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तत्त्वार्यस्ने यन्ति, तान्-श्रुत्वैव खलु ते देवाः परमां प्रीतिभजमानाः निवृत्तकामभोगादरा भवन्ति । आनत-प्राणता-ऽऽरणा--ऽच्युतकल्पस्थिता देवाः पुनः-कामभोगादराःसन्तो देवीः सङ्कल्पयन्ति, तासां सकल्पमात्रेणैव परमां प्रीतिमासदयन्तो निवृत्तेच्छा भवन्ति. अतएव तेऽदेवीकाः सप्रवीचारा
चोध्यन्ते, ततःपरं तु कल्पातीताः खलु नवग्रैवेयक-पञ्चानुत्तरौपपातिका देवाः देवीविषयमनःसङ्कल्पशून्या भवन्ति, मनसाऽपि ते देवाः-देवीं न सङ्कल्पयन्ति, किमुतकायादिना [वक्तव्यम्-] तेषां कामवासनारहितत्वात्-पूर्णसुखित्वाच्च नाभिलाषो देवाङ्गनाकामभोगेषु सम्भवन्ति ।
यतस्तएते-रूपरसादिपञ्चविधप्रबीचारसमुदायोत्पन्नादपि सुखविशेषादपरिमितगुणप्रतिप्रकर्षाः परमसुखतृप्ताः स्वसमाधिजमेव सुखमुपभुञ्जते । दुर्लभतरं हि तादृक् सुखं संसारेऽन्यनिवासेषु, अतस्ते जन्मप्रभृत्या शब्दादिविषयनिरपेक्षत्वात् सन्ततं तृप्ता एव भवन्ति ।
उक्तञ्च-प्रज्ञापनायां ३४-पदे प्रचारणाविषये-"कतिविहा णं भंते ! परियारणापण्णत्ता ? गोयमा ! पंचविहा पण्णत्ता, तंजहा -कारियारणा, फासरियारणा, रूवपरियारणा, सहपरियारणा, मणपरियारणा, भवणवासिवाणमंतरसोहम्मीसाणेसु कप्पेसु देवा कायपरियारणा, सणकुमारमाहिदेसु कप्पेसु देवा फासपरियारणा, बंभलोहै । संगीतशब्द तथा उनके नूपुर मंजरी आदि आभूषण के शब्द को सुन कर और मधुर हासउल्लास से परिपूर्ण वचनो को सुन कर वे देव तृप्त हो जाते है । उनकी कामाभिलाषा शान्त हो जाती है। ____ आनत, प्राणत, आरण और अच्युत कल्पों में स्थित देव कामभोग के अभिलाषी होकर अपनी देवियों का संकल्प चिन्तन करते है । देवियों का संकल्प करने मात्र से ही वे परम प्रीति प्राप्त कर लेते हैं और कामतृप्ति का अनुभव करते हैं । ये देव अदेवीक और सप्रवीचार कहलाते है।
इससे ऊपर – अवेयको और अनुत्तर विमानों के देव कामभोग की इच्छा से रहित होते है । उनके चित्र में देवियों का संकल्प भी नहीं उत्पन्न होता है-काम आदि से प्रवीचार करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता ? वेदमोहनीय के उपशान्त हो जाने से इतने सुखी होते है कि कामसेवन की इच्छा हो उनके मन में जागृत नहीं होती।
रूप, रस, स्पर्शादि पाँच प्रकार विषय का सेवन करने से जो सुख उत्पन्न होता है, उसकी अपेक्षा उन्हें अपरिमितगुणित सुख का अनुभव होता है, उस परम सुख में वे तृप्त रहते हैं । इस प्रकार वे कल्पातीत देव आत्मसमाधिजनित सुख का उपभोग करते रहते है । उन्हें जो सुखानुभव होता है वह इस संसार में अन्यत्र अत्यन्त दुर्लभ है। इस कारण वे इन्द्रियजनित स्पर्श शब्द आदि विषयों के सुख की अपेक्षा नहीं करते और सदैव तृप्त रहते है।