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( २०६ )
चेतना पूर्व जीवन की स्मृतियों में खो गई,
आत्म चेतना विस्मृति में डूब गई ।
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SOL
प्र. १८५ मेघ मुनि रात भर क्या सोच रहा था ? उ. "मैं जब राजकुमार था, तो सब लोग मेरा यादर करते थे, आज यहां भयंकर अनादर हो रहा है । मैं मखमल की कोमल शैय्या पर सोता था - आज एक ही वस्त्र बिछाकर कठोर भूमि पर सोना पड़ा है। तब मैं कितनी शांति से सोता था, मेरा शयनकक्ष कितना मनोहर, विशाल, शांत और सुखद था । आज रात में कितनी अशान्ति है ? सोने का यह स्थान कितना छोटा, सिर्फ ढाई गज भर । कितना भीड़ भरा, संकुल । और आखिर में, सबके पैरों की ठोकरें खानी पड़ रही है । यह श्रमरण - जीवन तो बड़ा ही रूखा। नीरस, कष्टमय और उपेक्षित सा जीवन है । मैं जीवन भर कैसे इन कठोर नियमों को निभा सकूंगा - कैसे हमेंशा रातभर जागता रहूँगा और दिनभर भी ! बापरे ! मुझ से नहीं हो सकेगा, यह निरंतर जागरण !
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