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( १४६ ) अतः एकदिन वसुमती ने ही रथिक से कहा"भाई ! भाभी को स्वर्ण-मुद्राओं की इच्छा है, अतः तुम मुझे दासों के बाजार में बेच आओ तो तुम्हारा गृह-कलह भो मिटे और भाभी की
मनोकामना भी पूर्ण हो जाय ," . प्र. ३४४ वसुमतो के कथन पर रथिक ने क्या किया था?
अनेक विकल्पों के बाद आखिर छाती पर पत्थर रखकर रथिक ने वसुमती को कौशंबी
के बाजार में खड़ी कर बोली लगादी । प्र. ३४५ वसुमती को किसने खरीद लिया था ?
हजारों दासियाँ वहाँ बिक रही थी, किन्तु वसुमती का शील-सौंदर्य कुछ विलक्षण ही प्रतीत हो रहा था। लोगों ने हजार-दस हजार तक बोली लगाई, किन्तु रथिक ने एक लाख स्वर्ण मुद्रा की मांग रखी। तब कौशंबी की प्रसिद्ध गरिणका ने इस अप्सरा तुल्य दासी को
खरीद लिया एक लाख स्वर्ण मुद्राओं में । 'प्र. ३४६ गणिका के खरीदने पर वसुमती ने उन से क्या
कहा था ? वसुमती ने जब गरिएका के हाथों स्ता