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यितुं समर्था भवन्ति, केवलं तेषां किञ्चित्कालार्थ दुःखप्रसिबन्धमात्रकारित्वात् तस्मात् मूदास्तमवस्थाविशेषं वस्तुतो दुःखमपि सुखमभिमन्यन्ते ।
यथा-कण्डूयनं [गात्रखर्जनम्] कुर्वन् जनो दुःखमेव तदानीं सुखमभिमन्यते मोहात् , तथा-मैथुनमुपसेवमानोऽपि मोक्षप्रतिबन्धकीभूता-ऽनन्तानन्तसंसारभ्रमणादिदुःस्वमेव [आपातरमणीयकम्-] स्पर्श सुखमभिमन्यते, तस्मान्मैथुनेऽपि-दुःखभावनाभावितचेतसो मैथुमाद् विरतिर्मवतीति ।
____ एवं-धनादिषु ममत्वरूपपरिग्रहवान् जनोऽप्राप्तप्राप्तनष्टेषु धनादिवस्तुषु क्रमशोऽभिलाषारक्षणशोकोद्भबं दुःखमेव सर्वथा प्राप्नोति तस्माद्-अप्राप्तेषु वस्त्रादिवस्तुषु प्राप्त्यभिलाषां कुर्वन् तदनासादयन् दुःस्वमेवाऽनुभवति प्राप्तेषु च तेषु राज-तस्करा-ऽनल-दायाद-मूषिकादिभ्यो रक्षणे सततमुद्विग्नः सन् दुःखमेवासादयति, विनष्टेषु च तेषु परिग्रहेषु तदवियोगजनिसोडसह्यःस्मृत्यधुषङ्गलक्षणः शोकानलो नितरां सन्तापयति ।
तस्मात्-तेषु परिग्रहेषु दुःखमेव भावयतो जनस्य परिग्रहाद् विरमो भवति, एवं रीत्या-प्राणातिपाता-ऽनृतभाषण-स्तेयो-ऽब्रह्म-परिग्रहेषु दुःखमेव भावयतो बतिनः पञ्चव्रतेषु स्थिरता लक्षआत्यन्तिक सुख उत्पन्न करने में समर्थ नहीं होते हैं। वे तो कुछ समय के लिए दुःख का प्रतीकार मात्र करते हैं । अतएव मूढजन उस अवस्था-विशेष को, दुःखरूप होने पर भी सुख मानते हैं।
असे खाज खुजलाने वाला पुरुष अज्ञानवश दुःख को 'मी उस समय सुख मान लेता है, उसी प्रकार मैथुन सेवन करने वाला भी मुक्ति के विरोधी एवं अनन्सामन्त संसार परिभ्रमम के कारण, आपातरमणीय भोगों-दुःख को भी स्पर्शसुस समझलेता है । इस प्रकार मैथुन में दुःख की भावना से जिस का चित्त भावित होता है, वह मैथुन से निवृत्त हो जाता है। .. इसी प्रकार धन आदि पर ममता धारण करने वाला जन धन प्राप्त न हो तो उसकी लालसा करता है, प्राप्त हो जाय तो उसकी रक्षा करने का दुःख भोगता है और मष्ट हो जाय तो शोकजनित दुःख का भागी होता है । वस्त्र आदि वस्तुओं को प्राप्त करने की अभिलाषा हो और वह प्राप्त न हो सके तो दुःख का ही अनुभव होता है । कदाचित् उसकी प्राप्ति हो जाय तो राजा, चोर, अग्नि, भागीदार और चूहों आदि से उसे बचाने के लिए सदैव उद्विग्न रहना पड़ता है । इस प्रकार उद्वेगजन्य दुःख का अनुभव करना पड़ता है जब रक्षा करते-करते भी वह परिग्रह चला जाता है, तो उसके वियोग से उत्पन्न होने वाले मसब शोक की अग्नि उसे अत्यन्त सन्तप्त बनाती है। इस प्रकार परिग्रह प्रत्येक दशा में दुःसहप ही है । जो ऐसी भावना करता है, वह परिग्रह से विरक्त हो जाता है ।
पूर्वोक्त प्रकार से प्राणातिपात, असत्यभाषण, स्तेय, अब्रह्मचर्य और परिग्रह में गुःख ही बुल है, ऐसी भावना करने वाले व्रती की पांचों व्रतों में दृढता उत्पन्न होती है।