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पोलिनियुक्तिश्च अ५ सू. ८
नरकगत्याधशुभनामकर्मणो बन्धहेतुः ५७९. दिप्रतिरूपकत्वानुष्ठानकूटसाक्ष्यादयश्च चतुस्त्रिंशत्प्रकारस्य नरकगति-१ तिर्यग्गतिनामै-२ केन्द्रिय-३ द्वीन्द्रिय-४ त्रीन्द्रिय-५ चतुरिन्द्रियजातिनाम-६ न्यग्रोधपरिमण्डल-७ सादि-८ कुन्ज-९ वामन-१० हुण्ड-११ संस्थाननामा-११ऽवज्रर्षभनाराच-१२ नाराचा-१३ ऽर्धनाराच-१४ कीलिका-१५ सृपाटिका-संहननामा-१६ ऽप्रशस्त-रूप-१७ रस-१८ गन्ध-१९ स्पर्शनाम-२० नारकगत्यानुपूर्वी-२१ तिर्यग्गत्यानुपूर्वीनामो-२२ पघातनामा-२३ ऽप्रशस्तविहायोगतिनाम-२४ स्थावरनाम-२५ सूक्ष्मशरीरनाम-२६ ऽपर्याप्तकनाम-२७ साधारणशरीरनामा-२८ ऽस्थिरनामा-२९ ऽशुभनाम-३० दुर्भगनाम-३१, दुःस्वरनाम-३२ अनादेयनामा-३३ ऽयशःकीर्तिनाम-३४ रूपाऽशुभनामकर्मणो बन्धहेतवो भवन्ति ।
उक्तञ्च व्याख्याप्रज्ञप्तौ श्रीभगवतीसूत्रे ८-शतके ९-उद्देशके-"असुभनामकम्मा सरीरपुच्छा ? गोयमा ! कायअणुज्जुययाए, जाव विसंवायणाजोगेणं असुभनामकम्मा जाव पोगबंधे-" इति ।
___ अशुभनामकर्मशरीरपृच्छा ? गौतम ! कायाऽनृजुतया, यावद्-विसंवादनायोगेना-ऽशुभनाम कर्म, यावत्प्रयोगबन्धः इति । तत्र-प्रथमयावत्पदेन भाषानृजुतया भाषानृजुतयेति संग्राह्यम्, द्वितीययावत्पदेन शरीरादिसंग्राह्यम् ॥८॥ कूटमान-तुलाकरण अर्थात् कम-ज्यादा नापना- तोलना, किसी भी एक बस्तु में दूसरी वस्तु की मिलावट करना और झूठी साक्षी देना आदि समझ लेना चाहिए । इन कारणों से चौतीस प्रकार के अशुभ नाम कर्भ का बंध होता है । वे चौतीस प्रकार इस प्रकार से हैं
(१) नरक गति (२) तिर्यंचगति (३) एकेन्द्रियजाति (४) द्वीन्द्रिय जाति (५) त्रीन्द्रिय जाति (६) चतुरिन्द्रिय जाति (७) न्यग्रोध परिमंडल (८) सादि (९) कुञ्ज (१०) वामन और (११) हुण्ड संस्थान (१२) अर्धवर्षभनाराच संहनन (१४) नाराच संहनन (१४) अर्धनाराच संहनन (१५) कीलिकासंहनन (१६) सृपालिका संहनन (१७) अप्रशस्त रूप (१८) अप्रशस्तरस (१९) अप्रशस्त गन्ध (२०) अप्रशस्त स्पर्श (२१) नरक गत्यानुपूर्वी (२२) तिर्यग्गत्यानुपूर्वी (२३) उपघात नाम (२४) अप्रशस्त विहायोगति (२५) स्थावर नाम (२६) सूक्ष्म नाम (२७) अपर्याप्तक नाम (२८) साधारण नाम (अस्थिर नाम (३०) अशुभ नाम (३१) दुर्भग नाम (३२) (३३) अनादेयनाम और (३४) अयशः कीर्तिनाम ।।
श्री भगवति सूत्र में शतक ८ उद्देशक ९ में कहा है-अशुभनाम कर्म के विषय में प्रश्न ? उसका उत्तर यह है-गौतम ! काय की ऋजुता न होने से अर्थात् वक्रता होने से यावत् विसंवादना योग से अशुभनाम कर्म का बन्ध होता है।
इस जगह पहले जो 'जाव' शब्द आया है, उससे भाषा की ऋजुता न होना और मन की ऋजुता न होना अर्थात् वचन और मन की वक्रता को ग्रहण करना चाहिए तथा दूसरे 'जाव' शब्द से शरीर आदि को समझ लेना चाहिये । सूत्र ॥८॥