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तत्वार्थसूत्रे
उक्तञ्च – प्रज्ञापनायां २३ - पदे २ उद्देशके – “आउरणं भंते ! कम्मे कइ विहे पण्णत्ते ? गोयमा ! चउब्विहे पण्णत्ते, तं जहा - णेरइयाउए, तिरियआउए, मणुस्साउए, देवाउए – " इति ।
नरकगति – स्तिर्यग्गतिश्चेति द्विविधा गतिः पापकर्मण्यन्तर्भवति । एकेन्द्रियपृथिवीकायिकादिजातिः, द्वीन्द्रिय शङ्ख शुक्तिकादिजातिः, त्रीन्द्रिय पिपीलिकामत्कुणादि जातिः, चतुरिन्द्रियमक्षिकादिजातिश्च पापकर्मण्यन्तर्भवन्ति । पञ्चेन्द्रियजातेः पुण्यकर्मान्तर्भावात् । वज्रर्षभनाराचसंहननभिन्नानि पञ्चसंहननानि - अर्धवज्रर्षभनाराच - नाराचा-s -र्धनाराचकीलिकासृपाटिकारूपाणि पापकर्मण्यन्तर्भवन्ति । एवं समचतुरस्रसंस्थानवर्जितानि पञ्चसंस्थानानि न्यग्रोधपरिमण्डल, सादि, कुब्ज, वामन, हुण्ड रूपाणि पापकर्मण्यन्तर्भवन्ति । अप्रशस्तरूप-रस- गन्ध-स्पर्शाः अपि पापकर्मण्यन्तर्भवन्ति । एवं - नारकगत्यानुपूर्वी, तिर्यग्गत्यानुपूर्वीचापि पापकर्मण्यन्तर्भवतः ।
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उत्तर-
-गौतम ! नौ प्रकार का है - जो ऊपर बता चुके हैं ।
आयुकर्म की प्रकृतियों में एक नरकायु ही पाप में परिगणित है ।
यद्यपि प्रज्ञापनासूत्र के तेईसवें पद के दूसरे उद्देशक में ऐसा कहा हैप्रश्न- भगवन् ! आयुष्ककर्म कितने प्रकार का है ? उत्तर - गौतम ! चार प्रकार का है, यथा-और देवायु ।
यहाँ आयुकर्म के चार भेद बतलाए गए हैं, तथापि अन्त के तीन आयु जीवों को प्रिय होने के कारण पुण्यकर्म में गिने गए हैं। अतएव शेष रहे एक नरकायु की ही पापकर्म में गणना की गई है ।
नरकगति और तिर्यंचगति, ये दोनों पापकर्म के अन्तर्गत हैं ।
-नैरविकायु, तिर्यक्आयु, मनुष्यायु
पृथ्वीकयिका आदि की एकेन्द्रिय जाति, शंख सीप आदि की द्वीन्द्रिय जाति, चिउंटी मत्कुण आदि की त्रीन्द्रिय जाति, मक्षिका आदि की चौइन्द्रिय जाति, यह चार जातियाँ पापकर्म में सम्मिलित हैं | पंचेन्द्रिय जाति का पुण्यकर्म में समावेश है ।
संहनन कीलिका संहनन और सेवा
वज्रऋषभनाराचसंहनन को छोड़ कर शेष पाँच संहनन पापकर्म के अन्तर्गत हैं ।
इसी प्रकार समचतुरस्रसंस्थान को छोड़ कर शेष हैं । वे इस प्रकार हैं - यग्रोधपरिमंडल, सादि, कुब्ज, वामन
पाँच संस्थान पापकर्म में अन्तर्गत और हुण्डक ।
अप्रशस्त रूप, रस, गंध और स्पर्श भी पापकर्म में गिने जाते हैं । इसी प्रकार नरकगत्यानुपूर्वी और तिर्यग्गत्यानुपूर्वी भी पापकर्म में सम्मिलित हैं ।