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तत्वार्थसूत्रे मेः सिद्धाः प्रख्याताः सवार्थसिद्धाः यद्वा-सर्वे अर्थाः सिद्धा भवन्ति यत्र ते सर्वार्थसिद्धाः । • तत्रैकमनुष्यभवं कृत्वा तत्रत्यः सर्वे देवा: मोक्षं प्राप्य सिद्धा भवन्तीति भावः । विजयादिषु च केचन देवा द्विमनुष्यभवमपि कृत्वा मोक्षं प्राप्नुवन्ति,
सर्वार्थसिद्धे च -नियमत एकभवमेव कृत्वा मोक्षं प्राप्नुवन्तीति विशेषः अत एव-सर्वार्थ सिद्धा उच्यन्ते , सर्वे चाऽभ्युदयार्थाः । एषां सिद्धा भवन्तीति सवार्थसिद्धा उच्यन्ते अथवाविजितप्रायाणि वा कर्माणि एभिरिति विजयादयः प्रतनुकर्मपटलाञ्छन्नत्वात् प्रत्यासन्नवय॑नवद्य सुखनिर्भरसिद्धिविभूतिसमागमत्वात्प्राप्तपरमकल्याणाः मुनिजन्मनि परीषहै विंशतिसंख्यकैः क्षुत्पिपासादिभिपराजिताः सन्तो मरणान्तरमपि अपराजिता एव देवाः समुत्पन्नाः भवन्ति ।
यद्वा-सतततृप्तत्वात्तत्र क्षुधादिभिर्न पराजीयन्ते इत्यपराजिता उच्यन्ते एवं संसारसम्बन्धिन्याः सर्वकर्तव्यतायाः परिसमाप्तत्वात् सर्वार्थसिद्धो व्यपदिश्यन्ते. । अथवा-सिद्धप्रायःसकलकर्मक्षयलक्षणो मोक्ष रूप उत्तमार्थो येषान्ते सर्वार्थसिद्धाः । तेषां मोक्षस्याऽन्ते आगामिजन्मभावित्वात् , इत्येवं रीत्या यद्यपि विजयादयोऽपि सवार्थसिद्धत्वेन व्यपदेष्टुं शक्यन्ते. तथापि-गोशब्दादिवत् समस्त अतिशयशाली एवं अत्यन्त रमणीय शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि से जो सिद्ध अर्थात् प्रख्यात हों, वे सर्वार्थसिद्ध समझने चाहिए।
___ अथवा जहाँ सर्व अर्थ सिद्ध हो जाता है; वे सर्वार्थसिद्ध । इसका तात्पर्य यह है कि वहाँ (सर्वार्थसिद्ध विमान) के देव एक मनुष्यभव करके मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं और सिद्ध हो जाते हैं। विजय आदि चार विमानों के कोई-कोई देव दो मनुष्यभव करके भी सिद्ध होते हैं, जब कि सर्वार्थसिद्ध विमान के देव नियम से एक ही भव धारण करके सिद्धि प्राप्त कर लेते है । यह सर्वार्थसिद्ध विमान की चार विमानों से विशेषता है ।
विजय आदि देवों के नाम का दूसरे प्रकार से भी अर्थ किया जा सकता है । जिन्होंने कर्मों को लगभग विजित कर लिया है, बे विजय आदि देव कहे जा सकते हैं। उनके कर्म बहुत हल्के पड़ जाते हैं, इस कारण सिद्धि-मुक्ति की निरवद्य सुखमय विभूति उनके सन्निकट आ जाती है । अतएव वे परम कल्याण को प्राप्त कर चुके हैं। क्षुधा पिपासा आदि वाईस परीषहो से अपने पूर्व मुनि जीवन में पराजित न होकर, मरण के अनन्तर भी वे अपराजित देवों के रूप में उत्पन्न होते हैं।
__ अथवा सदैव तृप्त रहने के कारण वे देव क्षुधा आदि से पराजित नहीं होते, इस कारण उन्हें अपराजित कहा है । इसी प्रकार संसार संबन्धी समस्त कर्त्तव्यों को परिसमाप्त कर चुकने के कारण उन्हें सर्वार्थसिद्ध कहा जाता है । अथवा समस्त कर्मों का क्षय स्वरूप मोक्ष रूप उत्तम अर्थ जिनका प्रायः सिद्ध हो चुका है, बे सर्वार्थसिद्ध कहलाते हैं; क्योंकि अगले दूसरे ही भव में उन्हें मोक्ष प्राप्त होने वाला है ।