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तत्वार्यसूत्रे
देवगतिनामकर्मोदयेऽभ्यन्तरे हेतौ सति बाह्यविभूतिविशेषैीपपर्वतसमुद्रादिषु प्रदेशेषु यथाकामं दीव्यन्ति-क्रीडन्तीति देवाः, पचादित्वादच् प्रत्ययः, ते चतुर्विधा सन्ति, भवनपति-वानव्यन्तरज्योतिष्क-वैमानिकभेदात् तथाच-भवनपतयः–वानव्यन्तराः ज्योतिष्काः-वैमानिकाश्चेत्येवं चतुविधा देवाः सन्तीति भावः ॥ १६ ॥
तत्त्वार्थनियुक्तिः-पूर्वं तावद् यथाक्रमं पुण्यतत्त्वस्वरूपं सविस्तरं प्ररूपितम्, सम्प्रतिपुण्यकर्मफलभूतां देवगतिं प्ररूपयितुं प्रथमं देवभेदान् आह-"देवा चउबिहा, भवणवइ-वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणियभेया-,, इति । देवाः-देवगतिपुण्य नाकर्मोदये सति द्वीपपर्वतादिविशेषदिव्यप्रदेशेषु दीव्यन्ति-क्रीडन्ति-रमन्ते, इति देवाः, यथेष्ट विचरणशीलत्वात् सततक्रीडासक्तमानसा भवन्ति ।
अथवा-दीव्यन्ति द्योतन्ते इति देवाः, अत्यन्तभास्वरशीलत्वाद्-अस्थि-मांसा-ऽसृङ्-मज्जादिरहितत्वेन परमरमणीय सर्वाङ्गोपाङ्गत्वाच्चेति । यद्वा-विद्या-मन्त्रा-ऽञ्जनादिकं विनापि पूर्वकृत- तपःसापेक्षजन्मप्राप्त्यनन्तरमेव निरालम्बाकाशातिशयगतिचारिणः खलु देवा भवन्ति, दिवुक्रीडाविजिगीषाव्यवहारद्युतिस्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु इत्यनुशासनात्,
तेषामतिशयगतिश्चागमे प्रतिपादिता वर्तते । तथाचोक्तम्-व्याख्याप्रजप्तौ भगवतीसूत्रे ११ शतके १०-उद्देशके-"के महालए णं भंते ! लोए पण्णत्ते ? गोयमा ! अयंच णं
देव चार प्रकार के हैं- भवनपति, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक । आभ्यन्तर कारण देवगतिनामकर्म का उदय होने पर बाह्य विभूतियों से द्वीप, पर्वत, समुद्र आदि प्रदेशों में इच्छानुसार जो क्रीडा करते हैं, वे देव कहलाते हैं। (पचादि गण) में पाठ होने से देव शब्द में अच् प्रत्यय हुआ है । देवों के पूर्वोक्त चार प्रकार हैं ॥१६॥
तत्त्वार्थनियुक्ति-पहले विस्तारपूर्वक पुण्यतत्त्व को प्ररूपणा की गई है । अब पुण्यकर्म के फल देवगति की प्ररूपणा करने के लिए सर्वप्रथम देवों के भेद कहते हैं।
देवगति नामक पुण्य नामकर्म के उदय से द्वीप पर्वत आदि दिव्य प्रदेशों में जो क्रीड़ा करते हैं, वे देव कहलाते हैं। यथेष्ट विचरण करने के स्वभाव वाले होने से उनका मन सदैव क्रीड़ा में आसक्त रहता है।
__ अथवा दीव्यन्ति का अर्थ है- द्योतन्ते । अत्यन्त तेजोवान् होने से और अस्थि, मांस. रुधिर, मज्जा आदि से रहित होने के कारण जिनके सभी अंगोपांग अत्यन्त रमणीय होते हैं वे देव कहलाते हैं । अथवा विद्या, मंत्र एवं अंजन आदि के बिना ही पूर्वकृत तप के प्रभाव से जो जन्मकाल से ही बिना आलम्बन के आकाश में गमन करते हैं, वे देव कहलाते हैं । व्याकरण शास्त्र के अनुसार 'दिवु' धातु के अनेक अर्थ होते हैं, जैसे-क्रीड़ा, विजिगीषा (जीतने की इच्छा), व्यवहार, युति, स्तुति, मोद, मद, स्वप्न, कान्ति और गति ।।