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॥ अथं पञ्चमोऽध्यायः॥ मूलसूत्रम्--"असुभकम्मे पावे" ।। छाया-"अशुभकर्म पापम्-" ॥
तत्त्वार्थदीपिका-चतुर्थाऽध्याये क्रमप्राप्तं पुण्यस्वरूवं प्रतिपादितम् सम्प्रति-पञ्चमाऽध्याये क्रमप्राप्तमेव पापस्वरूपं प्रतिपादयितुमाह- "असुभकम्मे पावे-" इति । अशुभकर्मअकुशलकर्म दुःखजनकर्कर्म पापमित्युच्यते । ।
तच्च-पापमष्टादशविधम्-प्रज्ञप्तम् । तद्यथा-प्राणातिपातः-१मृषावादः-२अदत्तादानम्-३ मैथुनम्-४ परिग्रहः-५ क्रोधः-६ मानः-७ माया-८ लोभः-९ रागः-१० द्वेषः-११ कलहः-१२ अभ्याख्यानम्-२३ पैशून्यम्-१४ परपरिवादः-१५ रत्यरती-१६ मायामृषा१७ मिथ्यादर्शनशल्यञ्चे-१८-त्यष्टादशप्रकारकं पापं बोध्यम्---|सू०१॥
- तत्त्वार्थनियुक्ति:--पूर्व जीवाजीवादिनवतत्त्वेषु, अध्यायचतुष्टयेन क्रमशो जीवाजीवबन्धपुण्यरूपाणि चत्वारि तत्वानि प्ररूपितानि, सम्प्रेति-क्रमप्राप्तं पञ्चमं पापतत्त्वं प्ररूपयितुं पञ्चमाऽध्यायं प्रारभते, तस्येदं प्रामं सूत्रमाह--"असुभकम्मे पावे-" इति ।
पंचम अध्याय सूत्रार्थ--' असुभकम्मे पावे ।" सूत्र-१ अशुभ कर्म पाप कहलाता है ॥१॥
तवार्थदीपिका-चतुर्थ अध्याय में क्रमप्राप्त पुण्यतत्त्व के स्वरूप का प्रतिपादन किया है। मब अनुक्रमागत पापतत्त्व का विवेचन इस पांचवें अध्याय में किया जाएगा । सर्वप्रथम पापतत्त्व का लक्षण कहते हैं। ..... :
अशुभ अर्थात् अकुशल या दुःखजनक कर्म को पाप कहते हैं। पाप के अठारह मैद हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) प्राणातिपात (२) मृषावाद (३) अदत्तादान (४) मैथुन (५) परिग्रह (६) क्रोध (७) मान (८) माया (९) लोभ (१०) राग (११) द्वेष (१२) कलह (१३) अभ्याख्यान (१४) पैशुन्य (१५) परपरिवाद (१६) रति-अरति (१७) मायामृषा और (१८) मिथ्यादर्शनशल्य ॥१॥
तत्त्वार्थनियुक्ति-जीव अजीव आदि नौ तत्त्वों में से पहले के चार अध्यायों में क्रम से जीव, अजीव, बन्ध और पुण्य तत्त्व का निरूपण किया मया । अब क्रम प्राप्त पांचवें पाप तत्त्व का विवेचन करने के लिए पांचवां अध्याय प्रारंभ किया जाता है । उसका प्रथम सूत्र यह है-'असुभकम्मे पावे ।