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पिकानियुक्तिश्च अ०४ सू. ५
पुण्यकर्मबन्धहेतुनिरूपणम् १ अल्पारम्भः-स्थूलप्राणातिपातादिजनकव्यापारत्यागः अल्पपरिग्रहः---आभ्यन्तरेषु रागद्वेषाद्यात्मपरिणामेषु बाह्यक्षेत्रवास्तुहिरण्यधनधान्यादिषु ममत्वत्यागः, आदिपदेन स्वभावमार्दम् आर्जवञ्च गृह्यते। तथाच---अल्पारम्भाऽल्पपरिग्रहस्वभावमार्दवार्जवैश्चतुभिहेतुभूतैमनुष्यायुष्यं पुण्यकर्म बध्यते. ॥ ५॥
तत्त्वार्थनियुक्तिः-पूर्व सर्वभूतानुकम्पादयः सप्त सातावेदनीयरूपपुण्यकर्मबन्धहेतुतया प्रतिपादिताः सम्प्रति-मनुष्यायुष्यरूपपुण्यकर्मबन्धस्य हेतुत्वेना-ऽल्पारम्भादयः प्ररूप्यन्ते--
"अप्पारंभ अप्पपरिग्गहाइएहिं मणुस्साउए-" इति अल्पारम्भाऽल्पपरिग्रहादिभिः कारणैर्मनुष्यायुष्यं कर्म बध्यते, तच्च-पुण्यरूपमवसेयम् । तत्रा-ऽल्पारम्भः स्थूलप्राणातिपातादिजनकव्यापारविरतिरूपः । अल्पपरिग्रहः-आन्तरेषु रागद्वेषाद्यात्मपरिणामरूपेषु बाह्येषु च क्षेत्रवास्तुधनधान्यसुवर्णादिषु परिग्रहेषु ममत्वविरतिरूपः ।
आदिपदेन स्वभावमार्दवम्, आर्जवञ्च गृह्यते । तत्र-स्वभावेन निसर्गेण–प्रकृत्यैव मार्दवम्मृदुता, जातिकुल-बलरूपलाभ-तपः श्रुतैश्वर्यस्थानेषु गर्वाभावः स्वभावमार्दवमुच्यते । प्रकृतिभद्रत्वम्-प्रकृतिविनीतत्वम् ; अमत्सरत्वम् , सानुक्रोशत्वम्- । एवं स्वभावेन सहजेन आर्जवम् । ऋजुता-सरलता यथावस्थितमनोवचः कायविषयककुटिलताराहित्यम् ।।
तथाचा-ऽल्पारम्भता स्तोकप्राणिवधाद्याचरणमपि नान्तरीयकम् अल्पपरिग्रहता शब्दादिउसकी अल्पता अर्थात् स्थूलप्राणातिपातादिजनक व्यापार का त्याग, अल्पपरिग्रह का अर्थ है आभ्यन्तर रागद्वेषादि आत्मपरिणाम तथा बाह्य क्षेत्र (खेत-खुली जगह), वास्तु (मकान आदि), धन धान्य-स्वर्ण आदि पर ममत्व का त्याग २, । सूत्र में प्रयुक्त 'आदि' शब्द से स्वभाव की मृदुता अर्थात् कोमलता और ऋजुता अर्थात् सरलता ग्रहण करना चाहिए । इस प्रकार अल्प आरंभ, अल्प परिग्रह, स्वभाव की मृदुता तथा ऋजुता, इन चार कारणों से मनुष्यायु रूप पुण्यकर्म का बन्ध होता है ॥५॥
__ तत्वार्थनियुक्ति-इससे पूर्व सर्वभूतानुकम्पा आदि सात सातावेदनीय कर्म के बन्ध के कारणों का प्रतिपादन किया गया है अब मनुष्यायु रूप पुण्य कर्म के कारणों की प्ररूपणाकरते हैं
अल्प आरंभ १ और अल्प परिग्रह २ आदि कारणों से मनुष्यायु रूप पुण्य कर्म का बन्ध होता है।
अल्पारम्भ वह है जिसमें स्थूल प्राणातिपातादिजनक व्यापार का परित्याग करना । परिग्रह का अर्थ है मूर्छा या गृद्धि । उसमें अल्पता, अर्थात् आन्तरिक रागद्वेषादि आत्मपरिणाम, तथा बाह्य क्षेत्र, वास्तु (महल-मकान) धन धान्य स्वर्ण आदि पदार्थों में ममत्व का त्यागकरना है ।
आदि' शब्द से स्वभावमार्दव और आर्जव का ग्रहण किया गया है । स्वभाव से अर्थात् प्रकृति से ही मृदुता होना अर्थात् जाति, कुल, बल, रूप, लाभ, तप, श्रुत एवं, ऐश्वर्य के विषय में अभिमान न होना स्वभावमार्दव कहलाता है ३ । प्रकृतिभद्रता ४, प्रकृति विनीतता ५,