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थी। प्रभुके पधारने पर उसने शुद्ध भिक्षा का निमन्त्रण दिया, किन्तु प्रभु तो अभिग्रहधारीथे, अभिग्रह पूर्ण हुए विना कैसे आहार ग्रहण कर सकते थे ? विना कुछ लिये ही लौट
आये । सुनन्दा के हृदय को गहरो चोट पहुंची, अपने भाग्य को कोसती हुई वह फूट-फूट कर
रोने लगी। प्र. ३६० सुनंदा को रोती देखकर दासियों ने क्या
कहा था ? उ. दासियों ने कहा-"स्वामीनी ! आप इतना
पश्चात्ताप क्यों करती हैं ? देवार्य तो यहाँ नगर में प्रतिदिन पाते है और विना कुछ लिये ही लौट जाते है, आज लगभग चार मास से
तो हम देख रही हैं......।" प्र. ३६१ सुनंदा ने अपनी मनोव्यथा किससे कही थी ? उ. महामात्य मुगुप्त से । प्र. ३६२ सुनंदा ने सुगुप्त को मनोव्यथा बताते हुए
कहा-"प्रापको चतुरता और बुद्धिमानी किस काम को ? जो आप इतना भी पता नहीं लगा सकते कि देवार्य प्रभु महावीर चार मान
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