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तत्वार्थसू
बाच्च कर्त्तव्याकर्तव्यविवेकरहितत्वान्महदनिष्टं प्राप्नोति प्रेत्यच नारकादितीव्रयातनागतिं प्राप्नोति लुब्धोऽयं जन इतिच लोके स गर्हितो भवति, तस्माद - परिग्रहतो व्युपरतिः खलु श्रेयसी' इत्यात्मनिभावयन् परिग्रहाद् व्युपरतो भवति ।
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लोभरूपया तृष्णापिशाचिकया वशीकृतचित्तो न कानपि प्रत्यवायान् पश्यति, लोभप्रस्तो जनः पितरमपि धनार्थं व्यापादयति--मातरमपि ताडयति हिनस्ति च सुतमपि हन्तु मुद्यतो भवति भ्रात्रा - दीनपि द्रव्यार्थं जिघांसति किं बहुना - स्वप्राणप्रियां प्रेयसीमपि तदर्थं हन्ति एवमन्यानपि बहूनर्थान् करोति–इति लोभाभिभूतो जनः किमपि कार्यमकार्ये न परिगणयति, तस्मात् - परिग्रहेऽनर्थान् बहून् भावयन् ततो निवृत्तिं समासादयति हिंसादिषु पञ्चसु दुःखमेव च भावयेत् ।
एवश्व
ब - हिंसादिपञ्चकं यथा मम दुःखजनकत्वादप्रियं भवति, एवं सर्वेषामपि प्राणिनां - हिंसादिकं वधबन्धनच्छेदनादिहेतुकमप्रियं भवति इत्यात्मानुभवेन सर्वेषां दुःखं हिंसौ भावयन् प्राणातिपाताद् विरतिः श्रेयसीति भावनया तस्माद् व्युपरतो भवति । एवं यथा ममाऽसत्य
से तृप्ति नहीं होती, चाहे कितना ही क्यों न प्राप्त हो जाय ! जो लोभ से अभिभूत होता है, वह कर्त्तव्य - अकर्तव्य के विवेक से रहित हो जाता है और इस कारण महान् अनिष्टको प्राप्त करता है । परलोक में नारकों संबंधी तीव्र यातनाएँ उसको भुगतनी पड़ती हैं। दुनिया लालची कह कर उसकी निन्दा करती है । अतएव परिग्रह से निवृत्त हो जाना ही हितकर है। इस प्रकार की भावना करने से जीव परिग्रह से निवृत्त हो जाता है ।
लोभ का अंग यह जो तृष्णा रूपी पिशाचनी है, इसके वशीभूत हो जाने वाले पुरुष किसी प्रकार के अनर्थों की परवाह नहीं करते ! उन्हें कोई अनर्थ ही नहीं दीख पड़ते । लोभग्रस्त मनुष्य धन के लिए अपने पिता के भी प्राण हरण करने से नहीं झिझकता । वह अपनी माता को भी मारता यहाँ तक कि मार डालता है ! अपने बेटे का वध करने को भी उद्यत हो जाता है । सहोदर भाई को भी संहार करने का विचार करता है। अधिक क्या कहा जाय; अपनी प्राणप्रिया पत्नी के भी प्राणों का ग्राहक बन जाता है इसी प्रकार के अन्याय अनर्थ भी करने में संकोच नहीं करता । लोभी मनुष्य कार्य और अकार्य को कुछ भी नहीं गिनता । इस प्रकार जो पुरुष लोभ से होने वाले अनर्थों का चिन्तन करता है, वह परिग्रह से विरत हो जाता है ।
इसके अतिरिक्त ऐसी भावना भी करनी चाहिए कि ये हिंसा आदि पाँचों पाप दुःख स्वरूप ही हैं !
जैसे हिंसा आदि पाँचों दुःखजनक होने के कारण मुझे अप्रिय हैं, उसी प्रकार अन्य सभी प्राणियों को भी वध बन्धन छेदन आदि से होने वाली हिंसा आदि अप्रिय हैं । इस प्रकार अपने निज के अनुभव से जो हिंसा को दुःखमय सोचता है, वह प्राणातिपात आदि से निवृत्त हो जाता है ।
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