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'तस्वार्थसूत्रे
भव्येभ्यः प्रव्रज्यादानम् भवकूपपतत् संसारार्णवनिमग्नप्राणिजातत्राससमाश्वासनपरायणं जिनशासनमहिमोपबृंहणम् समस्तस्य जगतो जिनशासनर सिककरणम्, मिथ्यात्वतिमिरापहरणम् चरणकरणशरणीकरणञ्च, २० इत्येतानि विंशतिस्थानकानि सर्वजीवसाधारणानि तो करत्वशुभनामक - बन्धहेतुभूतानि सन्ति एतैर्विशतिस्थान कैजीवस्तीर्थकरत्वं लभते इतिभावः । स्थीयतेऽस्मिन्निति स्थानम्, अधिकरणे ल्युट् । स्थित्याधारभूतं कारणमित्यर्थः तथाच अर्हदादि वत्सलतादीनि विंशतिस्तीर्थ करत्वप्राप्तिः स्थानानि कारणानि सन्तीति भावः ॥ ८ ।।
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तत्त्वार्थनिर्युक्तिः–पूर्वं सामान्यतोऽविसंवादनकायवचो मनोयोगऋजुतादीनां मनुष्यगत्यादिसप्तत्रिंशत्प्रकारकशुभनामकर्मबन्धहेतुत्वेन प्ररूपणेऽपि, अनन्तानुपमप्रभावस्याचिन्त्यविभूतिविशेषकारणस्य त्रैलोक्यातिशायिनस्तीर्थकर नामकर्मणो विशेष हेतून् प्रतिपादयितुमाह – “वीसईठाणाराहणेणं तित्थयरत्तं -" इति ।
विंशतिस्थानाराधनेन तीर्थकरत्वनामकर्मे बध्यते । उक्तञ्च - ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे २५२ पृष्ठे सीखना १९ श्रुतभक्ति - जिनप्रतिपादित आगमों में अनुराग रखना । २० प्रवचनप्रभावना - प्रचुर भव्य जीवों को दीक्षा देना, संसार रूपी कूप में गिरते हुए और संसार - सागर में डूबते हुए प्राणियों के लिए आश्वासन रूप जिनशासन की महिमा बढ़ाना, समस्त जगत् को जिनशासन का रसिक बनाना, मिथ्यात्व - तिमिर को नष्ट करना और मूलोत्तर गुणों को धारण करना ।
सर्व जीवों के लिए साधारण यह वीस स्थान तीर्थङ्कर नाम कर्म के बन्ध के कारण तात्पर्य यह है कि इन वीस कारणों से जीव तीर्थकरत्त्व प्राप्त करता है । व्यस्त एक और समस्त दोनों रूप से इन्हें कारण समझना चाहिए अर्थात् इनमें से एक कारण के द्वारा भी नाम कर्म बाँधा जा सकता है और अनेक कारणों से भी । किन्तु स्मरण रखना चाहिए कि उत्कृष्टतम रसायन आने पर ही इस महान् सर्वोत्तम पुण्यप्रकृति का बन्ध हो सकता है । यहाँ स्थान का अर्थ वासना है, अतएव पूर्वोक्त अर्हद्वात्सल्य आदि वीस स्थानों का अर्थ वीस कारण समझना चाहिए ॥ ८॥
तत्त्वार्थनिर्युक्ति यद्यपि सामान्य रूप से अविसंवादन, काय, वचन और मन की ऋजुता को सैंतिस प्रकार के शुभ नाम कर्म के बाद का कारण बतलाया जा चुका है; न प्रकारों में तीर्थकर प्रकृति का भी समावेश हो जाता है, किन्तु तीर्थकर एक विशिष्ट प्रकृति है । वह अनन्त एवं अनुपम प्रभाववाली, अचिन्त्य आत्मिक एवं बाह्य विभूति का कारण और त्रिलोक में सर्वोत्कृष्ट है; अतएव उसके कारण भी विशिष्ट हैं । इसीलिए उसके विशिष्ट कारणों का पृथक् रूप से निर्देश किया जाता है
वीस स्थानों की उत्कृष्ट आराधना से तीर्थङ्करनाम कर्म का बंध होता है । ज्ञाता धर्मकथांग सूत्र में कहा हैं -