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भवलि न तु औदारिकमेवेत्यवधारणम् । तैजस कार्मणशरीरद्वयमपि तेषां सम्भवति, लब्धिप्रत्ययबैंक्रियाहारकयो; गर्भजन्ममा प्राणिनामुत्तस्कालभावित्वात् । औदारिकं शरीरं जघन्येनाऽङ्गुलाऽसंख्येयमागप्रमाणमुल्कृष्टतो योजनसहलाप्रमाणञ्चेति।
तत्र--उदारम् , उद्गमः उद्गमन प्रादुर्भावः यतउल्यादनात् प्रभृति अनुसमयमुद्गच्छति-वर्धतेजीर्यते--शीर्यते-परिणमति इत्युदारम्, : उदारमेवौदारिकम् वयःपरिणामेनोपचीयमानतया वर्धनं भवति । वयोहानिप्राप्त्या जीर्णनं भवति, शिथिलसन्धिबन्धनेन लम्बमान धर्ममण्डलेन च शीर्णता भवति । समन्तात्-जराभारविथुरिततया-ऽऽनमति, परिपेलवग्रहणशक्तीन्द्रियग्रामं वलीवलयलेखा विचित्रम् अन्यदेवोपजायते इति परिणमनमपि तस्य प्रत्यक्षसिद्धम् यथा चेदमौदारिकमेवं विधाऽनेकविशेषणविशिष्टं वर्तते न तथा-वैक्रियाहारक-तैजसकार्मणानि भवन्ति । वैक्रियस्य जरसा-विवृद्धयावा प्रतिक्षणं योगो नास्ति यथावस्थितत्वात् । एवमाहारकस्यापि, तैजस-कार्मणयोस्तु-सुतरां न तत्समस्ति तस्याङ्गोपाङ्गाधनिवृत्तेः ।
कि उनको औदारिक शरीर ही होता है, क्योंकि उन्हें तैजस और कार्मण शरीर भी प्राप्त होता है । इनके अतिरिक्त गर्भ जन्म वालों को आगे चलकर लब्धिजनित त्रैक्रिय और आहारक शरीर भी हो सकते हैं । औदारिक शरीर की अवगाहना जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट से एक हजार योजन से कुछ अधिक की होती है। - उदार अर्थात् उद्गम, उद्गमन का अर्थ है प्रादुर्भाव जो शरीर उत्पत्ति सेले कर प्रत्येक समय उद्गम करता है अर्थात् वृद्धि को प्राप्त होता रहता है, फिर जीर्पा और शीर्ण होता है, वह औदारिक शरीर कहलाता है । यह शरीर वम के परिणमन के अनुसार उपचित-पुष्ट होता जाता है और वय की हानि होने पर जीर्ण होता है । इसके जोड़ जब ढीले पड़ जाते हैं और चमड़ी लटकने लगती है तो शीर्ण भी होता है । जरा के भार के कास्म झुक जाता है । इन्द्रियों की विषय को ग्रहण करने की शक्ति क्षीण-क्षीणतर होने लगती है और झुर्रियाँ पड़ जाती हैं। इस प्रकार धीरे-धीरे यह कुछ का कुछ हो जाता है ! पहनना भी नहीं जा सकता कि यह वही सुन्दर और सुपुष्ट शरीर है; इस प्रकार का परिणमन प्रत्यक्ष से सिद्ध है । इस औदारिक शीर में ये जो विशेषता हैं, वे क्रिय, आहारक, तैजस या कार्मण शरीर में नहीं है। वैक्किय शरीर आदि से अन्त तक ज्यों का त्यों रहता है। उसमें औदारिक शरीर की भाँति क्षण-क्षण में परिकाम नहीं होता । न जरा के कारण क्षीण होता है और न विशिष्ट प्रयोगों से वृद्धि को ही प्राप्त होता है । आहारक शरीर में भी ऐसा परिवर्तन नहीं होता । तैजस और कार्मण प्रारीर में तो उसका संभव ही नहीं है, क्यों कि उसमें अंगोपांगों का निर्माण नहीं होता है।