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( २१३ ) प्र. १६३ म. स्वामी ने मेघ मुनि को उद्बोधित करते
क्या कहा था ? मेघ ! तिथंच योनि में जब तुम्हें न सम्यग् दर्शन था. न ज्ञान-चेतना इतनी विकसित थी और न गुरु का सानिध्य ही था, तव तुमने एक नन्हें से खरगोस के प्रारण के लिए इतना कष्ट सहन किया. तीव्र पीड़ा को पीड़ा न मानकर अहिंसा, करुणा एवं समभाव की निर्मल धारा में वह गये थे और आज तो तुम मनुष्य हो, सम्यग दर्शन पाप्त किया है, ज्ञान-चेतना का द्वार उन्मुक्त है । सद्धर्म की ज्योति-शिखा तुम्हारे सामने प्रज्वलित है, बल वीर्य, पराक्रम और विवेक का सुयोग मिला है और महान् उदात्त संकल्प के साथ कष्टों से जुझने को निकल पड़े हो, तो एक रात के क्षुद्र कष्ट ने ही तुम्हें कैसे विचलित कर दिया?
ज्ञान का सूर्य उदित होते हुए भी अज्ञान और अधीरता भरी अंधियारी ने कैसे तुम्हें दिग्मूढ़ बना दिया ? तुम थोड़े से कष्ट से कैसे विचलित हो गये ? श्रमणों की थोड़ी सी उपेक्षा तुम्हारे