________________
उ.
प्र. ३५१ वसुमती के पूछने पर धनावह सेठने क्या कहा
था ?
उ.
( १४६ )
वसुमती धनावह सेठ की प्रेम स्नेहसनी वाणी से आश्वस्त तो हुई, पर वह ठोकरें खा चुकी थी, उसे अनुभव हो गया था कि- देवता की मूर्ति के पीछे दुष्ट दानवका असली चेहरा छिपा रहता है नकली चेहरे की चकाचौंध में । अतः उसने पूछा - "पिताजी ! आपके यहाँ मुझे क्या सेवा करनी होगी ? '.
उ.
धनावह सेठकी श्रांखे सजल हो गई - "वेटी यह क्या कम सेवा है कि मुझ संतानहीन के शून्य घर में तुम सरीखी एक देवकन्या का प्रवेश हो जाय । मेरा शून्य घर मंदिर बन जायेगा, अँधेरे में एक दीपक जल उठेगा, वस, मैं तुम्हें अपनी पुत्री रूप में देखकर ही प्रसन्न हूं और कुछ नहीं ।"
प्र. ३५२ वसुमती ने धनावह सेठकी बात सुनकर क्या किया था ?
व्यथा के अगणित घाव होते हुए भी वसुमती का मुख प्रसन्नता से दमक उठा । वह