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तस्वार्थसूत्रे
यद्वा-धर्माधर्माकाशकालपुग्दलादिद्रव्यसन्निवेशस्थानं
जगत् उच्यते, संसार इत्यर्थः । चीयते यः स काय, चीयते वाऽस्मिन् अवस्थादिकमिति कायः शरीरम्, जगच्च - कायश्चेति जगत्कायौ तयोः स्वभावः - स्वरूपम् जगत्का यस्वभावः तौ चेति शब्दार्थः || १५ ||
तत्त्वार्थनिर्युक्तिः -- पूर्वं हिंसादितो निवृत्तिलक्षणत्रतपञ्चकदृढतार्थे पञ्चव्रत साधारणतयैव प्राणिमात्रादिषु मैत्र्यादिभावनाः प्रतिपादिताः सम्प्रति-तथाविधहिंसाद्य कुशलनूतनकर्मादाननिवृत्तिपरायणपञ्चत्रतधारिणां क्रियाविशेषप्रणिधानार्थं भावनान्तरं प्रतिपादयितुमाह - "संवेगणिव्वेयणत्थं जगकायसभावा य" इति
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संवेगनिर्वेदार्थम् जगत्कायस्वभावौ च पञ्चव्रतधारीजीवो भावयेत् । तत्र - संवेगार्थं गत्स्वभावं भावयेत्, वैराग्यार्थञ्च कायस्वभावं भावयेत् । तत्र संवेगस्तावत् संसारभीरुत्वादिलक्षणः नानाविधोच्चावचप्राणिजातजन्म-मरणजरादिपीडाक्लेश कर्मविपाकपरिपूर्णसंसारसन्त्रासइति भावः ।
निर्वेदस्तु – वैराग्यरूपः शरीर निष्प्रतिकर्मतादिलक्षणो बोध्यः, वक्ष्यमाणवास्तुक्षेत्रादिदशविधबाह्योपधिषु एव वक्ष्यमाणरागद्वेष दिचतुर्दशाभ्यन्तरोपधिषु चाऽनभिषङ्गः मूर्च्छाराहित्यम् अलोभात्मकः आत्मनः परिणाम इति भावः ।
धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल आदि के रहने का जो क्षेत्र - स्थान है, वह भी जगत् कहलाता है जिसे संसार कहते हैं ।
जिसका उपचय होता है, वह 'काय' कहलाता है, अथवा जिसमें अवस्था आदि का उपचय होता है, उसे काय कहते हैं । काय का अर्थ 'शरीर' है । संवेग और निर्वेद को बढाने के लिए जगत् के और शरीर के स्वरूप का बार-बार विचार करना चाहिए ॥ १५ ॥
तत्वार्थनियुक्ति — इससे पूर्व हिंसापरित्याग आदि पाँचों व्रतों की दृढता के लिए पाँचों महाव्रत आदि के लिए साधारण मैत्री आदि भावनाओं का प्रतिपादन किया गया । अब हिंसा आदि अशुभ नवीन कर्मबन्ध की निवृत्ति में तत्पर पंचमहाव्रत धारी साधुओं की क्रियाविशेष के प्रणिधान के हेतु अन्यभावनाओं का प्रतिपादन करने के लिए कहते हैं
पाँच महाव्रतों आदि को धारण करने वाला जीव संवेग और निर्वेद के लिए जगत् के और शरीर के स्वरूप का चिन्तन करे । अर्थात् संवेग के लिए जगत् के स्वभाव का और निर्वेद के लिए शरीर के स्वभाव का विचार करे ।
संसार के प्रति भीरुता होना संवेग है अर्थात् नाना प्रकार के उच्च और नोच प्राणियों के जन्म, मरण, जरा पीडा, क्लेश एवं कर्मविपाक से परिपूर्ण संसार के त्रास का विचार करना संवेग है । वैराग्य को निर्वेद कहते हैं । इसका तात्पर्य है शरोर का साज-श्रृंगार आदि न करना । आगे कहे जाने वाले क्षेत्र, वास्तु, आदि दस प्रकार की बाह्य उपधि में और राग