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( १३५ ) प्रहार करने वज्र तो फेक दिया, किन्तु तुरन्तः ही उन्हें स्मरण आया, दुष्ट असुरराज को मेरे देव-विमान पर अचानक आक्रमण करने का साहस कैसे हुआ ? किसी भावितात्मा महापुरुष का आश्रय या शरण लिये विना वह यहाँ तक कैसे आ पहुंचा ? और तत्क्षण ही उसे ध्यान आया "अरे ! यह तो तपोलीन महावीर के चरणों का प्राश्रय लेकर आया है।" देवराज का हृदय अनिष्ट की आशंका से व्याकुल हो गया- कहीं मेरे वज्र-प्रहार से
प्रभु महावीर का अनिष्ट न हो जाय । प्र.३१६ देवराज ने स्मरण में आने के बाद क्या
किया था? उ. दिव्य देवगति से देवेन्द्र अपने वज्र के पीछे
दौड़े । प्रागे - पागे असुरराज, पीछे अग्नि ज्वालाएँ फेंकता हुया वज्र और उसके पीछे. वज्र को पकड़ने में उतावले देवराज । असुरराज तो महावीर के चरणों में जा छुपा । वज्र सिर्फ चार अंगुल दूर था तभी देवराज ने उसे पकड़ लिया और वे प्रभु महावीर से अविनय के लिये क्षमा मांगने लगे।