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दीपिकानियुक्तिश्च अ० १ सू. २६
सिद्धस्य गतिनिरूपणम् १०१ “यद्वा --काययोगप्रत्ययलक्षणस्य बन्धस्य सम्भवेपि प्रकृते तस्याविवक्षितत्वेन दोषाभावात् एवञ्च----कार्मणशरीरयोगा एव विग्रहगतिर्भवतीति भावः ॥२५॥
मूलम् -सिद्धस्स अविग्गहा ॥२६॥ छाया-सिद्धस्याऽविग्रहा-" ॥२६॥
तत्त्वार्थदीपिका-पूर्व तावत् साधारणतया भवान्तरसङ्क्रमणे जीवानां सविग्रहागति र्भवतीति प्ररूपितम् सम्प्रति-सिद्धिं गमिष्यतः सिद्धपुरुषस्य सेधनशक्तिसम्पन्नस्य कीदृशीगतिर्भवतीति प्ररूपयितुमाह-- "सिद्धस्स अविग्गहा" -“इति ।
सिद्धस्य-सिद्धि प्राप्स्यतो लप्स्यमानस्य सिद्धिगतिगमनशीलस्य पुरुषस्य अविग्रहा अवक्रा ऋज्वीगतिर्भवति न तु सविग्रहागतिरिति भावः । एवञ्च–सिध्यमानजीवस्य एकान्तत एवाऽवि ग्रहागतिर्भवति । सिद्धयमानव्यतिरिक्तस्य जीवस्य पुनः सविग्रहा-अविग्रहा वा गतिर्भवतीति भावः । विग्रहो व्याघातः कौटिल्यं यस्यां न विद्यते सा अविग्रहागतिः सिद्धस्य भवति । सा च अविग्रहागति एकसमया भवति । सविग्रहागतिस्तु द्विसमया वा भवतीति पूर्वमुक्तमेवेति भावः ॥२६॥
समाधान-भवस्थ जीव की अपेक्षा से ही भगवान् ने उक्त सूत्र का प्रणयन किया है, क्योंकि भवस्थ अवस्था में ही ज्ञानावरण आदि कर्मों का आस्रव होता है । इसके अतिरिक्त दो समय इतना अल्पकाल है कि उसमें उपभोग आदि का संबंध हो सकता है।
अथवा काययोग निमित्तक बन्धका संभव होने पर भी यहाँ उसकी विवक्षा नहीं की गई है, इस कारण कोई दोष नहीं है । इस प्रकार तात्पर्य यह है कि विग्रहगति कार्मणकाययोग वाली ही होती है ॥२५॥
सूत्र-सिद्धस्स अविग्गहा ॥२६॥ सिद्धजीव की अविग्रह गति होती है ॥२६॥
तत्त्वार्थदीपिका—पहले बतलाया गया है कि साधारण तथा भवान्तर में जाते समय जीवों की गति विग्रहवती होती है । अब सिद्धि-मुक्ति में गमन करने वाले सिद्ध पुरुष की गति कैसी होती है ? यह बतलाने के लिए कहते हैं
सिद्धि प्राप्त करने वाले मोक्षगामी-पुरुष की गति अवक्र-सीधी होती है । वह विग्रह वाली नहीं होती। इस प्रकार सिद्ध होने वाले जीव की एकान्त रूप से विग्रह रहित गति ही होती है। सिद्ध होने वाले के सिवाय दूसरे जीवों की सविग्रह और अविग्रह-दोनों प्रकार की गति होती है । विग्रह का अर्थ है व्याघात या कुटिलता अथवा वक्रता है । यह जिसमें न हो वह गति अविग्रहा कही जाती है । सिद्ध जीव की ऐसी अविग्रहा गति होती है। अविग्रहा गति एक