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___ तत्त्वार्यसूत्रे ___अशुभकर्म-अकुशलकर्म-पापम् अपुर्ण व्यपविश्यते । तत्र--पं-पङ्किलम् , अर्थात्-मलिनं भावमापयति-प्रापयतीति पापम् । अथवा-पं–क्षेमम् आ-समन्तात् पिबति नाशयतीति पापम् । यद्वा पानं पास्तमर्थात् प्राणिनामात्मानन्दरसपानम् आमोति-गृह्णातीति पापम् । अथवानरकादिकुगतिषु जीवान् पातयतीति पापम् । पृषोदरादित्वात्साधुः आत्मानं कर्मरजोभिः पांशयति मलिनयेतीतिवा पापम् इति पापपदव्युत्पत्तिः । ज्ञानावरणीयादिकमै पापमुच्यते ।
तच्चा-ऽष्टादशविधं बोध्यम् । प्राणातिपात-१ मृषावाद-२ स्तेय-३ मैथुन-४ परिग्रह५ क्रोध-६ मान-७ माया-८ लोभ-९ राग-१० द्वेष-११ कलहा-१२ ऽभ्याख्यान-१३ पैशून्य-१४ परपरिवाद-१५ रत्यरति-१६ माया मृषा-१७ मिथ्यादर्शनशल्य-१८ भेदात् ।
__ तत्र-प्राणातिपातः प्राणव्यपरोपणम् , जीवहिंसेत्यर्थः-१ मृषावादोऽसत्यभाषणम्-२ स्तेयम्-अदत्तादानम्-३ मैथुनं-स्त्रीसङ्गमः, अब्रह्मचर्य मित्यर्थः-४ परिग्रहो मूर्छा-ममत्व मभिष्वङ्गः-५ क्रोधः-स्वान्तसंज्वलनलक्षणः कषायविशेषः-६ माचोऽहङ्कारः, गर्व ईतियावत्-७
अशुभ अर्थात् अकुशल कर्म पाप कहलाता है। पाम शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार हैपं-पंकिल अर्थात् मलिनता को बाक्यति-जो प्राप्त करता है, यह पाप अथवा पंक्षेम को, आ-सब ओर से, पूरी तरह से जो, पिबति–पी जाता है-नष्टकर देता है सो पाप । अथवा पानं-पा अर्थात् प्राणियों के आत्मानन्दरस के पान को जो आमोति-ग्रहण कर लेता है अर्थात् जिसके कारण जीव आत्मानन्द के रसपान से वंचित हो जाते हैं, उसे पाप कहते हैं । अथवा नरक आदि दुर्गतियों को जो प्राप्त करता है वह पाप कहलाता है । या आत्मा को कर्म-रज से जो पांसयति-मलीन करता है, वह पाप है।
पाप अठारह प्रकार का है। -(१) प्राणातिपात (२) कृपावादा (३) स्तेय (8) अब्रह्मचर्य (५) परिग्रह (६) क्रोध (७) मान (6) माया (९) लोभ (१०) राग (११) द्वेष (१२) कलह, (१३) अभ्याख्यान (१४) पैशून्य (१.५) परपरिवाद (१६) रति-अरति (१७) मायामृषा (१६) मिथ्यादर्शनशल्य । इसका अर्थ इस प्रकार है,
१.-प्रणातिपात-प्राणों का व्यपोषण नाश करना २-मृषावाद-असत्य भाषण करना. ३-स्तेय--अदत्तादान-चोरी. ४-अब्रह्मचर्य-मैथुन-कुशील. ५-परिग्रह-ममत्व, आसक्ति. ६-क्रोध-मन में जलन होना,