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जनक वचनों को सुनकर महावीर के शक्ति - सम्पन्न शिष्यों को रोष ग्राना स्वाभाविक था । गुरु का अपमान शिष्य के लिए मृत्यु से भी अधिक त्रासदायक होता है । फिर भी महावीर के संकेतानुसार सब श्रमण मौन रहे ।
प्र. ५०१ म. स्वामी के अपमान को किससे नहीं सहा गया था ?
उ.
सर्वानुभूति और सुनक्षत्र अणगार से । प्र. ५०२ सर्वानुभूति अरणगार ने क्या किया ?
उ
सर्वानुभूति अणगार से यह सब नहीं सुना गया और वे बोल पड़े " गोशालक ! कोई व्यक्ति किसी साधु पुरुष से एक भी हितवचन सुन लेता है तो वह उसे वंदन - नमस्कार करता है । भगवान महावीर को तो तुमने अपना गुरु माना था, इन्होंने तुम्हें ज्ञानदान दिया था, तुम ग्राज ऐसे सर्वज्ञ पुरुष की भी निन्दा कर रहे हो ? ऐसे वीतराग भगवान के प्रति तुम्हारा इतना म्लेच्छ भाव और इतना उग्र द्व ेश ! यह तुम्हारे हित में नहीं होगा ।'
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प्र, ५०३ सर्वानुभूति अरणगार के हित वचनों से गौशा
लक को क्या हुआ था ?