, संशय छिन्न में हो गया, और सत्य की दिव्य आभा हृदय चमक उठी । उसकी सत्य - श्रद्धा का वेग इतना प्रबल था कि वह अपने दंड कमंडलादि समस्त. बाह्य परिवेश का त्याग कर भगवान का शिष्यः
बन गया । श्रमरण धर्म ग्रहण कर उसने ११ . अंगोका अध्ययन किया और विविध प्रकार के तपों की आराधना करता हुआ कर्म मुक्त, होकर निर्वाण को प्राप्त हुआ ।
प्र. २८५ म. स्वामी प्रलंभिका नगर से विहार करके :
कहां पधारे थे ?
राजगृह नगर में ।
प्र. २८६ म. स्वामी के राजगृह पधारने पर लोग दर्शनः के लिए क्यों नहीं आ सकते थे ?.
हजारों श्रद्धालु प्रेभुं के दर्शन करने की उत्सुकता
1
7
"
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________________
ர்
why ye
उ.
शंख वन में ।
प्र. २८० म. स्वामी से प्रलंभिका नगर किसने भावक पडिमा धारण की थी ? चुल्लशतक ने ।
( २४० )
उ.
प्र. २८१ शंख वन में कौन रहता था ? पुद्गल परिव्राजक
उ.
प्र. २८२ पुद्गल परिव्राजक कौन था ?
उ.
.
वह विद्वान् और तपस्वी था। ऋग्वेद का गहन अभ्यासी था । दो-दो दिन का उपवासा करके सूर्य के सम्मुख ऊर्ध्वबाहु खड़ा होकर आतापना आदि भी लेता था। वह सरल और भद्र प्रकृति था । हृदय की सरलता और तपो जन्य प्रभाव के कारण उसे विभंगज्ञान उत्पन्न हुआ, जिसके द्वारा ब्रह्म देव लोक तक के : देवताओं की स्थिति जानने लगा। उसे लगा कि वस, संसार इतना ही है, जितना कि मैंने
देखा वह अपने अपूर्ण ज्ञान को ही पूर्ण
मानकर लोगों में उसका प्रचार करने लगा ।
प्र. २८३ म. स्वामी के पधारने पर पुद्गलः परिव्राजक
".
२
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________________
( २४३ )
प्र. २६२ बदमाशों ने उद्यान में घुसकर क्या किया था ?
कुकर्म ।
..
प्र. २६३ वदमाशों ने कुकर्म किसके साथ किया था ? उ. अर्जुन की पत्नी वंघुमती के साथ । . : प्रे. २६४ बदमाशों ने कुकर्म क्यों किया था ? बधुमती के सौन्दर्य पर मुग्ध होकर ।
उ.
प्र. २९५ बदमाशों ने कुकर्म करने के लिए क्या
7
1
किया था ?
उ.
वदमाशों ने मौका देखकर अर्जुन को रस्सियों से बांध दिया और फिर बंधुमती को घेरकर उसके साथ स्वच्छंदता से कुकर्म किया ।
प्र. २९६ बदमाशों के कुकर्म को देखकर अर्जुन को
क्या हुआ था ?
अपनी आँखों के सामने नीच दुष्टों का प्रत्याचार श्रीर पत्नी के साथ जघन्य दुराचार देखकर अर्जुन का खून खोल उठा ।
उ.
વ
उ.
-
प्र. २६७ अर्जुन ने क्रोधावेश में ग्राकर अपने कुल देवता यक्ष को कोसना शुरू किया - " वचपन से मैं तुम्हारी पूजा-उपासना करता थाया हूं, लेकिन जब में विपत्ति में फँसा पड़ा हूँ तो तुम प्रस्तर
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( २४२ ) लिए भी मनमारे बैठे रहे क्यों कि नगर के
वाहर अर्जुन का आतंक फैला हुआ था। प्र. २८७ अर्जुन कौन था ? . . . उ. एक मालाकार था। . . . . . . प्र. २८८ अर्जुन की पत्नी का नाम क्या था ?
बंधुमती . . प्र. २८६ अर्जुन क्या करता था ?. ... .. .. . .उ. नगर के वाहर उसका एक बहुत सुन्दर व्याव
सायिक उद्यान था। अर्जुन बहुत सबेरे उठकर अपनी पत्नी बंधुमती के साथ उद्यान में जाता। विभिन्न रंगों व अनेक जातियों के फूलों को चुनता, उनके गुलदस्ते, गजरे, हार व मालाएँ बनाकर नगर में वेचता और
अपनी आजिविका चलाता था । प्र. २६० उद्यान में किसका मन्दिर था ? .उ. उसके कुल देवता मुद्गरपाणि यक्षका प्राचीन
मंदिर था। 'प्र. २६१ अर्जुन के उद्यान में कौन घुसे थे? उ. एक वार अर्जुन के उद्यान में छः बदमाशों
की एक टोली घुस गई थी। . ... ..
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( २४५ .)
의
에
दम लेता। कुछ ही दिनों में रमणीय उद्यान के परिपार्श्व में नर-कंकालों का ढेर लग
गया। ३०१ अर्जुन के आतंक से नगर में क्या हुआ था ?
अर्जुन के आतंक से जनता का आवागमन वंद हो गया, गलियां और राजमार्ग सुनसान हो गये। राजगृह के द्वार बंद कर दिये गये और किसी भी व्यक्ति को नगर के बाहर अर्जुन की दिशा में जाने की सख्त मनाई कर
दी गई। प्र. ३०२ म. स्वामों के दर्शन करने के लिए जाने का
किसने निश्चय किया था ? सुदर्शन नामक एक दृढ़ श्रद्धालु आवक ने निश्चय किया। अपने संकल्प बल का सहारा लेकर वह नगर के बाहर दृढ़ता के साथ
आगे बढ़ा। प्र. ३.३ सुदर्शन को आते देखकर अर्जुन माली ने
क्या किया था ? बहुत दिनों के बाद मनुष्य को प्राता देखकर अर्जुन उन्मत्त की भांति मुद्गर लेकर उस ओर दौडा।
-
--
-
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। २४४ :)
की भाँति निश्चेष्ट खड़े मेरा अपमान होता देख रहे हो ? लगता है तुम में कुछ भी सत्य
नहीं है ?" प्र. २९८ अर्जुन की पुकार का यक्ष पर क्या प्रभाव
पड़ा था? अर्जुन के कोसने का यक्ष पर पूरा असर हुआ। वह अर्जुन के देह में प्रविष्ट हो गया। अर्जुन के बन्धन टूट गये। क्रोध और आवेशवश वह
उन्मत्त-सा हो गया। प्र. २६६ अर्जुन ने क्रोधावेश में आकर क्या किया था ? उ. वह मुद्गर हाथ में लिए दैत्य की भांति उठा
और काम-रत छहों पुरुषों एवं अपनी पत्नी बन्धुमती की हत्या कर डाली। इस पर भी
अर्जुन का क्रोध शांत नहीं हुआ। प्र. ३०० अर्जुन का क्रोध शांत नहीं होने पर उसने
क्या किया था ? उसके मन में मनुष्य जाति के प्रति भयंकर घृणा के भाव भर गये। वह भूखे
शेर की भाँति प्रतिदिन मनुष्यों पर झपर . कर छः पुरुषों एवं एक स्त्री को हत्या करवे
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( २४५ :) दम लेता। कुछ ही दिनों में रमणीय उद्यान के परिपार्श्व में नर-कंकालों का ढेर लग
गया। प्र. ३०१ अर्जुन के अातंक से नगर में क्या हुआ था ? .
अर्जुन के आतंक से जनता का आवागमन बंद हो गया, गलियां और राजमार्ग सुनसान हो गये। राजगृह के द्वार बंद कर दिये गये और किसी भी व्यक्ति को नगर के बाहर अर्जुन की दिशा में जाने की सख्त मनाई कर
दी गई। प्र. ३०२ म. स्वामों के दर्शन करने के लिए जाने का
किसने निश्चय किया था ? सुदर्शन नामक एक दृढ़ श्रद्धालु श्रावक ने निश्चय किया। अपने संकल्प वल का सहारा लेकर वह नगर के बाहर दृढ़ता के साथ
आगे बढ़ा। प्र. ३.३ सुदर्शन को आते देखकर अर्जुन माली ने
क्या किया था ? बहुत दिनों के बाद मनुष्य को प्राता देखकर अर्जुन उन्मत्त की भांति मुदगर लेकर उस मोर दोडा।
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( २४६ )
प्र. ३०४ अर्जुन माली को आते देखकर सुदर्शन ने क्या किया था ?
उ.
सुदर्शन वहीं ध्यानस्थ खड़े हो गये ।
प्र. ३०५ सुदर्शन के पास पहुँचते ही अर्जुन को क्या
हुआ था ?
उ.
प्र. ३०६ अर्जुन को गिरते देखकर सुदर्शन ने क्या किया था ?
उ.
अर्जुन का मुद्गर उठा का उठा रह गया । सुदर्शन की सौम्यता के समक्ष अर्जुन की क्रूरता परास्त हो गई। वह स्तब्ध रह गया, फिर गिर पड़ा ।
सुदर्शन ने उसे धीरे से उठाया । उसकी. क्रूरता और दानवता को करुणा और स्नेह के हाथों से
दुलारा |
*
प्र. ३०७ सुदर्शन के स्नेह को देखकर अर्जुन ने क्या
किया था ?
उ.
अर्जुन सुदर्शन के चरणों में गिर पड़ा। अपने
क्र. र कर्मों पर पश्चात्ताप करने लगा । प्र. ३८ अर्जुन को उद्बोधित करते हुए सुदर्शन ने क्या कहा था ?
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( २४७) "अर्जुन ! घबराओं नहीं ! तुम भी मनुष्य हो। तुम्हारे रक्त में दानवता के संस्कार प्रविष्ट हो गये थे, इसी कारण तुमने सैकड़ों निरपराध प्राणियों की हत्या करडाली, अब तुम प्रबुद्ध हो गये हो, तुम्हारे दानवीय संस्कारों में परिवर्तन आ गया है, चलो, मैं तुम्हें हमारे कल्याणद्रष्टा देवाधिदेव के पास ले चलू।" अर्जुन सुदर्शन के साथ-साथ भगवान
महावीर के समक्ष आया। प्रे. ३०६ म. स्वामी के उपदेश से अर्जुन को क्या हुया था? उ. करुणासिंधु महावीर के हृदयग्राही उपदेश
से अर्जुन के रक्त की दानवीय ऊष्मा शांत हुई, करुणा को रसधारा फूट पड़ी। पश्चात्ताप के प्रांसू बहाकर उसने प्रभु के समक्ष प्रायश्चित्त किया और उसी क्षण कठोर मुनिचर्या स्वीकार
कर ली। प्र. ३१० अर्जुन मुनि को देखकर लोगों ने क्या
किया था ? अर्जुन मुनि को देखकर लोग आवेश व क्रोध में श्रा जाते ।" "यही है हमारे प्रिय स्वजन
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स्थान-स्थान पर लोग
उन्हें मारते-पीटते, तथा त्रास देते । प्र. ३११ म. स्वामी ने अर्जुन मुनि को क्या मंत्र
दिया था ?
उ.
( २४८ )
मित्रों का हत्यारा !
भगवान महावीर ने अर्जुन मुनि को शिक्षामंत्र दिया था - " तितिक्षा ही परम धर्म है ।"
प्र. ३१२ म. स्वामी के मन्त्र को अर्जुन मुनि ने कैसे साकार किया था ?
-उ.
उ.
1)
अर्जुन मुनि ने मन्त्र को साकार करने के लिए जनता द्वारा प्रदत्त उपसर्गों को समता भाव से सहन किया और छः मांस की कठोर तपश्चर्या के बाद अनशन कर सब कर्मों को क्षय कर सिद्ध - बुद्ध दशा को प्राप्त हुए ।
प्र. ३१३ म. स्वामी के पास अर्जुन मुनि के साथ किनकी दीक्षायें हुई थीं ?
प्रभु महावीर के पास अर्जुन मुनि के साथ मकाई. किकम, काश्यप और वरदत्त की दीक्षायें हुई थी ।
प्र. ३१४ म. स्वामी ने १८वां चातुर्मास कहाँ किया था ? राजगृह नगर में ।
3.
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________________
( २४६ )
प्र. ३१५ म. स्वामी के पास किसने श्रावक धर्म स्वीकार
किया था ? नंदन मणीकार ने ।
उ.
प्र. ३१६ म. स्वामी की देशना सुनने समवसरण में कौन आया था ?
उ.
श्र ेणिक महाराज, अभय कुमार एवं अन्य सहस्रों नागरिक धर्म देशना सुनने आये थे । तभी एक कुष्टी, जिसके शरीर से रक्त-मवाद वह रहा था, मक्खियाँ देह पर भिनभिना रही थीं. महाराजा श्रेणिक के पास आकर बैठ गया । प्रभु की धर्म सभा में तो सबको समान अधिकार था। कोई किसी को रोक नहीं सकता था ।
उ.
.
प्र. ३१७ म, स्वामी की धर्मसभा में कुष्टी ने क्या कहा था ?
कुष्टी ने प्रभु महावीर की ओर देखकर कहा"मर जाओ ! "
श्र ेणिक को संकेत करते हुए कहा- "जीते रहो! अभयकुमार की ओर मुँह कर के वोला- "चाहे
जी, चाहे मर!"
""
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________________
( २५२ )
गया हो। 'भंते ! क्या आपकी उपासना का यही फल मिलता है ?" धैर्य का बांध टूटते ही
श्रेणिक के उद्विग्नतामय उद्गार निकले । प्र. ३२४ म. स्वामी ने श्रेणिक को धैर्य बंधाते हुए क्या
कहा था ? 'राजन् ! ऐसा नहीं है। मेरे सम्पर्क में आने से पूर्व तुमने क्रूरतापूर्वक अनेक प्राणियों की हिंसा की थी। इस कारण से तुमने नरकायुष्य बाँध लिया है। मेरी उपासना का फल तो यह है कि नरक से मुक्त होकर आगामी चौवीसी में तुम मुझ जैसे ही पद्मनाभ नामक प्रथम
तीर्थकर बनोगे।" प्र. ३२५ म, स्वामी द्वारा अपने तीर्थंकर भव की बात
सुनकर श्रेणिक को क्या अनुभव हुआ था? श्रेणिक का विषाद हर्ष में बदल गया। तीर्थकर पद की अपार गरिमा और चरम श्रेष्ठता के समक्ष उसे नरक की यातना तो तुच्छ एवं क्षणिक-सी प्रतीत हुई। फिर भी उसने नरक
गमन को टालने की युक्ति प्रभु से पूछी। ३२६ म. स्वामी ने श्रेणिक को नरक-गमन टालने
के क्या उपाय बताये थे ?
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________________
( २५३ )
उ. ...: प्रभु ने श्रेणिक को नरक-गमन टालने के चार : - · उपाय बताये थे। .. (१) "अगर तुम्हारी दासी कपिला श्रमणों
को दान दे दे।" .. (२) "कालशौकरिक एक दिन के लिये जीव
वध छोड़ दे।" . . (३) “यदि पूरिणया श्रावक की एक सामायिक
.. तुम खरीद सको।" - (४) “यदि एक दिन तुम नवकारसी का
प्रत्याख्यान कर लो।" इन चार में से तुम यदि कोई एक भी कार्य सम्पन्न कर सको तो तुम्हारा नरक-गमन टल
सकता है। प. ३२७ म. स्वामी की बात सुनकर श्रेणिक ने क्या
किया था ? उ. प्रभु से अपना नरक-गमन टालने के उपाय
सुनकर महाराजा श्रेणिक ने सर्व प्रथम कपिला दासो से दान दिलवाया। बलात् दान दिलवाने के लिये राजा ने उसके हाथ में एक चम्मच बंधवा दिया था। दासी कपिला
देते-देते बोल पड़ी-यह दान में नहीं, श्रमिक '. का चाटु ही दे रहा है। .
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________________
( २५४ )
!
दूसरे उपाय की पूर्ति के लिये कालशौकरिक को राज सभा में बुलाया गया और राजाने आज्ञा दी कि एक दिन तुम किसी का वध मत करो । कालशौकरिक ने कहा - महाराज आप दूसरा कुछ भी काम कह सकते हैं, लेकिन मैं एक समय के लिए भी वध नहीं छोड़ सकता । राजा ने अपनी बात का अनादर होते देखकर महामन्त्री को आज्ञा दी, जाश्रो, इसे ले जाओ और कुए में उल्टा लटका कर एक दिन तक रखो । राजा की आज्ञा का पालन किया गया और कालशौकरिक को कुए में उल्टा लटका दिया गया। लेकिन कालशौकरिक ५०० कल्पित भैंसे बनाकर उनका वध करता रहा । इस प्रकार दोनों ही युक्तियाँ सफल हुई। अतः राजा पूर्णिया श्रावक के घर पहुँचा ।
3.
.
प्र. ३२८ पूरिया श्रावक कौन था ? और क्या
करता था ?
पूरिया एक साधारण स्थिति का श्रावक था । वह अपने छोटे से आवास में अपनो छोटी सी
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________________
( २५५ )
• गृहस्थी के अनुरूप वहुत अल्प सामान के साथ रहता था। रोज पूणी कातना तथा वेचना और जो मिले उससे जीविका निर्वाह कर संतुष्ट
रहना। उसकी दैनिक चर्या थी-नियमित ... सामायिक-स्वाध्याय करना । प्र. ३२६ महाराजा श्रेणिक के आगमन पर पूणिया
ने क्या किया था? उ. मगधपति श्रेणिक को अपने आवास पर
उपस्थित देखकर पूरिणया श्रावक ने प्रसन्नता के साथ स्वागत किया और पूछा-"मैं आपर्क
क्या सेवा कर सकता हूँ ?" प्र. ३३० महाराजा श्रोणिक ने पूणिया से क्या कहा था
शोणिक ने कहा-'सेवा तो मैं तुम्हा करूँगा। तुम मेरा एक कार्य कर दो। व उपकार मानूंगा। वस, तुम्हारो एक सार यिक मुझे चाहिये । जो भी मूल्य चा वह ले लो। लाख, दस लाख-जो मन में
बस एक सामायिक दे दो! अं. ३३१. महाराजा श्रेणिक की बात सुनकर पूरिगर
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( २५४ )
दूसरे उपाय की पूर्ति के लिये कालशौकरिक को राज सभा में बुलाया गया और राजाने आज्ञा दी कि एक दिन तुम किसी का वध मत करो । कालशौकरिक ने कहा -- महाराज ! आप दूसरा कुछ भी काम कह सकते हैं, लेकिन मैं एक समय के लिए भी वध नहीं छोड़ सकता । राजा ने अपनी बात का अनादर होते देखकर महामन्त्री को आज्ञा दी, जाओ, इसे ले जाओ और कुए में उल्टा लटका कर एक दिन तक रखो। राजा की आज्ञा का पालन किया गया और कालशौकरिक को कुए में उल्टा लटका दिया गया। लेकिन कालशौकरिक ५०० कल्पित भैंसे बनाकर उनका वध करता रहा । इस प्रकार दोनों ही युक्तियाँ सफल हुई । अतः राजा पूर्णिया श्रावक के घर पहुँचा ।
।
प्र. ३२८ पूर्णिया श्रावक कौन था ? और क्या
करता था ?
उ.
पूर्णिया एक साधारण स्थिति का श्रावक था । वह अपने छोटे से आवास में अपनो छोटी सी
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। २५५ )
गृहस्थी के अनुरूप बहुत अल्प सामान के साथ रहता था। रोज पूणो कातना तथा वेचना और जो मिले उससे जीविका निर्वाह कर संतुष्ट
रहना। उसकी दैनिक चर्या थी-नियमित .. सामायिक-स्वाध्याय करना । प्र. ३२६ महाराजा श्रेणिक के आगमन पर पूरिणया
ने क्या किया था ? मगधपति श्रेणिक को अपने आवास पर उपस्थित देखकर पूणिया श्रावक ने प्रसन्नता के साथ स्वागत किया और पूछा-"मैं आपकी
क्या सेवा कर सकता हूँ ?" प्र. ३३० महाराजा श्रेणिक ने पूणिया से क्या कहा था?
श्रोणिक ने कहा-'सेवा तो मैं तुम्हारी करूंगा। तुम मेरा एक कार्य कर दो। बड़ा उपकार मानूंगा। वस, तुम्हारो एक सामा. यिक मुझे चाहिये । जो भी मूल्य चाहो, वह ले लो। लाख, दस लाख-जो मन में हो;
बस एक सामायिक दे दो! प्रे. ३३१ महाराजा थेगिक की बात सुनकर पूणिया ने
क्या कहा था ?
.
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________________
( २५६ )
सम्राट! आप कैसी बात करते हैं ? सामा
यिक कभी बेची जा सकती है । प्र. ३३२ पूरिगया श्रावक की बात सुनकर महाराजा.
श्रेणिक ने क्या कहा था ? क्यों नहीं, प्रभु महावीर ने कहा है-पूणिया की एक सामायिक यदि मैं खरीद लुतो मेरी नरक गति टल सकती है ? बोलो, क्या मूल्य
उ.
चाहते हो?
प्र. ३३३ पूणिया ने सामायिक के मूल्य के सम्बन्ध में
परिणक से क्या कहा था ? राजन् ! जब प्रभु महावीर ने ऐसा कहा है तो उसका मूल्य भी उन्हीं से पूछ लीजिये।
मैं नहीं बता सकता। प्र. ३३४ म. स्वामी के पास जाकर श्रेणिक ने क्या
कहा था ?
भंते ! पूणिया श्रावक सामायिक बेचने को तैयार है, मैं उसका जो भो मूल्य होगा। दे दूंगा । आप कृपा करके इतना बता दीजिये
कि एक सामायिक का मूल्य क्या होना चाहिये । . ३३५ म. स्वामी ने श्रेणिक. को. उद्बोधित करते
हुए क्या कहा था ? . . .
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________________
( २५७ )
श्रेणिक ! सामायिक आत्माकी समता का नाम है। उस आत्म-शांति का भौतिक मूल्य क्या . हो सकता है ? लाख-करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ तो: क्या, तुम्हारा यह साम्राज्य तो उस सामायिक की दलाली के लिए भी अपर्याप्त है। सामायिक तो अमूल्य है। वह आध्यात्मिक वैभव है। चक्रवर्ती के भौतिक वैभव से भी उसकी तुलना नहीं हो सकती।
• ३३६ महाराजा श्रोणिक नवकारसी का प्रत्याख्यान
भी न कर सका था। इसतरह नरकगमन. रोकने के चारों उपाय निष्फल हो जाने पर, उसने क्या किया?
प्रभु महावीर ने महाराजा श्रेणिक को नरक गमन टालने के लिए चार उपाय बताये थे। उन चारों उपायों के निष्फल हो जाने पर. श्रेणिक का मन विपयों से प्रायः विरक्त रहने लगा। वह सूक्ष्म प्रासक्ति के कारण स्वयं संसार त्याग तो नहीं कर सका किन्तु त्याग की प्रेरणा देने के लिये उसने राजगृह नगर में उद्घोपणा करवादी थी।
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________________
( २५८ )
प्र. ३३७ महाराजा श्रेणिक ने नगर में क्या उद्घोषणा
करवाई थी? कोई भी व्यक्ति यदि भगवान महावीर के पास यदि दीक्षा ग्रहण करेगा तो वह रोकेगा नहीं, किसी को संसार त्याग में पारिवारिक भरणपोषण की चिन्ता वाधक हो तो वह निश्चिन्त मन से दीक्षा ग्रहण करे। उसके परिवार के भरण-पोषण का सारा दायित्व राज्य ग्रहण
करेगा। प्र. ३३८ महाराजा श्रेणिक की इस उद्घोषणा का क्या.
परिणाम हुआ? उ. श्रेणिक की इस उद्घोषणा के परिणाम
स्वरूप जालि, मयालि श्रादि २३ राजकुमारों (श्रोणिक के पुत्रों) ने एवं नंदा, नंदमती आदि १३ रानियों ( श्रीणिक की रानियां) ने भगवान महावीर के चरणों में श्रमण-श्रमणी
धर्म स्वीकार किया। "प्रे. ३३६ म. स्वामी को वन्दन करने कौन आया था ?
उ. आद्रेक मुनि । 'प्र. ३४० पाक मुनि को कौन सा ज्ञान था ?
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________________
( २५६ )
उ.
जात
जाति-स्मरण-ज्ञान । उसी ज्ञान के कारण निर्ग्रन्थ-प्रवचन का श्रद्धालु बनकर दीक्षित
भी हो गया था। 4. ३४१ आर्द्रक मुनि की दीक्षा का निमित्त कौन
हुआ था ? उ. राजगही के महाराजा श्रेणिक का महामंत्री
अभयकुमार। प्र. ३४२ म. स्वामी ने १९वां चातुर्मास कहाँ किया था ? उ. राजगृह नगर में। प्र. ३४३ म. स्वामी ने चातुर्मास के बाद किस पोर
विहार किया था? उ. प्रालंभिका नगर होते हुए कौशंबी की ओर । प्र. ३४४ म. स्वामी कौशंबी में कहाँ विराजे थे? उ. चन्द्रावतरण चैत्य में । प्र. ३४५ कोरांवो में किसका राज्य था ? उ. महाराजा शतानीक का । प्र. ३४६ शतानीक की रानी का क्या नाम था ? उ. महारानी मृगावती। प्र. ३४७ शतानीक के पुत्र का क्या नाम था?
राजकुमार उदयन ।
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________________
A
( २६० )
प्र. ३४८ म. स्वामी के पधारने के पूर्व कौशवी पर किसने ग्रामरण किया था ?
महारानी मृगावती के अपूर्व सौंदर्य से आकृष्ट हो उसको अपनी पटरानी बनाने का स्वप्न साकार करने हेतु ।
प्र. ३५० चंडप्रद्योत के आक्रमण से क्या हुआ था ?
3.
उ.
अवंतिपति चंडप्रद्योत में ।
प्र. ३४६ चंडप्रद्योत ने आक्रमण क्यों किया था ?
उ.
4
चप्रद्योत के साथ युद्ध में शतानीक मारा गया और राजकुमार उदयन अनाथ हो गया ।
प्र. ३५१ चंडप्रद्योत की रानी का क्या नाम था ?
उ. शिवादेवो ।
प्र. ३५२ चंडप्रद्योत और शतानीक का क्या संबंध था ? वे दोनों परस्पर साढू लगते थे ।
उ.
उ.
प्र. ३५३ मृगावती और शिवा देवी का क्या संबंध था ? वे दोनों सहोदरा बहनें थी । महाराजा चेटक की पुत्रियाँ थी । भगवान महावीर की बहनें ( मौसी पुत्रियां )
पु. ३५४ शतानीक की मृत्यु के बाद महारानी मृगावती ने क्या किया था ?
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________________
( २६१ )
उ.
.
मृगावतीने अपने सतीत्व की, राजकुमार की और राज्य की सुरक्षा के लिए दीर्घदृष्टि से काम लिया। चंड प्रद्योत के प्रस्ताव का चतुराई के साथ उत्तर दिया। "उदयन अभी बालक है, मैं पति-वियोग में दुःखी हूँ, प्रजा भयभीत है। अतः आप हमारी सुरक्षाव्यवस्था कीजिये, सबको आश्वस्त होने के लिए समय दीजिए, आखिर हम जायेंगे
कहाँ ?" प्र. ३५५ चंडप्रद्योत ने मृगावती रानी के लिए क्या
व्यवस्था की थी ? चतुर महारानी के उत्तर से आशान्वित होकर चंडप्रेद्योत ने कौशंबी की सुरक्षा-व्यवस्था मजबूत कर दी। फिर वह स्वयं अवन्ती चला
गया, समय के इन्तजार में.......। प्र. ३५६ चन्ड प्रद्योत ने पुनः कौशंवी पर आक्रमण क्यों
किया था ? कुछ समय बीतने पर चन्डप्रद्योत ने मृगावती को अपना प्रणय पत्र भेजा। उत्तर में मृगावती ने सिहनी की भांति हुँकार के साथ
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( २६. ) प्र. ३४८ म. स्वामी के पधारने के पूर्व कौशंबी पर .
किसने आक्रमण किया था ? उ. अवंतिपति चंडप्रद्योत में । प्र. ३४६ चंडप्रद्योत ने आक्रमण क्यों किया था ? उ. महारानी मृगावती के अपूर्व सौंदर्य से आकृष्ट
हो उसको अपनी पटरानी बनाने का स्वप्न
साकार करने हेतु। प्र. ३५० चंडप्रद्योत के प्राक्रमण से क्या हुआ था? . उ. चडप्रद्योत के साथ युद्ध में शतानीक मारा गया
• और राजकुमार उदयन अनाथ हो गया। प्र. ३५१ चंडप्रद्योत की रानी का क्या नाम था? . उ. शिवादेवो। प्र. ३५२ चंडप्रद्योत और शतानीक का क्या संबंध था ? उ. वे दोनों परस्पर साढू लगते थे । प्र. ३५३ मृगावती और शिवा देवी का क्या संबध था ?
वे दोनों सहोदरा वहनें थी। महाराजा चेटक . की पुत्रियाँ थी।, भगवान महावीर की
बहनें ( मौसी पुत्रियां । प. ३५४ शतानीक की मृत्यु के बाद महारानी मृगावती
ने क्या किया था?
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सेनायें नगर में प्रवेश कर लूट मचा देगी
किसी भी स्थिति में द्वार नहीं खुलने चाहिए। प्रे. ३६० मंत्रिमंडल की सलाह का मृगावती ने क्या
उत्तर दिया था ? रानी मृगावती ने कहा- "शांति का देवता जव हमारे द्वार पर आ गया है तब हम अभागे उसके स्वागत के लिए क्या द्वार भी न खोलें ? प्रभु महावीर की उपस्थिति में हमें कुछ भय' नहीं। मुझे अटल विश्वास है, यह विपत्ति भी टल जायेगी और भगवान की धर्मनीति रणनीति को नया मोड़ दे देगी।" रानी का विश्वास जीता। शत्रु सेना से घिरे कौशंवी के द्वार खोल दिये गये। महारानी अपने समस्त राजपरिवार के साथ प्रभु के
दर्शनार्थ गई। प्रे. ३६१ म. स्वामी की देशना सुनने और कौन . पाये थे ?
चन्डप्रद्योत एवं उसकी अंगारवती आदि . रानियां भी भगवान को धर्म-देशाना सुनने आई। भगवान् महावीर
..
.
..
.
.
.
.
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________________
( २६२ ) कामी राजा को फटकारा । चन्ड प्रद्योत सोचने लगा-"रानी ने मुझे धोखा दिया है।" कुद्ध हो उसने पुनः कौशंबी पर आक्रमण कर दिया। अवंती की सेनाओं ने कौशंबी को
घेर लिया। प्र. ३५७ चन्डप्रद्योत के आक्रमण पर रानी मृगावती
ने क्या किया? रानी ने कौशंबी के सुदृढ़ वज्रमय द्वार बन्द करवा दिये और भीतर ही भीतर अपनी सुरक्षा व्यवस्था मजबूत करने लगी। युद्ध की इस विषम वेला में शांति के अग्रदूत भगवान महावीर रण-भेरियों के बीच शांति का जयघोष सुनाते हुए कौशंबी के बाहर चन्द्रावतरण चैत्य
में पधारे। प्र. ३५८ म. स्वामी के आगमन की सूचना मिलने पर
मृगावती ने क्या किया था ? मृगावती ने मंत्रिमण्डल की सम्मति ली-"द्वार.
खोलने चाहिये या नही।" . प्र. ३५९ मंत्रिमंडल ने मृगावती से क्या कहा था ?
"इस विकट स्थिति में द्वार खुलते ही शत्रु
.
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________________
( २६५ )
उ.
प्र. ३६४ म. स्वामी के पास किसने दीक्षा लो थो ? मृगावती के साथ चंडप्रद्योत की आठ रानियों ने भी दीक्षा ली थी ।
प्र. ३६५ राजगृही के वैभारगिरि की उपत्यकाओं में कौन रहता था ? लोहखुर ।
उ.
प्र. ३६६ लोहखुर कौन था ?
उ. एक भयानक व दुर्दान्त चोर था पीढियों से चौर्यकर्म करता था ।
प्र. ३६७ लोहखुर के पुत्र का नाम क्या था ?
उ. रोहिणेय ।
प्र. ३६८ लोहखुर ने मरते समय रोहिणेय को क्या सीख दी थी ?
उ.
"पुत्र ! मेरी प्रतिष्ठा को तुम सदा वढाते रहोगे। तुम अपने कर्म में मुझसे भी अधिक चतुर और कुशल, साहसी हो । किन्तु एक वातका ध्यान रखना। तुम कभी महावीर के निकट मत जाना। उनकी वाणी मत सुनना । बस यही मेरी अन्तिम सीख है ।
प्र. ३६६ म. स्वामी की देशना केश रोहिणेय के कान में कैसे पड़े ?
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________________
( २६४ )
स्पर्शी प्रेरक देशना दी। चंडप्रद्योत का हृदय भी गदगद हो गया |
प्र. ३६२ म. स्वामी की धर्मसभा में मृगावती ने क्या
कहा था ?
उ.
समयज्ञा रानी मृगावती भगवान की धर्मसभा में खड़ी हुई और प्रार्थना करने लगी"भगवन् ! मैं महाराजा चन्डप्रद्योत की आज्ञा लेकर श्रापके पास दीक्षा लेना चाहती
3.
1
मेरा पुत्र उदयन अभी बालक है। इसके संरक्षरण को जिम्मेदारी महाराजा चंडप्रद्योत स्वीकार करेंगे, ऐसा मुझे विश्वास है ।" उसी समय रानी ने उदयन को महाराजा चन्डप्रद्योत की गोदी में बैठा दिया ।
प्र. ३६३ म. स्वामी के उपदेश से वातावरण कैसा बन
गया था ?
वातावरण बदल गया । चंडप्रद्योत को उदयन का अभिभावकत्व स्वीकार करना पड़ा । आक्रान्ता अभिभावक बन गया । रणभूमि तपोभूमि बन गई। रणभेरियों की जगह शांति व त्याग के जयघोष गू ंजने लगे ।
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________________
( २६७ )
व्यर्थ ! मगध के शासन-तंत्र के नाक में दम
ग्रागया ।
प्र. ३७२ रोहिणेय किसकी योजना से पकड़ा गया था ? अभयकुमार की ।
उ.
प्र. ३७३ अभय कुमार ने रोहिणेय द्वारा अपराध को स्वीकार कराने के लिए क्या उपाय किया था ? अभय कुमार રે हर संभव प्रयास किया, पर रोहिणेय ने अपना कुछ भी अपराध स्वीकार नहीं किया । आखिर देवविमान की तरह सजे हुए सात मंजिले महल में मादक सुरा पिलाकर उसे पर्यक पर सुलाया गया ।
उ.
उ.
प्र. ३७४ रोहिणेय ने नशा उतरने पर क्या देखा था ? रोहिणेय नशा उतरने पर विस्मित रह गया । आसपास के वातावरण को देखकर वह सोचने लगा - क्या, वह किसी स्वर्ग में पहुंच गया है ! प्र. ३७५ ग्रप्सराओं ने रोहिणेय से क्या कहा था ? श्रप्सरा जैसी दासियाँ आकर "जय ! विजय" के साथ मधुर स्वर में बोली- "श्राप हमारे स्वामी हैं, अभी-अभी श्राप पृथ्वी लोक से प्रयाण कर एस स्वर्ग विमान में अवतरित हुए हैं मायच
3.
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________________
उ.
( २६६ )
एक दिन भगवान महावीर राजगृह के उद्यान में समवसरण में देशना दे रहे थे। रोहिणेय उधर से निकला। उसने कानों में उंगलियां डाल दी । देवानुयोग से उसके पैर में एक तीखा कांटा चुभ गया। कांटा निकालने के लिये उसने हाथ पैर की तरफ बढ़ाये, तभी प्रभु के कुछ शब्द उसके कानों में पड़ गये थे ।
प्र. ३७० म. स्वामी की देशना के कौन से शब्द रोहिणेय के कानों में पड़े थे ?
उ.
"देवताओं के चरण पृथ्वी को नहीं छूते हैं । उनके नेत्र निर्निमेष रहते हैं । उनका शरीर स्वेद रहित होता है और पुष्पमाला सदा विकसित बनी रहती है ।" ये शब्द सुनते ही वह वैचेन हो गया। बार-बार भूलने की चेष्टा करता, पर वह भूल नहीं सका ।
प्र. ३७१ नगरवासियों ने रोहिणेय के आतंक से संत्रस्त होकर क्या किया था ?
नगरवासियों ने महाराजा श्र ेणिक को अपनी कथा सुनाई । श्रणिक ने दस्युराज रोहिणेय को पकड़ने के हजारों उपाय किये, पर सभी
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________________
( २६७ )
.
व्यर्थ! मगध के शासन-तंत्र के नाक में दम
आगया। प्र. ३७२ रोहिणेय किसकी योजना से पकड़ा गया था ? उ. अभयकुमार की। प्र. ३७३ अभय कुमार ने रोहिणे य द्वारा अपराध को
स्वीकार कराने के लिए क्या उपाय किया था? अभय कुमार ने हर सभव प्रयास किया, पर रोहिणेय ने अपना कुछ भी अपराध स्वीकार नहीं किया। आखिर देवविमान की तरह सजे हुए सात मंजिले महल में मादक सुरा
पिलाकर उसे पर्यक पर सुलाया गया। प्र. ३७४ रोहिणेय ने नशा उतरने पर क्या देखा था ? उ. . रोहिणेय नशा उतरने पर विस्मित रह गया।
आसपास के वातावरण को देखकर वह सोचने
लगा-क्या, वह किसी स्वर्ग में पहुंच गया है ! प्र. ३७५ अप्सरानों ने रोहिणेय से क्या कहा था?
अप्सरा जैसी दासियों आकर "जय ! विजय" के साथ मधुर स्वर में बोली-"पाप हमारे स्वामी । हैं. अभी-अभी आप पृथ्वी लोक से प्रयाग बार इस स्वर्ग विमान में युवतरित हुए हैं। अब :
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( २६८ )
आप हम अप्सराओं के साथ मन-इच्छित क्रीड़ायें करते हुए स्वर्ग के सुख को भोगिए ।" रोहिणेय विस्मय के साथ सब कुछ देख रहा था। तभी एक देव-वेषधारी आया, नमस्कार पूर्वक बोला-"स्वर्ग में आपके अवतरण पर वधाई। यहाँ की विधि के अनुसार प्रत्येक नव उत्पन्न देव को सर्वप्रथम अपने पूर्व-जन्म की सुकृत-दुष्कृत की कथा सुनानी पड़ती है। कृपया आप भी हमें बताइये आपने पूर्व-जन्म में क्या-क्या पुण्य किये थे, जिनके प्रभाव से प्राप
हमारे स्वामी बने हैं ?" प्र. ३७६ वेषधारी देवकी बात सुनकर रोहिणेय ने क्या
किया था ? वह अपने सुकृत-दुष्कृत, पुण्य-पाप का स्मरण करने लगा। उसने तो जन्म-भर चोरियाँ की थीं, कभी कोई पुण्य कार्य तो किया नहीं। वह अपने पूर्व जन्म के दुष्कृत अध्याय को शुरू करने ही वाला था कि उसे सहसा भगवान महावीर की वाणी याद आ गई। "देवता के चरण पृथ्वी को नहीं छूते।" उसने
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अपने अपराधों की क्षमा मांगकर वह महावीर
का शिष्य बन गया। प्र. ३८२ म. स्वामी ने २०वां चातुर्मास कहां किया था ? उ. राजगृही में। प्रे. ३८३ म. स्वामी चातुर्मास के बाद कहां पधारे थे ? उ. मिथिला नगर होते हुए काकंदी में। प्र. ३८४ म. स्वामी ने काकंदी में किस को दीक्षा दी थी? उ. धन्य कुमार एवं सुनक्षत्र कुमार को। प्र. ३८५ धन्यकुमार कैसा तप कर रहा था उ. छठु तप और उसके पारणे में आयंबिल ।। प्र. ३८६ म. स्वामी काकंदी से विहार कर कहां
पधारे थे ? उ. कंपिलपुर । प्र. ३८७ म. स्वामी के पास कंपिलपुर में किसने
श्रावक धर्म स्वीकार किया था ? उ. कुडकौलिक ने प्र. ३८८ कुंडकौलिक कौन था ? उ. कंपिलपुर का प्रमुख धनपति था? प्र. ३८६ म. स्वामी कंपिलपुर से कहां पधारे थे ? उ. . पोलासपुर।
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=
1
( २७० )
प्र. ३७८ म. स्वामी के चरणों में जाकर रोहिणेय ने क्या किया था ?
उ.
प्र. ३७९ म. स्वामी के चरणों में रोहिणेय जब पहुंचा तव वहां कौन कौन थे ?
उ.
भगवान के समवसरण में उस समय मगधपति श्र ेणिक, महामंत्री अभयकुमार व विशिष्ट नागरिकगण उपस्थित थे ।
प्र. ३८० श्रेणिक और अभय ने रोहिणेय को देखकर क्या किया था ?
प्रभु के चरणों में जाकर वह आत्म-निन्दा करने लगा। अपने दुष्कृत पर पश्चात्ताप कर उनकी शुद्धिका मार्ग पूछने लगा ।
उ.
उ.
श्रेणिक ने रोहिणेय को गले लगा लिया । अभय ने मित्रता का हाथ बढ़ाया ।
प्र. ३८१ म. स्वामी के समवससरण में रोहिणेय ने क्या
किया था ?
रोहिणेय ने चोरी में लूटे हुए समस्त स्वर्णभंडारों का - गुप्त खजानों का पता बताकर महाराजा श्रेणिक को मगध की जनता का चुराया हुआ समस्त धन वापस कर दिया श्रीर
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। २७१ )
अपने अपराधों की क्षमा मांगकर वह महावीर
का शिष्य बन गया। प्र. ३८२ म. स्वामो ने २०वां चातुर्मास कहां किया था ? उ. राजगृही में। प्रे. ३८३ म. स्वामी चातुर्मास के बाद कहां पधारे थे ? उ. मिथिला नगर होते हुए काकंदी में। प्र. ३८४ म. स्वामी ने काकंदी में किस को दीक्षा दी थी? उ. धन्य कुमार एवं सुनक्षत्र कुमार को। प्र. ३८५ धन्यकुमार कैसा तप कर रहा था उ. छठ तप और उसके पारणे में आयंविल। प्र. ३८६ म. स्वामी काकंदी से विहार कर कहां
पधारे थे ? उ. कंपिलपुर। प्र. ३८७ म. स्वामी के पास कंपिलपुर में किसने
श्रावक धर्म स्वीकार किया था? उ, कुडकौलिक ने प्र. ३८८ कुडकीलिक कौन था ? उ. कंपिलपुर का प्रमुख धनपति था? प्र. ३८६ म. स्वामी कपिलपुर से कहां पधारे थे? उ. पोलासपुर।
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( २७२ )
प्र. ३६० म. स्वामी के दर्शनार्थ कौन आया था ?
उ. सकडालपुत्र ।.
प्र. ३६१ सकडालपुत्र कौन था ?
उ.
पोलासपुर का धनाढ्य गृहस्थ कुंभकार था ।
प्र. ३६२ सकडालपुत्र की पत्नी का नाम क्या था ? अग्निमित्रा |
प्र. ३९३ सकडालपुत्र किसका समर्थक था ?
उ.
आजीवक परंपरा का वह प्रमुख और कट्टर समर्थक था ?
प्र. ३९४ अग्निमित्रा किसकी अनुगामिनी थी ? उ. वह भी आजीवक परंपरा की अनुगामिनी थी । प्र. ३६५ सकडालपुत्र को महावीर के श्रागमन की बात किसने कही थी ? देववाणी हुई थी ।
उ.
प्र. ३६६ देववाणो क्या हुई थी ?
उ.
"सकडालपुत्र ! कल प्रातः सर्वज्ञ, सर्वदशी महाब्राह्मण इस नगर में पधारेंगे, तुम उनकी वंदना-स्तवना-भक्ति करके प्रशन-पान आदि - के लिये उन्हें निमन्त्रित करना ।" ३६७ म. स्वामी ने दर्शनार्थ श्राये सकढालपुत्र को क्या कहा था ?
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( २७३ )
"सकडालपुत्र ! तुम किसी देववाणी से प्रेरित. .
होकर यहाँ आये हो ?" प्र. ३६८ म. स्वामी से सकडालपुत्र ने क्या विनति.
की थी? उ. सकडालपुत्र विनम्रता और श्रद्धा के साथ ।
बोला-"भगवन् ! हाँ ! ऐसा ही है। मैंनेः
आपके दिव्य प्रभाव का साक्षात् अनुभव कियाः . है। आप मेरी भांडशाला में पधारिएं और
शैया-आसन आदि स्वीकार कीजिए।" प्र. ३६६ म. स्वामी ने सकडालपुत्र की विनति पर :
क्या किया था ? सकडालपुत्र के अति आग्रह पर महावीर.
उनकी भांडशाला में पधारे। प्र. ४०० म. स्वामी ने सकडालपुत्र का क्या समाधान :
किया था ? उ. नियतिवाद की असारता और पुरुषार्थ की :
प्रवलता का। प्र. ४०१ म. स्वामी से अपना समाधान पाकर सकडाल
पुत्र ने क्या किया था ? उ. . प्रभु के चरणों में धावकधर्म के व्रतों को.
ग्रहरण कर लिया।
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( २७४ )
प्र. ४०२ पोलासपुर में कौन राज्य करता था ? उ. विजय राजा । प्र. ४०३ विजय राजा की रानी का क्या नाम था ? . उ. श्रीदेवी प्र. ४.४ श्रीदेवी के पुत्र का नाम क्या था ? उ. अतिमुक्तक कुमार । प्र. ४०५ म. स्वामी के उपदेश को सुनकर अतिमुक्तक
ने क्या किया था ? प्रभु के उपदेश से उसका मन प्रबुद्ध हो गया। माता के पास जाकर भगवान का शिष्य बनने की अनुमति मांगी। माता-पिता ने समारोह
के साथ भगवान के पास दीक्षित किया। प्र, ४०६ म. स्वामी ने २१वाँ चातुर्मास कहाँ किया था? उ. वैशाली नगर में। प्र. ४०७ म. स्वामी ने चातुर्मास के बाद किस ओर
विहार किया था ? उ. मगध देश की ओर। प्र. ४०८ म. स्वामी मगध देश में कहां पधारे थे ? - राजगृह में। .प्र. ४०६ म. स्वामी राजगृह में कहाँ विराजे थे ?
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( २७५ ) उ. गुणशील उद्यान में । प्र. ४१० म. स्वामी के वंदनार्थ कौन आया था ? उ. महाशतक श्रावक । प्र. ४११ महाशतक कौन था ? उ. मगध का प्रसिद्ध धनकुवेर गृहस्थ था ? 'प्रे. ४१२ महाशतक के कितनी पत्नियां थी ? उ. १३ ( तेरह) प्र. ४१३ महाशतक की सबसे बड़ी पत्नी का क्या
नाम था ? उ. रेवती। प्र. ४१४ रेवती कैसी थी?
वह अत्यंत भोग-पिपासु, मांस-लोलुप श्रीर ईर्ष्यालु थी। ईर्ष्या एवं तीन कामासक्ती के कारण उसने अपनी १२ सीतों को शास्त्र एवं
विप-प्रयोग से मरवा डाला था। 'प्र. ४१५ म. स्वामी के उपदेश से महाशतक पर पया ... प्रभाव पड़ा था ?
भगवान के उपदेश से महाशतक की अन्तर प्रात्मा जाग उठी, विपयों से विरक्ति हो गई। परिणामस्वरूप महाशतक ने ता ..
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( २७६ ) स्वीकार कर तृष्णा एवं भोग-साधनों की
मर्यादा की। प्रे. ४१६ म. स्वामी के समवसरण में कौन आये थे? उ. भगवान पार्श्वनाथ की परंपरा के स्थविर
मुनिवर। प्र. ४१७ म. स्वामी से पार्श्वपत्य स्थविरों ने किस विषय
में समाधान चाहा था ? उ. लोक के संबंध में । प्र. ४१८ म. स्वामी से समाधान पाकर स्थविर श्रमणों
ने क्या किया था ? उ.
श्रमणों ने विनय पूर्वक वंदना की और बोले"भंते ! हम आपके पास चतुर धर्म के स्थान पर पंचमहाव्रतात्मक सप्रतिक्रमण धर्म स्वीकार
करना चाहते है।" प्र. ४१६ म. स्वामी ने श्रमणों से क्या कहा था। उ. “श्रमणों ! तुम सुखपूर्वक ऐसा कर सकते हो।" प्र. ४२० म. स्वामी की अनुमति पाकर श्रमणों ने क्या
किया था ? प्रभु की अनुमति पाकर सभी पार्श्वपत्य श्रमण महावीर के धर्म संघ में सम्मिलित हो गए।
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( २७७ )
.
प्र. ४२१ म. स्वामी के पास शंका का समाधान करने ।
कौन पाया था ? उ. . रोह अनगार। प्र. ४२२ म. स्वामी ने रोह अनगार का किस विषय में
समाधान किया था ? लोक-अलोक, जीव-अजीव, भवसिद्धिक-अभवसिद्धिक, सिद्धि-असिद्धि. सिद्धि और सिद्ध
आदि के संबंध में समाधान किया। ' भगवान ने दोनों को ही शाश्वतभाव कह कर उनकी
पूर्वापरता का निषेध किया। प्र. ४२३ म. स्वामी से इन्द्रभूति गणधर ने किस विषय
में अपना समाधान किया ? उ. इन्द्रभूति गणधरने प्रभु के चरणों में वंदन कर
विनयपूर्वक लोकस्थिति के सम्बन्ध में प्रश्न
पूछकर अपनी शंका का समाधान किया था ? - प्र. ४२४ म. स्वामी ने २२ वाँ चातुर्मास कहाँ किया था ? उ. राजगृह नगर में। प्र. ४२५ म. स्वामी चातुर्मास के बाद विहार कर. कहाँ
- पधारे थे ? . . . उ. कृतंगला नगरी में।
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( २७८ )
प्र. ४२६ म. स्वामी कृतंगला नगरी में कहाँ विराजे थे ?
उ. छत्रपलाश उद्यान में ।
प्र. ४२७ कृतंगला नगरी के निकट किसका आश्रम था ? गर्दभालि आचार्य का ।
उ.
प्र. ४२८ आश्रम में कौन रहता था ? स्कंदक परिव्राजक
उ.
प्र. ४२६ स्कंदक परिव्राजक कौन था ?
उ.
स्कंदक परिव्राजक गर्दभालि आचार्य का प्रमुख शिष्य था । वह वेद-वेदांग, षष्टि तंत्र, दर्शन शास्त्र आदिका प्रकांड विद्वान था ।
प्र. ४३० स्कंदक परिव्राजक किस गोत्रका था ? उ. कात्यायन गोत्र का ।
प्र. ४३१ स्कंदक परिव्राजक से किसकी भेंट हुई थी ? उ. पिंगलक निर्ग्रन्थ श्रमण की
I
प्र. ४३२ स्कंदक से पिंगलक श्रमण की भेंट कहाँ हुई थी ?
श्रावस्ती नगर में ।
प्र. ४३३ स्कंदक और पिंगलक की ज्ञान चर्चा से क्या
हुआ था ?
दोनों के बीच ज्ञान-चर्चा चली तो पिंगलक
उ.
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( २७६ ) ने स्कंदक से कुछ प्रश्न पूछे। स्कंदक विद्वान था। पर पिंगलक के प्रश्नों का उत्तर नहीं दे सका, वह मौन रहा और उत्तर सोचने
लगा। प्र. ४३४ स्कंदक ने प्रश्नों के समाधान के लिए क्याः
किया था ? उ. वह कृतंगला नगरी के छत्रपलास उद्यान में
आया। प्रभु के चरणों में विनत होकर उसने
अपने प्रश्नों का समाधान चाहा। प्र. ४३५ म. स्वामी के पास स्कंदक ने किस विषय में
समाधान प्राप्त किया था ? उ. . लोक, जीव, सिद्ध, प्रसिद्ध, आदि विपयों में.
समाधान प्राप्त किया था। प्र. ४३६ म. स्वामी से प्रश्नों का समाधान पाकर
स्कंदक ने क्या किया था? उ. स्कंदक ने परिव्राजक का परिवेश त्याग कर
प्रमरण-प्राचार को स्वीकार किया। स्कंदक श्रमण वन गया। उसने ग्यारह मंग-शास्त्रों का अध्ययन किया। भिक्षु की बारह प्रति-. माएँ एवं गुण-रत्न संवत्सर आदि तपकी पाराधन कर उसने समाधि मरण प्राप्त किया।
.
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( २८० )
प्र. ४३७ म, स्वामी कृतंगला से विहार कर कहां
पधारे थे?
श्रावस्ती नगर। प्र. ४३८ म. स्वामी के पास श्रावस्ती में किसने श्रावक
धर्म स्वीकार किया था ? उ. नन्दिनीपिता और सालिहीपिता ने। प्र. ४३६ म. स्वामी ने २३वां चातुर्मास कहां किया था ? उ. वाणिज्यग्राम में । प्र. ४४० म. स्वामी ने चातुर्मास के बाद किस ओर
विहार किया था ? उ. ब्राह्मणकुड की ओर । प्र. ४४१ म. स्वामी ब्राह्मणकुड में कहां विराजे थे ? उ. बहुसाल चैत्य में । प्र. ४४२ म. स्वामी के पास कौन बात करने आया था ? उ. जमालि अनगार । प्र. ४४३ म. स्वामी से जमालि ने क्या कहा था ? उ. "भंते ! यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं अपने
५०० शिष्यों के साथ पृथक् विहार करूं।" । प्र. ४४४ म. स्वामी जमालि की अस्थिर, मानसिक
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( २८१ ) स्थिति से परिचित थे। उन्होंने कुछ भी उत्तर . नहीं दिया। जमालि ने तीन बार अपना
आग्रह दुहराया, पर महावीर मौन रहे। प्र. ४४५ म. स्वामी के मौन रहने पर जमालि ने क्या
किया था? जमालि ने महावीर के मौन के कारण पर चिन्तन नहीं किया। वह भगवान के मौन की स्पष्टत: अवगणना कर अपने ५०० शिष्यों के
साथ स्वतंत्र विचरण करने लगा। प्र. ४४६ जमालि का और किसने अतुगमन किया था ? उ. प्रियदर्शना श्रमणीने । प्र. ४४७ प्रियदर्शना ने उसका अनुगमन क्यों किया था ? उ. जमालि के प्रति अनुरागवश । प्र. ४४८ प्रियदर्शना कितनी श्रमणियों के साथ अलग
. हुई थी? उ. . एक हजार श्रमणियों के साथ । प्र. ४४६ म. स्वामो ब्राह्मण कुण्ड से विहार कर कहाँ
पधारे थे ? २. . बत्सदेश में।
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( २८२ )
प्र. ४५० म. स्वामी वत्सदेश में कहाँ पधारे थे ? उ. कौशंवी नगर में । प्र. ४५१ म. स्वामी के वंदनार्थ कौन-कौन ज्योतिषी
देव आये थे ? प्रभु कौशंबी नगर के बाहर उद्यान में समवसरण में विराजमान थे तब सूर्य-चन्द्र
अपने मूल स्वरूप में प्रभुके वेदनार्थ पाये थे। प्र. ४५१ सूर्य-चन्द्र के प्रकाश से कौन विश्रत हुई थी? उ. साध्वी मृगावती । प. ४५३ विथ त साध्वी मृगावती को किसने डांटा था ?
उ, साध्वी चन्दनबाला ने । _प ४५४ साध्वी मृगावती को चन्दनबाला ने क्यों डांटा ?
साध्वी मृगावती भ. महावीर के पास विराजमान थी, तव सूर्य-चन्द्र अपने प्रकाशित मूल स्वरूप में वंदनार्थ आये थे। उस समय मृगावतीजी दिन है या रात के सम्बन्ध में विश्र त हुई थी। रात्रि में अपने स्थान पर जाते हुए गुरुणी साध्वी चन्दनवाला ने
उन्हें डांटा था । * . ४५५ साध्वी मृगावतीको केवलज्ञान कब पाप्त हुआ था?
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( २८३ )
साध्वी चन्दवाला की प्रताड़ना को समता भाव से सहकर वह ग्रात्म-स्वरूप में रमण करने लगी । परिणामतः केवलज्ञान प्राप्त हो गया ।
प. ४५६ साध्वी चन्दनवाला को केवलज्ञान कब प्राप्त
उ.
उ.
हुआ था ?
रात्रि के समय साध्वी चन्दनवाला विश्राम कर रही थी । उनके हाथ के पास सर्प को देखकर साध्वी मृगावती ने चन्दनबाला को सर्प की जानकारी दी । तव चन्दनवाला ने पूछा- आपको सर्प को जानकारी कैसे हुई ? इसपर मृगावतीजी ने कहा - यापकी कृपा से उस समय साध्वा चन्दनवाला को ज्ञात हुआ कि केवलज्ञान प्राप्त साध्वी मृगावतो जी का अपमान किया था । अतः वे पश्चात्ताप करती हुई ग्रात्म-स्वरूप में रमण करने लगो । भावों की निर्मलता से उन्हें उसी समय केवलज्ञान प्राप्त हो गया ।
प्र. ४५७ म. स्वामा कौशंबी से विहार कर कहाँ
पधारे थे ?
काशी होते हुए मगध देश की ओर ।
उ.
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( २८४ )
प्र. ४५८ म. स्वामी मगध देश में कहाँ पधारे थे ? उ. राजगृह नगर में । प्र. ४५६ राजगृह में इन्द्रभूति ने किसकी चर्चा सुनी थी ? उ. इन्द्रभूति गौतम राजगृह में भिक्षार्थ भ्रमण कर
रहे थे। भिक्षाटन करते हुए उन्होंने पाश्वपित्य स्थविरों और तुगिया नगरी के श्रमणोंपासकों
के बीच हुए प्रश्नोत्तरों चर्चा सुनी। प्र. ४६० इन्द्रभूति ने इस चर्चा में संशय होने पर क्या
किया था ? इन्द्रभूति भिक्षा से लौटकर भगवान महावीर के निकट आये और वंदना पूर्वक उनसे पूछा"भंते ! क्या स्थविरों द्वारा दिये गये उत्तर
सत्य हैं-यथार्थ हैं ?" प्र. ४६१ म. स्वामी ने इन्द्रमूति के संशय का समाधान
कैसे किया था ? उ. "गौतम ! स्थविरोंने जो उत्तर दिये हैं, वे
यथार्थ हैं। वे सम्यग्ज्ञानी हैं। मैं भी इसी
तरह समर्थन करता हूँ।" प्र. ४६२ म. स्वामी ने २४वाँ चातुर्मास कहाँ किया था? उ. राजगृह नगर में ।
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। २८५ )
प्रे. ४६३ म. स्वामी ने चातुर्मास के बाद किस ओर
विहार किया था ? उ. चम्पा नगर की अोर । प्र. ४६४ म. स्वामी चम्पा नगर में कहाँ विराजमान थे?
पूर्णभद्र उद्यान में। प्र. ४६५ म. स्वामी के पास किसने दीक्षा ग्रहण की थी?
राजगही के महाराजा श्रेणिक के पदम, महापद्म आदि १०पौत्रों ने और जिन-पालित
आदि श्रेष्ठियोंने दीक्षा ग्रहण की थी। प्र. ४६६ म. स्वामी के पास किसने श्रावक धर्म स्वीकार
किया था? पालित जैसे बड़े श्रष्ठी ने प्रावक धर्म स्वीकार
4
किया था।
प्रे. ४६७ म. स्वामी चम्पा से विहार कर कहाँ पधारे थे। उ. काकंदो नगर । प्र. ४६८ म. स्वामी ने काकंदी में किसको दीक्षा दी थी? उ. क्षेमक और घृतिधर को।
प्र. ४६६ म. स्वामी ने २५वा चातुर्मास कहां किया था ? ... उ. . मिथिला नगर में । प्र. ४७० म. स्वामी ने चातुर्मास के बाद किस पोर
विहार किया था ?
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उ.
( २८६ ) __ अंगदेश की ओर। प्र. ४७१ म. स्वामी अंगदेश में कहाँ पधारे थे ? उ. चम्पा नगर में। प्र. ४७२ म. स्वामी चम्पानगर पधारे तब किनके बीच
युद्ध चल रहा था ? उ. कुणिक और चेटक राजा के बीच । प्र. ४७३ कुणिक और चेटक का युद्ध कहाँ हुआ था ? उ. वैशाली नगर में । प्र. ४७४ कुणिक और चेटक का युद्ध क्यों हुआ था ? उ. हल्ल-विहल्लकी हार और हाथी को लेकर । प्रे. ४७५ कुणिक और चेटक का युद्ध कितने दिन-तक
चला था।
दस दिन तक । प्र. ४७६ युद्ध में कितना नरसंहार हुआ था ?
युद्ध तो दस दिन तक चला लेकिन सिर्फ दो ही दिनों में दोनों पक्षों के १ करोड ८० लाख
मनुष्य मारे गये। प. ४७७ म. स्वामी के पास चम्पा में किसने दीक्षा
ग्रहण की थी? महाराजा श्रेणिक की १० रानियों ने।
उ.
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________________
a
( २८७ ) प्र. ४७८ महाराजा श्रेणिक की १० रानियोंने दीक्षा
क्यों ग्रहण की थी ? महाराजा श्रेणिककी मृत्यु के बाद जव महायुद्ध में कालकुमार आदि १० राजकुमार मार गये तव वैराग्य आने पर दीक्षा ग्रहण
की थी। प्रे. ४७६ कालकुमार आदि राजकुमार किसके युद्ध में
मारे गये थे? अजात-शत्रु कुणिक और चेटक राजा के बीच वैशाली में महायुद्ध चल रहा था तब ये दस राजकुमार अजातशत्रु कुणिक के पक्ष में सेनापति बन कर दस दिन तक लड़े थे। युद्ध
में लड़ते-लड़ते वे मर गये। प्र. ४८० म. स्वामी ने २६वां चातुर्मान कहां किया था ? उ. चंपानगर में। प्र. ४८१ म. स्वामी चातुर्मास के बाद कहाँ पधारे थे ? ७. वैशाली होते हुए मिथिला नगर में । प्रे. ४८२ म. स्वामी के पास मिथिला में किसने दीक्षा
ली थी? हल्ल-पिहल्ल कुमारों ने।
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( २८८ )
प्र. ४८३ म. स्वामी मिथिला से विहार कर कहाँ
पधारे थे? 3. श्रावस्ती नगर में। प्र. ४८४ म. स्वामी श्रावस्ती में कहाँ विराजे थे?
कोष्ठक उद्यान में। . ४८५ म. स्वामी श्रावस्ती पधारे तब वहां किसका
प्रभाव था?
सौशालकका। 5.४३ गौशासक कौन था? ३. मनोन और प्र न्हावीर का स्वन्दी .
साद शिष्य 5. स. स्वानी उनमें से कौन से
मकी काही
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(२.८६ )
प्र. ४६० गणधर गौतम भिक्षार्थ गये तो उन्होंने क्या
सुना था ? गणधर गौतम ने श्रावस्ती के बाजारों में चर्चा सुनी कि "आजकल श्रावस्ती में दो तीर्थकर.
आये हुए हैं। प्र. ४६१ गौतम गणधर ने प्रभु से क्या पूछा था ? उ, गौतम ने प्रभु के निकट पाकर इस मिथ्या जन.. .. प्रवाद पर टिप्पणी करते हुए भगवान से पूछा
"भंते ! अाजकल श्रावस्ती में दो तीर्थंकरों के विचरण की चर्चा हो रही है, क्या गौशालक
सर्वज्ञ एवं तीर्थकर है ?" प्र. ४६२ म. स्वामी ने इन्द्रभूति से क्या कहा ?
गौतम ! गौशालक अप्टांग निमित्त का ज्ञाता होने से कुछ भविष्य कथन कर सकता है । . उसका हृदय राग-हेप, प्रज्ञान और मोह से कलुपित है, फिर वह जिन व तीर्थकर मोरो हो सकता है ? आज से २४ वर्ष पूर्व वह मेरा शिप्य बनकर रहा था। बस, थोड़ी-सी शक्ति और लब्धि पाकर भाज वह अपने मोतीपंकर बताने लग गया है। गोपालपा का कपन
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( २९० )
सर्वथा मिथ्या प्रलाप है । यह कथन उपस्थित जनता ने सुना और गौशालक के कान तक पहुंचा तो वह बहुत ही क्रोधित हो उठा । अ. ४६३ गौशालक ने क्रोधावेश में आकर क्या किया था ?
उ.
वह क्रोध में आकर अपने स्थान से बाहर निकला । संयोगसे श्रानन्द अणगार भिक्षाचर्या करते हुए उधर से निकले । गोशालक ने श्रानन्द को रोककर कहा - "आनन्द ! जरा ठहर ! अपने धर्माचार्य महावीर से जाकर कह दे कि मुझ से छेड़-छाड़ न करें। उन्हें समझा दे कि मेरे विषय में कुछ भी अनर्गल कहना, साँप को छेड़ना है । यह ठीक नहीं, जा, अपने धर्माचार्य को सावधान कर दे । मैं श्राता हूँ और भी सबकी बुद्धि ठिकाने लगाता हूँ ।
प्र. ४ε४ आनन्द अरणगार ने गौशालक की बात सुनकर क्या किया ?
उ.
गौशालक की क्रोधपूर्णं गर्वोक्ति सुनकर आनंद अरणगार जरा भयभीत हुए और तत्काल प्रभु महावीर के निकट ग्राकर उन्होंने सब बातें
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( २६१ )
कहीं। फिर अानन्द ने पूछा-"भंते ! क्या गौशालक अपने तपस्तेज से किसी को भस्म
कर सकता है ?" प्र. ४६५ म. स्वामी ने आनन्द अरणगार से क्या
कहा था ? उ. "आनन्द ! गौशालक अपनी तेजःशक्ति से
किसी को भी भस्मसात कर सकता है, किन्तु उसकी तेजः शक्ति किसो तीर्थकर को नहीं जला सकती।" "अानन्द ! तुम गौशालक के आगमन की सूचना गौतम आदि मुनिवरों को दे दो। इस समय वह द्वप, मात्सर्य एवं म्लेच्छभाव से अाक्रांत है, वह मुंह से कुछ भी ऊलूलजलूल कह सकता है अतः कोई भी श्रमण उसका प्रतिवाद न करे। प्रोधाविष्ट नर यक्षाविष्ट जैसा होता है, इसलिए, कोई भी श्रमण, गौशालक
के साथ किसी प्रकार की चर्चा-वार्ता न करे।" प्र. ४६६ म.स्वामी के कथन को सुनकर मानन्द अरणगार
ने क्या किया? उ.
भगवान महावीर का सन्देश समस्त मुनि मण्डल तक पहुंचा दिया।
.
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{ २६२ )
प्र. ४६७ म. स्वामी के निकट गौशालक ने आकर क्या
किया ?
गौशालक अपने आजीवक भिक्षु संघ के साथ महावीर के समक्ष उद्धतता पूर्वक आकर खड़ा हो गया। क्षराभर चुप रहकर वह बोला--- "काश्यप ! क्या खूब कहा तुमने भी ! मैं गौशालक मंखलिपुत्र हूँ ? तुम्हारा शिष्य हूं? वाह ! वाह !! कितना अंधेर है ! सर्वज्ञ होकर भी तुम तो कुछ नहीं जानते ! यही है तुम्हारी सर्वज्ञता ? तुम्हारा शिष्य मंखलि गौशालक तो कभीका परलोक सिधार गया है। "गौशालक के इस शरीर में मैं उदायी कुण्डियायन धर्मप्रवर्तक की आत्मा हूँ। मेरा यह सातवां शरीरान्तर प्रवेश है। पर तुम्हें अव तक कुछ पता ही नहीं ! काश्यप ! अब तुम्हें पता चल गया न? मैं गौशालक नहीं, किन्तु गौशालक शरीरधारी उदायी
कुण्डियायन हूँ।" प्र. ४६८ म. स्वामी ने गौशालक से क्या कहा था ? उ. गौशालक को यों निर्लज्जता पूर्वक बकवास
-
.
.
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( २९६ )
करते देखकर महावीर ने कहा-“गौशालक ! जैसे कोई चोर एक-याध ऊन व पटसन के रेशे से, या रूई के छोटे से फूल से अपने को ढककर छिपाने की वाल चेष्टा करता है, वैसो ही यह तुम्हारी आत्म-गोपन की चेष्टा है । तुम वही गौशालक होकर अपने को दूसरा बताने की झूठी कोशिश कर रहे हो। ऐसा करके तुम किसी बुद्धिमान को प्रांखों में धूल
नहीं झोंक सकते।" प्र ४६६ म. स्वामो के सत्य वचन को सुनकर गौशालक
को क्या हुआ? प्रभु महावीर के सत्य वचन को सुनकर गोशालंक नोधोन्मत्त हो गया और बोला-"काश्यप ! मालूम होता है, अब तुम्हारा विनाशकाल निकट या गया है। यह समझ लो कि तुम . दुनिया में रहे हो नहीं ! मृत्युका चक्र तुम्हारे
सिर पर घूमने लग गया है।" प्र. ५०० गौशालक के कर्वाश वचन सुनकर महावीर को
शिष्यों ने क्या किया था ? 3. गौशालक के उग्र और असभ्यतापूर्ण अपमान
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( २६४ )
जनक वचनों को सुनकर महावीर के शक्ति - सम्पन्न शिष्यों को रोष ग्राना स्वाभाविक था । गुरु का अपमान शिष्य के लिए मृत्यु से भी अधिक त्रासदायक होता है । फिर भी महावीर के संकेतानुसार सब श्रमण मौन रहे ।
प्र. ५०१ म. स्वामी के अपमान को किससे नहीं सहा गया था ?
उ.
सर्वानुभूति और सुनक्षत्र अणगार से । प्र. ५०२ सर्वानुभूति अरणगार ने क्या किया ?
उ
सर्वानुभूति अणगार से यह सब नहीं सुना गया और वे बोल पड़े " गोशालक ! कोई व्यक्ति किसी साधु पुरुष से एक भी हितवचन सुन लेता है तो वह उसे वंदन - नमस्कार करता है । भगवान महावीर को तो तुमने अपना गुरु माना था, इन्होंने तुम्हें ज्ञानदान दिया था, तुम ग्राज ऐसे सर्वज्ञ पुरुष की भी निन्दा कर रहे हो ? ऐसे वीतराग भगवान के प्रति तुम्हारा इतना म्लेच्छ भाव और इतना उग्र द्व ेश ! यह तुम्हारे हित में नहीं होगा ।'
27
प्र, ५०३ सर्वानुभूति अरणगार के हित वचनों से गौशा
लक को क्या हुआ था ?
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उ.
( २६५ )
सर्वानुभूति अगरणार के हित वचनों ने गौशा-लक की क्रोधाग्नि में घी का काम किया । " उसने उसी समय तेजोलेश्या का प्रयोग कर सर्वानुभूति अरणगार के शरीर को भस्म कर : दिया, फिर उन्मत्त की भांति प्रलाप करने लगा । यह देखकर सुनक्षत्र अणगार की: सहिष्णुता का बांध भी टूट गया । वे भी सर्वा -- नुभूति अणगार की भांति गोशालक को समझाने लगे । गौशालक ने उन पर भी तेजोलेश्याका प्रयोग कर उन्हें ग्राहत कर डाला । वे भी अंतिम आलोचना कर समाधि-मरण को प्राप्त हुए
प्र. ५०४ म. स्वामी के दो शिष्यों को भस्म कर गौशालक ने तेजोलेश्या का क्या उपयोग किया था ? हिंसा के अवतार भगवान महावीर के सामने ही दो निरपराध मुनियों को भस्म कर देने के वाद भी गौशालक की क्रोधाग्नि शांत नहीं हुई । उसके दुराचरण पर प्रभु ने एक बार : फिर उसे समझाया । पर परिणाम विपरीत
ही रहा। उसने रोष में आकर भगवान'
उ.
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________________
( २६६ )
3
महावीर पर ही अपनी तेजोशक्ति का प्रयोग
कर डाला। "प्र. ५०५ म. स्वामी पर तेजोलेश्या का क्या प्रेभाव
पड़ा? तीर्थकरों पर ऐसी किसी शक्ति का असर नहीं होता। गौशालक द्वारा फेंकी हुई तेजोलेश्या महावीर के शरीर की परिक्रमा करने लगी
और फिर गौशालक के शरीर में प्रविष्ट हो गई। प्र. ५०६ गौशालक की देह में तेजोलेश्या के प्रवेश करने से
क्या हुआ था ? शरीर में तेजोलेश्या के प्रेकोप से गौशालक असह्य पीड़ा का अनुभव करने लगा। दाह शांत करने के लिए वह आम की गुठली बारबार चूसता, बार-बार मदिरापान करता, शरीर पर मिट्टी मिला जल सींचता। इस प्रकार अत्यन्त आकुलता, पीड़ा और असह्य
वेदना के साथ उसका अन्तिम समय बीता । 7. ५०७ गौशालक ने अंतिम समय में क्या किया था ?
गौशालक को अंतिम समय में महावीर के साथ की गई कृतघ्नता, विद्रोह और दो मुनियों की
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( २६७ )
हत्या पर पश्चात्ताप होने लगा। अंतिम क्षणों में उसने अपने शिष्यों के समक्ष-सच्चाई को स्वीकार करलिया-"महावीर जिन हैं, सर्वज्ञ हैं, मैं पाखंडो हूं. पापी हूँ, मैंने तुमको, संसार को व स्वयं को धोखा दिया है। मेरे मरने के वाद मेरी दुर्दशा कर लोगों को फहना-"ढोंगी, श्रमणघातक और गुरुद्रोही गौशालक मर
गया ।" प्र. ५०८ म. स्वामी पर तेजोलेश्या के प्रयोग के कितने
दिन बाद गोशालक की मृत्यु हुई थी। उ. सातवें दिन। प्र. ५०६ म. स्वामी को तेजोलेश्या के प्रभाव से क्या
हुया था ? उ. पित्तज्वर-रक्तातिसार (खूनी दस्त) प्र. ५१. म. स्वामी श्रावस्ती से विहार कर कहाँ
पधारे थे ?
में ढिक ग्राम में। प्र. ५११ म. स्वामी मेंडिक ग्राम में कहां विराजे धे?
सालकोप्टक उद्यान में। प्र. ५१२ म. स्वामी का मगेर पित्तज्यर ने पंसा हो
. गया था?
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( २१८ )
उ. प्रभु महावीर का शरीर पित्तज्वर और खूनी
दस्तों के कारण शिथिल एवं कृश हो गया था। प्र. ५१३ म. स्वामी जब में ढिक ग्राम पधारे तब वहां
कौन साधना कर रहा था ? सिंह अरणगार तप-साधना कर रहे थे। छ?
छटु तप के साथ निरंतर ध्यान करते थे। प्र. ५१४ सिंह अरणगार कहां साधना कर रहे थे ? उ. सालकोष्ठक के निकट मालकाकच्छ में। प्र. ५१५ सिंह अरणगार ने नगरवासियों से क्या बात
सुनी थी ? "भगवान महावीर का शरीर बहुत क्षीण हो रहा है, कहीं गौशालक की भविष्यवाणी सत्य न हो जाय ?' तपस्वी सिंह अरणगार ने जैसे ही लोक-चर्चा सुनी. उनका ध्यान भंग हो
गया, मन खिन्न हो उठा। प्र. ५१६ सिंह अणगार ने लोकचर्चा सुनकर क्या
किया था ? सिंह अरणगार मालकाकच्छ से प्रस्थान कर सालकोष्ठक उद्यान में प्रभु के चरणों में पहुँचे । वे कुछ क्षण तक उदास, स्तब्ध, भ्रांत-से
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. ( २६६ ) भगवान की कृश काया को देखते रहे। फिर वोले-"भगवान् ! वीमारी से पाप कृश हो रहे
हैं, इसे मिटाने का क्या कोई उपाय नहीं है ?" प्र. ५१७ म. स्वामी ने सिंह अरणगार से क्या कहा था ? उ. में ढिय ग्राम में रेवती गाथापत्नी के पास इसकी
औषधि है। उसके पास दो औषधियाँ हैंएक कुम्हड़े से बनी हुई और दूसरी वोजोरे से बनी हुई। पहली औषधी उसने मेरे लिये बनाई है, अतः वह अकल्प्य है , दूसरी औषधि उसने अन्य प्रयोजन से बनाई है, तुम उससे दूसरी (वीजोरेवाली) पोषधि की याचना करो।
वह रोग-निवृत्ति में उपयोगी सिद्ध होगी।" प्र. ५१८ म. स्वामी के संकेतानुसार सिंह अरणगार ने
क्या किया था ? प्रभु के संकेतानुसार सिंह अणगार मेंढिय ग्राम में गये, रेवती से उन्होंने बीजोरापाक को
याचना की। प्र. ५१६ सिंह प्रणगार को बीजोरापाका किराने
दिया था ? उ. रेवती प्राविका ने ।
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________________
( ३०० ) .
प्र. ५२० म. स्वामी को श्रीषधि सेवन से क्या हुआ ?
उ.
भगवान महावीर औषधि सेवन से धीरे-धीरे स्वस्थ हो गए और सुख पूर्वक विहार करने लगे ।
प्र. ५२१ म. स्वामी को पित्तज्वर का प्रकोप कितने समय तक रहा था ?
उ.
छः मास तक ।
प्र. ५२२ म. स्वामी के रोग निवारण के लिए रेवती ने कौनसा कर्म उपार्जन किया था ?
म. स्वामी के रोग निवारण के लिए सिंह
रणगार को निर्दोष शुद्ध प्रहार दान प्रसन्नता पूर्वक देने पर रेवती श्राविका ने तोर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन किया था ।
प्र. ५२३ म. स्वामी ने मेंढिय ग्राम से किस ओर
प्रस्थान किया था ?
चम्पानगर की ओर ।
उ.
उ.
प्र. ५२४ म. स्वामी चम्पा नगर में कहाँ विराजमान थे ? पूर्णभद्र चैत्य में ।
उ.
५२५ म. स्वामी के पास पूर्णभद्र चैत्य में कौन
आया था ?
·
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________________
उ.
जमालि अरणगार ।
उ.
प्र. ५२६ म. स्वामी से जमालि अरणगार ने क्या कहा था ? देवानुप्रिय ! आपके अनेक शिष्य छद्मस्थ हैं, लेकिन केवलज्ञानी नहीं हैं, किन्तु मैं तो सम्पूर्ण केवलज्ञान से युक्त अर्हत्, जिन और केवलज्ञानी हूं।"
प्र. ५२७ जमालि की बात सुनकर गौतम ने क्या कहा था ?
t
उ.
जमाल की आत्म-स्तुतिपरक वाणी सुनकर गणधर गौतम ने प्रतिवाद करते हुए कहा"जमालि ! केवलज्ञान और केवलदर्शन कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जिसे बताना पड़े । केवलज्ञानी कहीं छिपा रहता है ? केवल ज्ञान के दिव्य प्रकाश को अगाध समुद्र, गगन चुबो पर्वत मालाएँ और अंधकार भरी गुफाएँ भी अवरुद्ध नहीं कर सकती हैं । तुम्हें यदि कोई ज्ञान हुआ है तो मेरे प्रश्नों का उत्तर दो । प्र. ५२८ गणधर गौतम ने जमालि से कौन से प्रश्न
1
पूछे थे ?
उ.
लोक शाश्वत है या अशाश्वत ? जीव शाश्वत है या अशाश्वत ?
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________________
( ३०२ )
प्र. ५२६ जमालि ने गौतम के प्रश्नों के क्या उत्तर
दिये थे ? इन्द्रभूति के प्रतिवाद पर जमालि हतप्रभ-सा
देखता रहा। उसे कोई प्रत्युत्तर नहीं सूझा। प्र ५३० म. स्वामीने जमालि से उत्तर न देने पर क्या
कहा था ? "जमालि ! मेरे ऐसे अनेक शिष्य हैं जो छद्मस्थ होते हुए भी इन प्रश्नों का यथार्थ उत्तर दे सकते हैं। तुम केवली होने का दावा करके भी निरुत्तर कैसे हो गये ? क्या केवलज्ञान का अस्तित्व बताने के लिए केवली को अपने मुख से घोषणा करनी पड़ती है ? तुम गलत धारणा एवं अहंकारवश मिथ्या प्ररूपणा करते हो। यह तुम्हारी आत्मा के लिए हितकर
नहीं है। प्र. ५३१ प्रियदर्शना साध्वी श्रावस्ती में कहाँ ठहरी थी ?
जमालि की उपस्थिति में ही प्रियदर्शना साध्वो भगवान के तत्वज्ञ श्रावक ढंक कुम्हार
की भांडशाला में ठहरी थी। । । ५३२ ढंक श्रावक ने साध्वी प्रियदर्शना को प्रतिवोध
देने के लिए उसकी संघाटी ( पछेवड़ी ) के . .
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( ३.३ ) एक कोने पर अग्नि करण रख दिया, संघाटी
जलने लगी। प्र. ५३३ साध्वी प्रियदर्शना ने ढंक श्रावक से क्या
कहा था ? प्रियदर्शना ने जब अपनी संघाटी जलती देखी तो उसने ढंक श्रावक से कहा-"आर्य ! यह
क्या किया ? आपने मेरी संघाटी जला दी ? श्रे. ५३४ ढंक श्रावक ने प्रियदर्शना को क्या प्रत्युत्तर
दिया था ? "आर्ये ? प्राप मिथ्या भाषण क्यों कर रही हैं ? संघाटी अभी जली कहाँ, जलनी शुरू हुई। जलते हुए को जला कहना महावीर का मत है, आपके मत के अनुसार तो सर्वथा
जले हुए को ही 'जला' कहा जा सकता है।" प्र. ५३५ ढंक श्रावक के समाधान से साध्वी प्रियदर्शना
के अन्तश्चक्षु खुल गये। उसे लगा जमालि का कथन युक्तिरहित एवं अव्यावहारिक 'है । .
है। साथ ही वह अनुगमन तत्त्व-चिंतन से .... नहीं, मोहवश कर रही है। प्रियदर्शना की
अन्तरात्मा जागृत हो . उठी। जमालि का
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प्र. ५३६ म. स्वामी ने २७वाँ चातुर्मास कहाँ किया था ? मिथिला नगर में ।
उ.
३०४ /
अनुगमन छोड़ कर भगवान महावीर के साध्वी संघ में अपनी एक हजार साध्वियों के साथ सम्मिलित हो गई। जमालि के अनेक शिष्य भी उसकी धारणा की प्रयथार्थता समझकर उसे छोड़कर पुनः धर्मसंघ में आ गए। किन्तु मिथ्याभिमानी जमालि पूर्वाग्रह एवं मानसिक सक्लेश के कारण महावीर के विरुद्ध ही प्रचार करता रहा ।
प्र. ५३७ म. स्वामी चातुर्मास के बाद कहाँ पधारे थे ? हस्तिनापुर नगरी में |
उ.
प्रे. ५३८ म. स्वामी की आज्ञा से गौतम गणधर कहाँ पधारे थे ?
उ
श्रावस्ती नगर में ।
प्र. ५३६ श्रावस्ती नगर में किसका मिलन हुआ
था ?
9
उ.
पार्श्वनाथ की परम्परा के विद्वान शिष्य केशी श्रमण और महावीर स्वामी के शिष्य गौतम गणधर का मिलन हुग्रा था ।
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________________
( ३०५ )
उ.
प्र. ५४० केशी श्रमण और गौतम गणधर का परिसंवाद
कहाँ हुआ था ? . उ. तिन्दुक उद्यान में । प्र. ५४१ परिसंवाद के अंत में केशी श्रमण ने क्या:
किया था? केशी श्रमरण अपनी जिज्ञासा और शंकाओं: का समाधान पाकर अत्यन्त प्रसन्न हुए ।। श्रद्धा और भावना के साथ उन्होंने गौतम को: वंदना की और महावीर के धर्म-संघ मे, सम्मिलित होने की भावना प्रकट की। गौतम :
ने उन्हें महवीर के संघ में सम्मिलित किया । प्र. ५४२ म. स्वामी श्रावस्ती से विहार कर कहां
पधारे थे ? उ. पांचाल देश-अहिच्छत्रा होते हुए हस्तिनापुरा.
पधारे थे। प्रे. ५४३ म. स्वामी हस्तिनापुर में कहाँ विराजे थे?: , उ. सहस्राम्र वन में। प्र. ५४४ हस्तिनापुर के राजा कौन थे ? उ. . शिव राजा। प्र. ५४५ शिव राजा ने क्या किया था ?
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उ.
( ३०६ ) ___ महाराजा शिव बड़े संतोषी व धर्मप्रेमी थे।
संसार से वैराग्य होने पर राज्य-त्याग कर वे दिशा-प्रोक्षक तापस बन गए और उग्न तप
करने लगे। अ. ५४६ शिव तापस को तपश्चरण के कारण कौन-सा
ज्ञान हो गया था ? उ. विभंगज्ञान। प्र. ५४७ शिव राजषि विभंगज्ञान में क्या जानने लगे थे? उ. शिवराजर्षि विभंगज्ञान से सात समुद्र व सात
द्वीपों तक देखने-जानने लगे। प्र. ५४८ शिवराजर्षि ने विभंग ज्ञान होने के बाद क्या
किया था ? शिवराजर्षि ज्ञान दृष्टि प्राप्त होने पर अपनी तपोभूमि से उठकर हस्तिनापुर गए और वहाँ लोगों से कहने लगे-"संसार भर में सात द्वीप व सात समुद्र ही हैं, बस इतना ही विशाल है-यह विश्व ।" इस तरह अपने नये
सिद्धांत का प्रचार करने लगे । प्र. ५४६ गौतम गणधर ने हस्तिनापुर नगर में क्या
चर्चा सुनी थी ?
a
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________________
( ३०७ )
उ. गौतम गणधर नगर में भिक्षा-चर्या के लिए
गए हुए थे। वहां उन्होंने जनता में सात द्वीप-समुद्र की शिव राजर्षि के नये सिद्धांत के
संबंध में चर्चा सुनी। प्र. ५५० गौतम गणधर ने इस चर्चा को सुनकर क्या
किया था ? उ. गौतम गणधर भिक्षासे लौटकर भगवान के
समीप और आये और उसकी यथार्थता के
विषय में पूछने लगे। प्र. ५५१ म. स्वामी ने गौतम के प्रश्न का क्या समाधान
किया था ? म. स्वामी ने अपनी धर्मसभा में गौतम को संबोधित कर कहा-"गौतम ! शिवराजर्षि का सात द्वीप व सात समुद्र विषयक प्रतिपादन भ्रांतियुग है, इस विश्व में तो जंबुद्वीप आदि असंख्य द्वीप व लवण समुद्र आदि असंख्य
समुद्र हैं ।" यह बात उपस्थित लोगों ने सुनी। अ. ५५२ म. स्वामी की बात सुनकर लोगों ने क्या
किया था ? उ. म. स्वामी की बात जिन लोगों ने सुनी, उनमें
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। ३०८)
से कुछ लोगों ने शिवराजर्षि के पास जाकर कहा-"श्रमण तीर्थकर महावीर का कथन है कि प्रापका सिद्धांत मिथ्या है, विश्व में द्वीप
समुद्र सात नहीं, किन्तु असंख्य है।" प्र. ५५३ शिवराजर्षि ने लोगों की बात सुनकर क्या
किया था? उ.
शिवराजर्षि ने प्रभु महावीर की दिव्य ज्ञानशक्ति के संबंध में कई बार चर्चाएं सुनी थी, वे मानते थे कि महावीर यथार्थभाषी हैं। सचमुच ही महावीर का कथन सत्य होगा; मैं भी उस महापुरुष के निकट जाकर अपनी भ्रांति दूर करूं। वे महावीर की धर्म-सभा में पहुँचे। प्रथम दर्शन में हो श्रद्धाभिभूत होकर त्रि-प्रदक्षिणा के साथ वे एक ओर
वैठ गए। प्र. ५५४ म. स्वामी ने शिवराजर्षि के संशय का निरा
करण कैसे किया था ? सर्वदर्शी प्रभु महावीर ने अपने प्रवचन में ही शिवराजर्षि के समस्त संशयो का निरा
ग कर दिया।
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________________
( ३०६ )
प्र. ५५५ शिवराजर्षी ने संशय निराकरण के बाद क्या
किया था ?
उ.
शिवराजर्षि के अंतरग में संशय निराकरण के साथ सत्य का सहस्ररश्मि उदित हो गया, वे श्रद्धा व संकल्प के साथ खड़े हुए और उन्होंने निग्रन्थ धर्म की दीक्षा स्वीकार कर ली । उनके
-
साथ पोट्टल यादि अनेक व्यक्ति श्रमरण बने थे ।
प्र. ५५६ म. स्वामी ने २८ वां चातुर्मास कहां किया था ? वाणिज्यग्राम में ।
उ.
प्र. ५५७ म. स्वामी चातुर्मास के बाद किस चोर पधारे थे ? मगध देश की ओर ।
उ.
प्र. ५५८ म. स्वामी मगध देश के किस नगर में गये थे ? राजगृही नगर में |
उ.
प्र. ५५६ म. स्वामी राजगृह में कहां विराजे थे ? गुरणशील चैत्य में ।
3.
प्र. ५६० म. स्वामी से किसने अपने प्रश्नों का समाधान
किया था ?
उ.
इन्द्रभूति गौतम गणधर ने ।
प्र. ५६१ म. स्वामी से गौतम ने किस विषय का समाधान किया था ?
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________________
उ.
प्र. ५६२ म. स्वामी ने २१वां चातुर्मास कहां किया था ? राजगृही नगर में ।
उ.
प्र. ५६३ म. स्वामी चातुर्मास के बाद कहां पधारे थे ? पृष्ठचंपा में ।
उ.
1
प्र. ५६४ म. स्वामी की देशना से वैराग्य आने पर किसने दीक्षा ग्रहण की थी ?
पृष्ठचंपा के महाराजा शाल और उनके लघुभ्राता युवराज महाशाल, ने दीक्षा ग्रहण की थी ।
उ.
( ३१० )
भांड़ - प्रभांड़, पत्नी-पत्नी, श्राजीवक, श्रावक के नियम और श्रावक के ४६ भंगो के विषय में समाधान पाया था ।
प्र. ५६५ म. स्वामी पृष्ठचंपा से कहां पधारे थे ? दशार्णपुर नगर में ।
उ.
प्र. ५६६ म. स्वामी के पास भव्य सवारी के साथ वंदन
करने कौन जा रहा था ?
दशार्णभद्र राजा गर्व ( अहंकार ) के साथ प्रभु को वंदन करने जा रहा था ।
प्र. ५६७ दशार्णभद्र राजा का गर्व ( अहंकार ) किसने
भंग कर दिया था ?
इंद्र महाराजने । दशार्णभद्र राजा के गर्व ( श्रहंकार )
3.
વ
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________________
( ३११ )
को भंग करने के लिए स्वयं इन्द्र स्वर्ग से भव्यः सवारी के साथ महावीर को वंदन करने
आया । प्र. ५६८ इंद्र महाराज का गर्व किसने भंग किया था ? उ. दशार्णपुर के महाराजा दशार्णभद्र ने। प्रे ५६९ इंद्र महाराज का गर्व दशार्णभद्र ने कैसे भंग'
किया था ? दशार्णभद्र राजा भव्य सवारी के अहं के साथ प्रभुको वंदन करने आया था । उसका अहं भंग करने के लिये इन्द्र स्वयं उससे अधिक ऐश्वर्य.. पूर्ण सवारी में उपस्थित हुआ । प्रभु के उपदेश द्वारा वैराग्य प्राप्त कर व चारित्र ग्रहण कर
उसने इन्द्र महाराज का गर्व भंग कर दिया था ।। प्र. ५७० म. स्वामी दशार्णपुर से कहां पधारे थे ? उ. विदेह के वाणिज्यग्राम में । प्र. ५७१ म. स्वामी वाणिज्यग्राम में कहां विराजे थे ? उ. ध तिपलाश चैत्य में। ६. ५७२ म. स्वामी के समीप अपने प्रश्नों का समाधान ..., करने कौन आया था ?
सोमिल ब्राह्मण अपने सौ छात्रों के साथ प्रभु . के समीप प्रश्नों का समाधान करने आया था।
.:
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( ३१२ ) 'प्र. ५७३ म. स्वामी से समाधान पाकर सोमिल ने क्या
किया था ? उ. प्रभु से उचित समाधान पाकर सोमिल ब्राह्मण
श्रद्धाशील बन गया और उसने श्रावक-व्रत
अंगीकार किये। 'प्र. ५७४ म. स्वामी ने ३० वा चातुर्मास कहाँ किया था ?
उ. वाणिज्यग्राम में। 'प्र. ५७५ म. स्वामी चातुर्मास के बाद कहाँ पधारे थे ? उ. प्रभु चातुर्मास के बाद कौशल-साकेत-श्रावस्ती
आदि नगरों में होते हुए पांचाल देश पधारे थे। "प्र. ५७६ म. स्वामी पांचाल देश में कहाँ पधारे थे ?
उ. पांचाल देश की राजधानी कांपिल्यपुर नगर में। .प्र. ५७७ म. स्वामी के समक्ष गौतम ने अंबड़ के संबंध में
क्या शंका व्यक्त की थी ? गौतम गणधर ने कांपिल्यपुर में जनता द्वारा अंवड़ परिव्राजक के संबंध में अनेक चमत्कारिक
वातें सुनकर प्रभु के समक्ष शंका व्यक्त की थी। प्र. ५७८ म. स्वामी ने गौतम को अंबड़ के संबंध में
क्या कहा था ? "गौतम ! अंवड़ परिव्राजक विनीत और भद्र
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( ३१३ )
प्रकृति वाला है। वह निरंतर छ? तप का पारणा करते हुए सूर्य के सामने ऊँची भुजाएँ करके अातापना लेता है। दुष्कर तप, शुभ परिणाम और प्रशस्त लेश्याओं के कारण उसे वैक्रिय लब्धि, वीर्य लब्धि और अवधिज्ञान लब्धि प्राप्त हुई है। इन लब्धियों के कारण अंबड़ अपने सौ रूप बनाकर सौ घरों में रहता और भोजन करता हुआ लोगों को आश्चर्यान्वित करता है। वह हरी वनस्पति का छेदन-भेदन तो दूर स्पर्श तक नहीं करता तथा
अर्हन्तों (निर्गन्थों) का अनन्य भक्त है।" प्र. ५७९ म. स्वामी ने ३१ वाँ चातुर्मास कहाँ
किया था ? उ. वैशाली नगर में। प्र. ५८० म. स्वामी चातुर्मास के बाद कहाँ पधारे थे ?
प्रभु चातुर्मास के बाद काशी-कौशल देश होते हुए ग्रीष्म काल में विदेह भूमि पधारे ।' वहां
से प्रभु वाणिज्यग्राम पधारे थे। . प्र. ५८१ म. स्वामी वाणिज्य ग्राम में कहां विराजे थे ?
उ. . ध तिपलाश उद्यान में।
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________________
( ३१४ )
प्र. ५८२ म. स्वामी से किसने प्रश्न पूछकर समाधान प्राप्त किया ?
उ.
पाश्वपत्य गांगेय अरणगार ने ।
प्र. ५८३ म. स्वामी से गांगेय अणगार ने किस प्रकार
के प्रश्न पूछे थे ?
नरक, असुरकुमार, द्वीन्द्रियादि जीव एवं सत्असत् आदि के विषय में काफी विस्तार से प्रश्न पूछे और महाबीर द्वारा समाधान प्राप्त किया ।
4
उ.
प्र. ५८४ म. स्वामी से समाधान पाकर गांगेय अरणगार ने क्या किया था ?
सभी प्रश्नों का यथोचित समाधान पाकर गांगेय अरणगार विनयपूर्वक वंदना कर निकट आये और प्रभु की पंच महाव्रतिक धर्म-परंपरा में प्रविष्ट होने की उनसे स्वीकृति मांगी। प्रभु की अनुमति प्राप्त कर गांगेय अणगार उनके धर्म-संघ में सम्मिलित हो गये ।
प्र. ५८५ म. स्वामी ने ३२वाँ चातुर्मास कहां किया था ? वैशाली नगर में |
3.
3.
प्र. ५८६ म. स्वामी ने चातुर्मास के बाद किस ओर विहार किया था ?
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________________
... ( ३१५ )
उ. मगध देश की ओर। प्र. ५८७ म. स्वामी मगध देश में कहां पधारे थे? . . . . उ. राजगृह नगर में । प्र. ५८८ म. स्वामी राजगह में कहां विराजे थे ? उ. . गुणशील चैत्य में। प्र ५८६ म, स्वामी से शंकाओंका समाधान किसने
प्राप्त किया था ? उ. इन्द्रभूति गौतम गणधर ने | प्र. ५६० म. स्वामी से गौतम ने किन विषयों पर .. - समाधान प्राप्त किया था ?
श्रत, शील, आराधना, आराधक, पुदगल परिणाम, जीव-जीवात्मा और केवलीभाषा के . विषय में अपनी शंकाओं का समाधान प्राप्त
किया था। प्र. ५६१ म स्वामी राजगृह से विहार कर कहां पधारे
थे? . . उ.... वाणिज्यग्राम की ओर । प्र. ५९२ म. स्वामी की आज्ञा से गौतम गणधर ने किस .
को उपदेश दिया था ? .. .. .. . शाल, महाशाल और पृष्ठचंपा के नरेश गांगली
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तथा उनके माता-पिता को उपदेश दिया था। प्र. ५६३ गौतम गणधर के उपदेश का क्या प्रभाव पड़ा?
गौतम गणधर के उपदेश से प्रतिबोध पाकर शाल, महाशाल और पृष्ठचंपा नरेश गांगली अपने माता-पिता के साथ दीक्षित हुए और
केवलज्ञान प्राप्त किया था। प्र. ५६४ म. स्वामी से गौतम गणधर ने क्या प्रश्न
किया था? उ. हे प्रभु ! मुझे केवलज्ञान क्यों नहीं होता ? अ. ५६५ म. स्वामी ने गौतम गणधर से क्या कहा था ? उ. हे गौतम ! तेरा मेरे पर अति मोह और राग
है; उससे । प्र. ५९६ म. स्वामी से गौतम गणधर ने पुनः क्या प्रश्न
किया था ?
हे प्रभु ! मुझे केवलज्ञान होगा कि नहीं। अ. ५६७ म. स्वामी ने गौतम गणधर से क्या कहा था ? उ. हे गौतम ! तुम भी केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष
में जानोगे। प्र. ५९८ म. स्वामी ने ३३ वा चातुर्मास कहां किया था ? उ. राजगृह नगर में।
उ.
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( ३१७ )
प्र. ५६६ म. स्वामी ने चातुर्मास के पश्चात् कहाँ विचरण किया था ?
उ.
प्रभु चातुर्मास के बाद मगध देश में विचरण करते हुए पुनः राजगृह पधारे थे ।
प्र. ६०० म. स्वामी की धर्म सभा में कौन आये थे ? कालोदयी आदि परिव्राजक ।
उ.
उ.
प्र. ६०१ म. स्वामी से कालोदयी ने किस विषय में चर्चा की थी ।
उ.
पंचास्तिकाय के विषय में ।
प्र. ६०२ म. स्वामी से यथार्थ उत्तर पाकर कालोदयी ने क्या किया था ?
विविध प्रश्नों का यथाथ उत्तर पाकर प्रभु के प्रति उसकी श्रद्धा हो गई । कालोदयी दीक्षा लेकर प्रभु का शिष्य वन गया । ११ अंगों का गहन अध्ययन कर तत्त्वज्ञान का कुशल ज्ञाता. बन गया ।
प्र. ६०३ म. स्वामी राजगृह से विहार कर कहाँ
पधारे थे ?
उ.
नालंदा ।
प्र. ६०४ म. स्वामी नालदा में कहाँ विराजे थे ?
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(३१८ )
ti
उ. हस्तियाम उद्यान में । ६०५ हस्तियाम उद्यान किसका था ?
नालंदा के प्रमुख श्रमणोपासक लेव श्रावक
का था। प्रे. ६०६ म. स्वामी के पास कौन आया था ? उ. पाश्वपित्य श्रमण पेढालपुत्र उदक । प्र. ६०७ म. स्वामी से श्रमरण उदक ने क्या कहा था? उ. उदकने प्रभु के पंच महाव्रत धर्म में प्रवेश पाने
को उत्कंठा बताई। प्र. ६०८ म. स्वामी ने उदक की उत्कंठा का क्या उत्तर
___ दिया था ? उ. प्रभुने अनुमति दी। उदक अनुमति पाकर
प्रभु के धर्म-संघ में सम्मलित हो गया। प्र. ६०६ म. स्वामी ने ३४ वा चातुर्मास कहाँ किया
था ?
नालंदा में। प्र. ६१० म. स्वामो चातुर्मास के बाद कहाँ पधारे थे ? उ. विदेह की राजधानी वाणिज्यग्राम में । प्रे. ६११ म. स्वामी के पास वाणिज्यग्राम में किसने
प्रश्न पूछे थे ?
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( ३१६ ) उ. सुदर्शन श्रेष्ठी ने । प्र. ६१२ म. स्वामी के पास सुदर्शन श्रेष्ठी कहाँ
आया था? उ. ध ति-पलास चैत्य में। प्र. ६१३ म. स्वामी से सुदर्शन श्रेष्ठी ने किस विषय में
प्रश्न पूछे थे ? कालके विषय में और अपने पूर्व भव के
संबंध में। प्र. ६१४ म. स्वामी से समाधान पाकर सुदर्शन ने क्या
किया था ? प्रभु से समाधान पाकर अन्त में प्रभु के चरणों
में दीक्षित होकर आत्मकल्याण किया। प्र. ६१५ इन्द्रभूति गणधर ने वाणिज्यग्राम में क्या चर्चा
सुनी थी? प्रभु के श्रावक अानन्द गाथापति के संथारा की चर्चा इन्द्रभूति गणधरने नगर में भिक्षार्थ जाने
पर लोगों द्वारा सुनी। प्र. ६१६ इन्द्रभूति मानन्द से मिलने कहां पर गये थे ? उ.. ज्ञातृकुलकी पौषधशाला में। प्र. ६१७ इन्द्रभूति को देखकर आनन्द ने क्या किया था ?
a
.
..'
..
.
...
..
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( ३२० )
4
इन्द्रभूति गणधर को आते देखकर आनन्द गाथापति प्रसन्न हुआ और वंदना करके बोला"भगवन् ! क्या गृहस्थ को अवधिज्ञान हो
सकता है ? प्र. ६१८ इन्द्रभूति ने आनन्द से क्या कहा था ? उ. ''हाँ गृहस्थ को अवधिज्ञान हो सकता है।" प्र. ६१६ इन्द्रभूति से प्रानन्द ने अवधिज्ञान के संबंध में
क्या कहा था? "भगवान् ! मुझे अवधिज्ञान हुआ है, जिसके द्वारा मैं पूर्व, पश्चिम एवं दक्षिण दिशा में लवण समुद्रके भीतर पांचसो योजन तक, उत्तर दिशामें चुल्ल हिमवंत पर्वत तक, ऊर्ध्वलोक में सौधर्मकल्प तक, तथा अधो दिशा में लोलुपच्चय नामक नरकावास ( रत्नप्रभा ) तक देख
रहा हूँ।' प्र. ६२० इन्द्रभूति ने आनन्द की बात सुनकर क्या
कहा था? उ. "आनन्द ! गृहस्थ को अवधिज्ञान होता तो
अवश्य है, पर इतना दूरग्राही नहीं होता जितना कि तुम बतला. रहे हो। तुम्हारा यह
TITION
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( ३२१ )
कथन भ्रांत प्रतीत होता है, अतः तुम्हें अपने मिथ्या कथन का आलोचना पूर्वक प्रायश्चित्त करना चाहिए ।"
प्र. ६२१ इन्द्रभूति का कथन सुनकर आनन्द ने क्या कहा था ?
आनन्द ने विनय किन्तु दृढ़ता के साथ उत्तर दिया - "भगवान् ! क्या निग्रंथ शासन में सत्य कथन करने पर भी प्रायश्चित्त करना चाहिए ?" मैंने जो कुछ कहा है, वह यथार्थ है, सत्य है, आप उसे मिथ्या कथन बता रहे हैं तो यह प्रायश्चित्त मुझे नहीं, आपको करना चाहिए ।"
प्र. ६२२ इन्द्रभूति ने आनन्द की बात पर संशय होने पर क्या किया था ?
उ.
आनन्द को दृढ़ता पूर्वक कही गई बात से इन्द्रभूति का मन संशयग्रस्त हो गया, वे सीधे द्यति पलास चैत्य में आए, प्रभु के समीप जाकर आनन्द के साथ हुए वार्तालाप की चर्चा की। प्र. ६२३ म. स्वामी ने इन्द्रभूति का क्या समाधान
किया था ?
उ.
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________________
( ३२२ )
"गौतम ! भमणोपासक आनन्द का कथन सत्य है। तुमने उसके सत्य को असत्य कहा है-यह सत्य की बहुत बड़ी अवहेलना है । तुम शीघ्र आनन्द के पास वापस . जाओ! उससे क्षमा माँगो और अपने भ्रांत कथन के
लिए प्रायश्चित्त करो।" प्र. ६२४ म. स्वामी से सत्य कथन सुनकर इन्द्रभूति
गणधर ने क्या किया? सत्य के परम जिज्ञासु इन्द्रभूति उल्टे पांवों भानन्द के निकट आये । आनन्द ! मैंने तुम्हारे सत्य ज्ञान की अवहेलना की है मैं तुमसे क्षमा मांगता हूँ। तुम्हारा कथन सत्य है, मेरी
ही धारणा भ्रांत थी।" 'प्र. ६२५ म. स्वामी ने ३५वां चातुर्मास कहाँ किया था ? "उ. वैशाली नगर में। प्रे. ६२६ म. स्वामी चातुर्मास के बाद कहाँ पधारे थे ? उ. कौशल भूमि के साकेत नगर में। 'प्र. ६२७ म. स्वामी के पास मूल्यवान रत्न लेने कौन
आया था? उ. किरातराज ।
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aa
( ३२३ ) प्र. ५२८ किरातराज कौन था ? उ. कोटिवर्ष नगर का शासक था। . प्र. ६२६ कोटिवर्ष किस देश की राजधानी थी ? उ. राढ देश की। प्र. ६३० किरातराज साकेत नगर कैसे आया था ?
साकेत नगर का सार्थवाह जिनदेव व्यापार-- यात्रा करता हुआ कोटिवर्ष नगर गया था । अपने देश के बहुमूल्य वस्त्र-मणि-इत्यादि का उपहार लेकर किरातराज से मिला। सुन्दर उपहार से किरातराज प्रसन्न हुआ। रत्नादि सुन्दर वस्तुओं के संबंध में जिनदेव से चर्चा हुई और किरातराज साकेत नगर
आया। प्र. ६३१ जिनदेव कौन था? उ. जिनदेव महावीर का तत्वज्ञ श्रावक था। प्र. ६३२ म. स्वामी ने किरातराज को संबोधित कर क्या
उपदेश दिया था ? भाव रत्न-ज्ञान, दर्शन और चारित्र के संबंध
में विस्तार से. प्रकाश डालकर सुनाया था। प्र. ६३३ म. स्वामी के उपदेश को सुनकर किरातराज
में क्या परिवर्तन आया था ?
.
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( ३२४ ) प्रेभु के उपदेश को सुनकर किरातराज संतुष्ट हुआ। उस के संस्कार बदल गये, जड़ रत्नों की खोज करते-करते उसे दिव्य रत्न मिल. . गये । प्रतिबुद्ध हो प्रभु के पास से भाव-रत्नों की भिक्षा मांगी और वह श्रमण धर्म में प्रवजित ..
हो गया। प्र. ६३४ म. स्वामी साकेत नगर से कहां पधारे थे?
पांचालदेश, कंपिलपुर, सुरसेनदेश-मथुरा, सारीपुर, नन्दीपुर आदि नगरों में होते हुए .
विदेहदेश पधारे थे। प्र. ६३५ म. स्वामीने ३६वाँ चातुर्मास कहाँ किया था ? उ. मिथिला नगर में । प्र. ६३६ म. स्वामी चातुर्मास बाद कहाँ पधारे थे ? उ. अंगदेश-चम्पापुरी में। प्र. ६३७ म. स्वामी चम्पापुरी से विहार कर कहाँ
पधारे थे ? उ. मगध देश-राजगह में। प्र. ६३८ म. स्वामी राजगह में कहाँ विराजे थे ? उ. गुरगशील चैत्य में। . . . प्र. ६३६ म. स्वामी की उपस्थिति में राजगृह में मोक्ष
कौन गया था? ..
३
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________________
( ३२५ )
उ. प्रभास गणधर । प्र. ६४० म. स्वामी ने ३७वाँ चातुर्मास कहाँ किया था ? उ. राजगृह में। प्र. ६४१ म. स्वामी ने चातुर्मास के बाद किस ओर
विचरण किया था? उ.
मगध देश में विचरण करते हुए पुनः राजगृह
पधारे थे। प्र. ६४२ म. स्वामी की उपस्थिति में राजगृही में मोक्ष
कौन गया था ?
अचल भ्राता और मेतार्य गणधर । प्र. ६४३ म. स्वामी ने ३८वां चातुर्मास कहाँ किया था? उ नालंदा में। प्र. ६४४ म. स्वामी चातुर्मास के बाद कहाँ पधारे थे ? उ. मिथिला नगर। प्र. ६४५ म. स्वामी ने मिथिला में कौन से शास्त्र की
प्ररूपणा की थी? उ. सूर्यप्रज्ञप्ति आगम की। प्र. ६४६ म. स्वामी ने ३६वां चातुर्मास कहाँ किया था ? उ. मिथिला नगर में । प्र. ६४७ म. स्वामी चातुर्मास में कहाँ विराजमान थे ?
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( ३२६ )
....
उ. मणिभद्र चैत्य में। प्र. ६४८ म. स्वामी के वंदनार्थ कौन आया था ? .. उ. जितशत्रु राजा प्रभुके वंदनार्थ आया और
देशना सुनी। प्र. ६४६ म. स्वामी ने ४०वाँ चातुर्मास कहाँ किया था ? उ. मिथिला नगर । प्र. ६५० म. स्वामी ने चातुर्मास के बाद किस ओर
विहार किया था ? उ. मगध देश की ओर। ... प्र. ६५१ म. स्वामी मगध देश में कहाँ पधारे थे ? उ. राजगृह नगर । प्र ६५२ म. स्वामी राजगृह नगर में कहाँ विराजे थे ? उ. गुणशील चैत्य में। प्र. ६५३ म. स्वामी की उपस्थिति में राजगृह में मोक्ष
कौन गया था । .. उ. अग्निभूति और वायुभूति गणधर।। प्र. ६५४ म. स्वामी ने ४१वां चातुर्मास कहाँ किया था ? उ. राजगृह नगर में । प्र. ६५५ म. स्वामी की उपस्थिति में चातुर्मास के बाद
__ कौन मोक्ष गये थे? ..
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________________
( ३२७ )
अव्यक्तजी, मंडितजी अंकपितजी और मौर्य-
पुत्र गणधर ।
प्र. ६५६ म. स्वामी ने ४२वाँ चातुर्मास कहाँ किया था ? पावापुरी (आपापापुरी) में |
उ.
प्र. ६५७ म. स्वामी ने चातुर्मास कहाँ किया था ? रज्जुग सभा में ।
उ.
प्र. ६५८ रज्जुग सभा किसकी थी ?
उ.
अपापापुरी के राजा हस्तिपाल की ।
प्र. ६५६ म स्वामी के पास कौन प्रश्न पूछने आया था ? ' पुण्यपाल ने प्रभु से आठ स्वप्न का फल पूछा था
उ.
प्र. ६६० म. स्वामी से स्वप्न फल जानकर राजा ने क्या किया था ?
.3.
प्रभु से स्वप्नफल विस्तार से जानकर राजा ने दीक्षा ले ली ।
प्र. ६६१ म. स्वामी ने अंतिम देशना कब दी थी ?
उ.
आश्विन कृष्णा - १४ और अमावस्या के दिन | प्र. ६६२ म. स्वामी ने अंतिम देशना कितने प्रहर दी थी ? अखंड १६ प्रहर (४८ घंटे) तक ।
उ.
प्र. ६६३ म. स्वामी की देशना के समय समवसरण में - धरण करने कितने तरह की आती है ?
परिषदा :
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( ३२८ ) उ. बारह तरह की । प्र. ६६४ बारह तरह की परिषदा कौन-कौनसी होती है ?
भवनपति, वाणव्यतर, ज्योतिषी और वैमानिक यह चार प्रकार के देव और. देवियां,
मनुष्य और मानुषी, तिर्यंच और तिर्यचरणी । प्र. ६६५ म. स्वामी की अंतिम देशना में कितने
राजा उपस्थित थे ? उ. काशी-कौशल के १८ गणराजा । प्र. ६६६ म. स्वामी की अंतिम देशना में कौन-कौन
से राजा थे? उ.
ह मल्ली राजा और : लिच्छवी राजा। प्र. ६६७ म. स्वामी ने अंतिम देशना में कौन-कौन से
शास्त्र की प्ररूपणा की थी? उ. विपाक सूत्र (सुख विपाक-दुःख विपाक) और
उत्तराध्ययन सूत्र। प्र. ६६८ म. स्वामी ने अंतिम देशना में कितने अध्ययन
फरमाये थे?. विपाक सूत्र के ११० और उत्तराध्ययन सूत्र के ३६ । ३७वाँ प्रधान नामक मरुदेवी का अध्ययन कहते-कहते पयंकासन स्थित हुए।
4.
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________________
( ३२६ )
प्र. ६६६ म. स्वामी के समय में कितने अभवी
उ.
माठ ।
प्र. ६७० म. स्वामी की उपस्थिति में कितने गणधर
मोक्ष पधारे थे ?
उ.
ܡ
हुए
नव ।
प्र. ६७१ म. स्वामी की उपस्थिति में कौन-कौन से गणधर मोक्ष गये थे ?
उ.
थे ?
अग्निभूति वायुभूति व्यक्तजी, अंकपितजी मैतार्यजी, प्रभासजी, अचल भ्राता, मौर्यपुत्र मंडितजी ।
प्र. ६७२ म. स्वामी की उपस्थिति में कितनी स्त्रियोंने तीथंकर नामकर्म उपार्जन किया था ? दो स्त्रियों ने ।
उ.
प्र. ६७३ म. स्वामी की उपस्थिति में कौन-कौन सी स्त्रियोंने तीर्थंकर नामकर्म उपार्जन किया था ? सुलसा और रेवती ने ।
उ.
प्र. ६७४ म. स्वामी ने केवलज्ञान के बाद प्रथम चातुर्मास
कहां किया था ?
उ.
राजगृह नगर में ।
प्र. ६७५ म. स्वामी ने सबसे अधिक चातुर्माम कहां किये थे ?
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________________
उ.
राजगृह नगर में ।
प्र. ६७६ म. स्वामी ने केवलज्ञान के पूर्व कितने चातु
मसि किये थे ?
( ३३० )
उ.
बारह |
प्र. ६७७ म. स्वामी ने केवलज्ञान के पूर्व कहां-कहां चातुर्मास किये थे ?
उ.
(१) अस्थिक, (२) राजगृह, ( नालन्दा ) (३) चंपा, (४) पृष्ठ चंपा, (५) भद्रिका, (६) भद्रिका, (७) आलंभिका, (८) राजगृह, ( ६ ) अनार्यदेश, (१०) श्रावस्ति. (११) वैशाली (१२) चंपा |
प्र. ६७८ म स्वामी ने केवलज्ञान के बाद कितने चातुर्मास किये थे ?
उ.
उ.
तीस ।
प्र. ६७६ म. स्वामी ने केवलज्ञान के बाद कहां-कहां चातुर्मास किये थे ?
(१) राजगृह, (२) वैशाली (३) वाणिज्यग्राम, (४) राजगृह, (५) वाणिज्यग्राम, (६) राजगृह (७) राजगृह, (८) वैशाली, (६) वाणिज्यग्राम (१०) राजगृह, (११) वाणिज्यग्राम, (१२) राज
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________________
.4
( ३३१ ) गृह, (१३) राजगृह, (१४) चंपा, (१५) मिथिला (१६) वाणिज्यग्राम, (१७) राजगृह, (१८) वाणिज्य ग्राम, (१६) वैशाली, (२०) वैशाली, (२१) राजगृह, (२२) नालंदा, (२३) वैशाली, (२४) मिथिला, (२५) राजगृह, २६) नालंदा, (२७( मिथिला, (२८) मिथिला, (२९) राजगृह,
(३०) अपापापुरी। प्रे ६८० म. स्वामी ने चारित्र पर्याय में कुल कितने
चातुर्मास किये थे? उ. १२ + ३० = ४२ चातुर्मास । प्र. ६८१ म. स्वामी के केवलज्ञान के बाद प्रथम शिष्य
कौन हुए थे ? उ. इग्द्रभूति गौतम । प्र ६८२ म. स्वामी के कितने गणधर थे ? . उ. - ११ ग्यारह । प्र..६८३ म. स्वामी के केवली साधु कितने थे ? उ. ७०० ( सात सो) । प्र. ६८४ म. स्वामी के मनःपर्ययज्ञानी साधु कितने थे ? उ. ५०० ( पांच सो) । प्र. ६८५ म. स्वामी के अवधिज्ञानी साधु कितने थे ?
4
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( ३३२ ) उ. १३०० (तेरह सो) । प्र. ६८६ म. स्वामी के चौदह पूर्वधर साधु कितने थे ? उ. ३०० (तीन सो)। प्र. ६८७ म. स्वामी के वैक्रिय लब्धिवंत साधु कितने थे ? उ. ७०० ( सात सो)। प्र. ६८८ म स्वामी के चर्चावादी साधु कितने थे ? उ. ४०० (चार सो) । प्र.६८९ म स्वामी के श्रमण कितने थे ? उ. १४,००० ( चौदह हजार ) । प्र. ६६० म. स्वामी की कितनी श्रमरणयां थी? उ. ३६,००० ( छत्तीस हजार )। प्र. ६६१ म. स्वामी के श्रावक कितने थे ? उ. १,५६००० ( एक लाख उन्साठ हजार )
बारह व्रतधारी (बाकी विना व्रत के लाखों
श्रावक थे)। प्र. ६६२ म. स्वामी को श्राविकाएँ कितने थीं ?
३,१८,... ( तीन लाख अठारह हजार) बारह व्रतधारी (बाकी विना व्रतकी लाखों
श्राविकाएं थी)। प्र. ६६३ म. स्वामी के कितने प्रमण मोक्ष गये थे?
।
4
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( ३३३ ) उ. ७०० ( सात सो) । प्र. ६६४ म. स्वामी की कितनी श्रमरिणयाँ मोक्ष गई थीं ? उ. १४०० (चौदह सो ) प्र. ६६५ म. स्वामी के कितने श्रमण अनुत्तर विमान
में देव हुए थे? . उ. ८०० ( आठ सो) प्र. ६६६ म. स्वामी के शासन देव कौन थे? उ. मातंगदेव । प्र. ६९७ म. स्वामी की शासन देवी कौन थी ? उ. सिद्धायिका। प्र. ६९८ म. स्वामी के प्रमुख श्रमण कौन थे? उ. इन्द्रभूति गौतम । प्र. ६६६ म. स्वामी की प्रमुख श्रमरणी कौन थी ?
चंदनबाला। प्र. ७०० म. स्वामी के प्रमुख श्रावक कौन थे ? उ. शंख और शतक श्रावक । प्र. ७०१ म स्वामी की प्रमुख श्राविका कौन थी ? उ. सुलसा और रेवती श्राविका । प्रे. ७०२ म. स्वामी के भक्त राजाओं में प्रधान भक्त राजा
कौन था ?
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લ
उ. मगधेश्वर श्रोणिक । प्र. ७०३ म. स्वामी के कितने भक्त राजाओं ने संयम
लिया था ? उ. १३ ( तेरह ) प्र. ७०४ म. स्वामी के कौन-कौन से भक्त राजाओं ने
संयम लिया था ? (१) अलकख, (२) उदायरण, (३) गांगली, (४) दधिवाहन, (५) दशार्णभद्र, (६) प्रसन्नचंद्र {७) वीरकृष्णमित्र, (८) वीरयश (8) साल, (१०) महासाल, (११) सेय, (१२। संजय,
(१३) हस्तिपाल। प्र. ७०५ म. स्वामी के कितने भक्त राजा श्रमणोपासक
थे? उ. ४ ( चार )। प्र. ७०६ म. स्वामी के कौन-कौन भक्त राजा श्रमणो
पासक थे? उ. (१) कुणिक (२) चंडप्रद्योत (३) चेटक
(४) प्रदेशी। प्रे. ७०७ म. स्वामी के कितने भक्त राजा प्रत्येक बुद्ध थे ? उ. ४ (चार)।
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( ३३५ ) प्र. ७०८ म. स्वामी के कौन-कौन से भक्त राजा प्रत्येक
बुद्ध थे? उ. (१) करकंड्ड (२) द्विमुख (३) नमिराजर्षि
(४) नग्गाति । प्र. ७०६ म. स्वामी के कितने भक्त राजा थे?
४६ ( उन्पचास ) इनके अतिरिक्त वैशाली गणराज्य के सलाहकार के रूप में नियुक्त हुए काशी-कौशल प्रदेश के नव मल्ली राजा और नव लिच्छवी राजा मिलकर १८ गण राजा और वीरंगय, ऐणेयक आदि अनेक भक्त
राजा थे। प्रे. ७१० म. स्वामी के भक्त राजाओं के नाम क्या .
थे? वे किस देश के राजा थे?
राजा का नाम १ अदीनशत्रु '२ अप्रतिहत
३ अर्जुन ४ अलकख '५. उदयन
देश-नगरी हस्तिशीर्ष सौगंधिका सुघोष वाराणसी .कौशंबी
.
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६ उद्रायण ७ कनकध्वज ८ करकडू ६ कुरिणक १० गांगली ११ चंडप्रद्योत १२ चेटक १३ जितशत् १४ दत्त १५ दधिवाहन १६ दशार्णभद्र १७ द्विमुख १८ धनावह १६ नमिराजर्षि २० नग्गाति २१ नंदीवर्धन २२ पुण्यपाल २३ प्रदेशी २४ प्रेसन्नचंद्र २५ प्रियचंद्र
सिंधु-सौवीर तेतलीपुर कांचनपुर मगध पृष्ठचंपा उज्जैयनी वैशाली नवनगरी चंपानगरी चंपा दशार्णपुर कांपिल्य
ऋषभपुर
मिथिला
गांधार देश क्षत्रियकुण्ड
श्वेतांविका पोतनपुर कनकपुर
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। ३३७ )
राजा का नाम २६ बल २७ महाचन्द्र २८ महाचन्द्र २६ मित्र ३० मित्रनंदी ३१ वासवदत्त ३२ विजय ३३ विजय ३४ विजय मित्र ३५ वीरकृष्णमित्र ३६ वीर यश ३७ वैश्रमणदत्त ३८ शतानिक ३९ शंख ४० शिवराजर्षि ४१ शोरिकदत्त ४२ श्रीदाम ४३ श्रेणिक ४४ साल
देश नगरी महापुर सारंजणी पुरिमताल वाणिज्यग्राम. साकेतपुर विजयपुर पोलासपुर मृगाग्राम वर्धमानपुर. वीरपुर
रोहितक कौशंबी मथुरा हस्तिनापुर शोरिकपुर मथुरा मगध पृष्ठचंपा
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( ३३८ )
राजा का नाम ४५ महासाल ४६ सिद्धार्थ
देश-नगरी
पृष्ठचंपा
४७ सेय
"४८ संजय ४६ हस्तिपाल
पाटलीखंड आमलकल्पा
कपिलपुर
अपापापुरो
० स्वच्छन्द रहकर इच्छानुसार उपद्रव करने वाले
इन्द्रिय-रूप हाथियों को विज्ञान-रूपो रस्सी द्वारा - शील-रूप वृक्ष से बाँध दो ताकि महावत को अपने
गंतव्य तक पहुंचने में कोई संदेह न रहे। ७ योगी इन्द्रिय-रूप सर्पराज के विष को, शान्त करने ___के लिए सर्वश्रेष्ठ ध्वनि-समूह ॐ का स्मरण करता है।
• जिस योगी ने इन्द्रिय-रूप सिहों को सम्यग्ज्ञान-की__ रस्सी से बाँध कर वैराग्य-रूपी पिंजरे में फेंक दिया
है, उसका पुरुषार्थ अप्रतिम है। जिसका शील-रूप वृक्ष इन्द्रिय-रूप हाथियों द्वारा ध्वस्त नहीं हुआ है, उसके हृदय में निर्मल ज्ञान का प्रकाश निरन्तर व्याप्त है।
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निर्वाण पर्याय
श. १ म. स्वामी का निर्वाण-स्थान क्या था ? उ. पावापुरी। प्र. २ म स्वामी का निर्वाण किस मिति को हुआ था? उ. पाश्विन कृष्णा अमावस्या के दिन । प्र. ३ म. स्वामी के निर्वाण के समय कौनसा नक्षत्र
था ? उ. स्वाति नक्षत्र। प्र. ४ म स्वामी के निर्वाण के समय कौनसी राशि
थी? उ. तुलाराशि। ५ म. स्वामी के निर्वाण के समय कौन-सा
संवत्सर चलता था ? उ. चन्द्र नामक द्वितीय संवत्सर । प्र. ६ म. स्वामी मोक्ष में गये उस महिने का क्या
नाम था ?
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उ.
-
( ३४० ) उ. प्रतिवर्द्धन ( शास्त्रीय नाम ) प्र. ७ म. स्वामी मोक्ष में गये उस पक्ष का नाम क्या
था? उ. नन्दीवर्द्धन ( शास्त्रीय नाम )। प्र. ८ म. स्वामी मोक्ष में गये उस दिन का नाम
क्या था ?
अग्निवैश्य या उपशम ( शास्त्रीय नाम)। प्र. ४ म. स्वामी मोक्ष में गये उस रात्रि का नाम
क्या था ।
देवानन्दा या निरति (शास्त्रीय नाम ) प्र. १० म. स्वामी के मोक्ष के समय कौनसा लव था? उ. अर्च ( शास्त्रीय नाम)। प्रे. ११ म. स्वामी के मोक्ष के समय कौनसा प्राण था? उ. मुहूर्त (शास्त्रीय नाम ) प्र. १२ म. स्वामी के मोक्ष के समय कौनसा स्तोक था? उ. सिद्ध (शास्त्रीय नाम ) प्र. १३ म. स्वामी के मोक्ष के समय कौनसा करण था? उ. नाग नामक तीसरा करण (शास्त्रीय नाम)। प्र. १४ म. स्वामी के मोक्ष के समय कौनसा मुहूर्त था? उ. सर्वार्थसिद्ध ( शास्त्रीय नाम )
उ.
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________________
( ३४१ )
प्र. १५ म. स्वामी के मोक्ष समय का स्थान क्या था ? हस्तिपाल राजा की रज्जुग सभा ।
उ.
१६ म. स्वामी किस श्रासन में मोक्ष पधारे थे ?
पद्मासन में ।
ST.
उ
प्र. १७ म. स्वामी को निर्वाण के समय कौनसा
तप था ?
उ.
- छ्ट्ट तप ।
प्र. १५ म. स्वामो किस समय मोक्ष पधारे थे ?
उ.
अर्धरात्रिको ।
प्र. १६ म. स्वामी कितनों के साथ मोक्ष पधारे थे ?
*
उ.
अकेले ही
प्र. २० म. स्वामी कितनी उम्र में मोक्ष पधारे थे ? ७२ वर्ष की ।
प्र. २१ म. स्वामी के निर्वाण के समय कितने देश के राजा उपस्थित थे ? १८ देश के ।
उ.
प्र. २२ म. स्वामी के निर्वारण के समय कौन-कौन से . राजा उपस्थित थे ?
उ.
नव मल्लवी और नव लिच्छवी ।
प्र. २३ म. स्वामी ने प्रघाती कर्म का क्षय कब किया था ? -
पं
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( ३४२ )
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उ. महानिर्वाण पद को प्राप्त कर सिद्धशिला पर
परम ज्योति में ज्योति मिलाई तब । प्र. २४ म. स्वामी ने कितने अघाती कर्मों का क्षय
किया था? उ. चार । प्र. २५ म. स्वामी ने कौन २ से अघाती कर्मों का क्षय
किया था? उ. वेदनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र । प्र. २६ म. स्वामी कौनसे आरे में मोक्ष पधारे थे ? उ. चतुर्थ आरे के अन्त में। प्र. २७ म. स्वामी मोक्ष पधारे तब चतुर्थ आरा कितना
वाकी था? उ. ३ वर्ष ८ माह। प्र. २८ म. स्वामी के शासन में मोक्ष जाने का प्रारंभ
कब हुआ था ? म. स्वामी को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई उसके
चार वर्ष वाद। प्र. २६ म. स्वामी के निर्वाण के बाद कहाँ तक मोक्ष
में जाने का मार्ग खुला रहा ? ' तीन पाट तक ( तीन शिष्य-प्रशिष्य तक )।
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( ३४३ ) प्र. ३० म. स्वामी मोक्ष में गये तब उनके अशरीरी
प्रात्माकी अवगाहना कितनी थी? . उ. ४-२/३ हाथ की। प्र. ३२ म. स्वामी ने अपने निर्वाण के समय गौतमः . . स्वामी को क्यों दूर भेज दिया था ?
गौतम स्वामी का महावीर पर अथाह प्रेम था,. जिसके कारण उनको केवलज्ञान की प्राप्ति में अवरोध होता था। मोहपाश से छुड़ाने की दृष्टि से अन्त समय में महावीर स्वामी ने
गौतम स्वामी को अपने से दूर भेज दिया था। प्र. ३२ म. स्वामी ने गौतम स्वामी को कहाँ भेजा था ?' उ. अपापापुरी के निकट ग्राम में। प्र. ३३ म. स्वामी ने गौतम स्वामी को वहाँ क्यों:
भेजा था ? . . उ. देवशर्मा को प्रतिबोध देने के लिए। प्र. ३४ देवशर्मा कौन था ? उ. . मोक्षस्मार्ग का पथिक और सत्य को ग्रहणः
करने वाला ब्राह्मण था। प्रे. ३५ म. स्वामी के निर्वाण के समय किसका प्रासन
कंपित हुआ था ?
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देवलोक में देवराज इन्द्र का। प्रे. ३६ म. स्वामी के चरणों में देवेन्द्र ने क्या अनुरोध
किया था ? "भगवन् ! आपके गर्भ, जन्म, दीक्षा और केवलज्ञान के समय हस्तोत्तरा नक्षत्र था, इस समय उसमें भस्मग्रह संक्रांत होनेवाला है। यह नक्षत्र दो हजार वर्ष तक आपके धर्मसंघ के प्रभाव को क्षीण करता रहेगा, अतः यह जब तक आपके जन्म नक्षत्र में संक्रमण कर रहा
है, आप अपने प्रायुष्य बलको स्थिर रखिए। 'प्र. ३७ म. स्वामी ने देवेन्द्र से क्या कहा था ?" उ. "शुक्र ! आयुष्य कभी बढ़ाया नहीं जा सकता।
काल-प्रभाव से जो कुछ होना है, उसे कौन
रोक सकता है ?" 'प्र. ३८ म. स्वामी के सिद्धांतों की रचना किसने की थी? उ. गणधरों ने। ३९ म. स्वामी के गहस्थावस्था का समय
कितना था ? उ. ३० वर्ष । 'प्र. ४० म. स्वामी की दीक्षा पर्याय का समय कितना
था?
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( ३४५ )
उ. ४२ वर्ष । 'प्रे. ४१ म. स्वामी की दीक्षा-पर्याय में छमावस्था
का समय कितना था ?
१२ वर्ष ६ मास १५ दिन । ४२ म. स्वामी की दीक्षा पर्याय में केवलज्ञान
अवस्था का समय कितना था ? .. उ. २६ वर्ष ५ मास १५ दिन । प्र. ४३ म. स्वामी का संपूर्ण आयुष्य कितना था ? उ. ७२ वर्ष । ४४ म. स्वामी के निर्वाण के बाद किस ने संघ 'का
नेतृत्व संभाला था ? उ, सुधर्मा स्वामी ने । प्र. ४५ म. स्वामी के निर्वाण के बाद गौतम स्वामी
को केवलज्ञान कब हुआ था ? उ. उसी रात्रि के अंतिम प्रहर में। प्र. ४६ म. स्वामी को निर्वाण प्राप्त हुए अबतक
कितने वर्ष हुए हैं ? उ. २५११ वर्ष । प्र. ४७ म. स्वामी का शासन कहां तक चलेगा?
२१००० वर्ष यानि पंचम पारे के अंत तक । .
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प्र.
Ov
१
उ.
उ. पुरुष और स्त्री मिलाकर नव जीवों ने ।
प्र. २
प्रकीर्णक
म. स्वामी के शासन में कितने जीवों ने तीर्थंकर नामकर्म उपार्जन किया था ?
म. स्वामी के शासन में किस-किस जीवने तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन किया था ?
(१) मगधपति महाराज श्र ेणिक । (२) महावीर स्वामी के चाचा सुपार्श्व
(३) पोटिला अरणगार ( साध्वी )
(४) कोशंबीपति महाराजा उदायन
(५) महाशतक श्रावक
(६) शंख श्रावक
(७) अंवड़ संन्यासी
(८) सुलसा श्राविका
( 8 ) रेवती श्राविका
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। ३४७ )
प्र. ३ म. स्वामी के तीर्थ में रुद्र कौन हुए थे ? उ. सत्यकी। प्र. ४ म. स्वामी के तीर्थ में किस दर्शन की उत्पत्ति
हुई थी ? उ. वैशेषिक दर्शन की। प्र. ५ म. स्वामी के कितने राजा भक्त थे ? उ. अनेक राजा।
६ म. स्वामी के कितने कल्याणक हैं ? उ. पांच । प्रे. ७ म. स्वामी के कौन-कौन से कल्याणक हैं ? उ. (१) च्यवन (२) जन्म (३) दीक्षा (४) केवलज्ञान
(५) निर्वाण । प्र. ८ तीर्थंकर प्ररूपित आगमों को गणधरो ने किस
भाषा से ग्रन्थित किया था ?
अर्धमागधी-प्राकृत में (सर्व भाषाओं की जननी) प्र. ४ तीर्थंकर को प्रथम तपके पारणे में अन्नदान
देनेवाला मोक्ष में कब जाता है ? प्रथम या तीसरे भव में मोक्ष जाता है ।
उ.
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( ३४८ )
प्र. १० तीर्थंकर के आहार दान के समय पंच द्रव्य वृष्टि में कौन २ से द्रव्य होते हैं ?
(१) वस्त्र दृष्टि ( २ ) सुगंधित जल वृष्टि (३) वसुधारा की वृष्टि ( १२|| करोड़ सोनैया की वृष्टि ) (४) अहोदानं - अहोदानं की घोषणा (५) दुदुभिनाद
उ.
1
प्र. ११ म. स्वामी के समय में कितने ग्राश्चर्य (अच्छेरा )
हुए थे ?
पांच |
उ.
प्र. १२ अवसर्पिणी काल में कितने आश्चर्य (अच्छेरा ) हुए थे ?
दश ।
उ.
प. १३ अवसर्पिणी काल में कौन-कौन से आश्चर्य थे ?
हुए
उ.
प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव स्वामी से तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ स्वामी के शासन तक के पांच आश्चर्य :
(१) उकृष्ट श्रवगाहनावाले जीव एक साथ १०८ सिद्ध नहीं होते लेकिन प्रथम तीर्थं
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( ३४६ )
कर ऋषभदेव स्वामी के शासन में १०८ जीव एक साथ सिद्ध हुए ।
(२) युगलिया मर कर देवलोक में ही जाता है लेकिन हरिवंश में एक युगलिया मरकर नरक में गया ।
(३) तीर्थंकरों के शासन में असंयतित्रों की पूजा नहीं होती लेकिन नव से पंद्रहवें तीर्थंकरो तक के शासन में असंयतियों की पूजा हुई है ।
(४) स्त्रीवेद में तीर्थकर नहीं होते लेकिन १६ वें मल्लिनाथ स्वामी स्त्रीवेद में तीर्थंकर हुए ।
(५) वासुदेव- वासुदेव कभी साथ में नहीं मिलते, लेकिन श्रीकृष्ण महाराज को अमरकंका नामकी राजधानी जो धातकी खंडमें है, वहां जाना पड़ा । द्रौपदी का वहां हरण हुआ था । वासुदेव अपनी भूमि की सीमा किसी कालमें पार नहीं कर सकता, फिर भी द्रौपदी को वहां से
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( ३५० )
लाने के लिए और पांडवों का काम करने के लिए श्रीकृष्ण महाराज को वहां जाना पड़ा। द्रौपदी को लेकर वापस लौट रहे थे, तब धातकी खंड के पद्मोत्तर राजाने शंख फूका तबपरस्पर वासुदेव शंख-नाद से मिले । यह आश्चर्य वाईसवें तीर्थ कर अरिष्टनेमि के शासन में हुआ था।
महावीर स्वामी के शासन के पांच आश्चर्य :
-(१) म. स्वामी की आत्मा ब्राह्मण कुल में
उत्पन्न हुई। तीर्थंकर का क्षत्रिय कुल में जन्म होता है। इन्द्र महाराज की प्राज्ञा से हरिणगमैषी देव ने गर्भ का संहरण किया था।
१२) म. स्वामी को छः महिना तक पित्त ज्वर
( खूनी दस्त ) हुआ। तीर्थकर पर तेजो लेश्या का असर नहीं होता, फिर भी गौशालक ने तेजोलेश्या का प्रयोग किया, उसका फल म. स्वामी को छः माह तक भोगना पड़ा था।
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(३) म. स्वामी की प्रथम देशना निष्फल रही,
यानि व्रत नियमादि कुछ नहीं हुए। किसी भी तीर्थंकर की प्रथम देशना
निष्फल नहीं रही। . (४) चंद्र-सूर्य देव कभी अपने मूल रूप में दर्शन
करने या देशना सुनने नहीं आते, लेकिन म. स्वामी के समवसरण में सूर्य-चन्द्र मूल
रूप में आये थे। (५) तीर्थंकरों की उपस्थिति में वैर का विराम
होता है, लेकिन म. स्वामी के शासन में
शंकेन्द्र और अमरेन्द्र की लड़ाई हुई थी। इस प्रकार अवसर्पिणी कालके दश आश्चर्य
भ. १४ तीर्थंकर किस पर बैठकर देशना देते है ? उ. देवनिर्मित समसवरण में या सुवर्ण कमल पर। प्रे. १५ क्या तीर्थकर रोज देशना देते है ?
हां। १६ तीर्थंकर रोज कितनी बार देशना देते है ? उ. दो वार-सुवह और दोपहर । प्रे. १७ तीर्थकर रोज कितने समय तक देशना देते है ?
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सुबह एक प्रहर और दोपहर एक एक प्रहर मिलाकर कुल दोपहर यानि छ! घंटे तक
देशना देते है। प्र. १८ तीर्थंकर किस भाषा में देशना देते है ?
अर्धमागधी-प्राकृत में (सर्वभाषाओंकी जननी)। प्र. १६ तीर्थंकर के समय में प्रजा का स्वभाव कैसा था? ऊ. वक्र-जड़, यानि सरलता कम और बुद्धि की
प्रगल्भता ज्यादा। प्र. २० भारतमें तीर्थंकरों का विहार कहां-कहां
हुआ है ? प्रायः पूर्व और उत्तर भारत में, कभी एकाध वार पश्चिम भारत तक ।
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________________ भारतीय संस्कृति की महत्ता, तपस्या और उत्सर्ग की भूमिका पर ही प्रतिष्ठित हुई है। जब साधक साधना करते-करते सिद्धमय हो जाता है, तो वही संस्कृति बन जाती है। आज . से लगभग 2550 वर्ष पूर्व भगवान महावीर ने “सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय' स्वयं को उत्सर्ग कर दिया था। उनकी विराट् संवेदना देश, जाति, तथा काल की सीमाओं को पार कर गई थी। इसीलिए वे सृष्टि मात्रके उद्धारक व मुक्तिदाता माने गए हैं। भगवान महावीर के जीवन का तलस्पर्शी चिंतन प्रश्नोत्तर के रूप में सौराष्ट्र के सुप्रसिद्ध संत पूज्य श्री गिरीश मुनिजी म. सा. के सुशिष्य साहित्यरश्मि पूज्य श्री जिज्ञेश मुनिजी ने अंगशास्त्रों के अगाध क्षीरसागर में अवगाहन कर महावीर के व्यक्तित्व के विकास की जो रूपरेखा प्रस्तुत की है, वह नि:संदेह पाठकों के व्यक्तित्व को निखार सकने में समर्थ है। हजारों वर्षों को सचित साधना का यह मर्मोद्धाटन स्वय में बहुमूल्य है। इस सद् प्रयत्न के लिए मुनिजी के हम सब भाभारी हैं। भगवान महावीर की जीवनी जन-जन का कल्याण करे और मानवता का परित्राण करे-इसी विनम्र भावना के साथ - वीरेन्द्र जैन संयोजक, प्राकृत विद्यापीठ पंचतता ar