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तत्वार्थ सूत्रे
गौतम -: यस्य तैजसशरीरं तस्य कार्मणशरीरं नियमादस्ति, यस्यापि कार्मणशरीरम् तस्यापि तैजसशरीरं नियमादस्ति इति ॥ ३० ॥
मूलसूत्रम् — “कम्मगं उवभोगवज्जिए" ॥३१॥ छाया - कार्मणमुपभोगवर्जितम् - " ॥३१॥
तत्वार्थदीपिका - पूर्वसूत्रे - औदारिकवैक्रिय तेज सकार्मणभेदेन पञ्चविधं शरीरं प्ररूपितम् सम्प्रति–कार्मणप्रस्तावात् तद् विषयं किञ्चिद् वैशिष्ट्यं प्रतिपादयितुमाह “कम्मगं उवभोगवज्जिए—–” इति । कार्मणम्— कर्मणा निर्वृत्तं निष्पन्नं पूर्वोक्तस्वरूपं कार्मणशरीरम् उपभोगवर्जितम् इन्द्रियप्रणालिकया शब्द -- -वर्ण- गन्धरस-स्पर्शादीनामुपलब्धिरूपयोगः, तदवर्जितम् तद्रहितं वर्तते विग्रहगतौ कार्मणशरीरसत्वे भावेन्द्रियनिवृत्तिक्षयोपशमलब्धौ सत्यामपि द्रव्येन्द्रियनिर्वृत्यभावात् शब्दाद्युपभोगाभावो भवति ।
तथाच - औदारिकादिशरीर सद्भावे सुखदुःखरूपविषयभोगः प्रत्यक्षसिद्धो वर्तते किन्तु यदाविग्रहगतौ कार्मणशरीरं भवति तदा नाऽनेन शरीरेण शब्दादिविषयोपभोगः सम्भवति । तस्मात् - कार्मणशरीरं निरूपभोगं भवति ॥ ३१ ॥
मूलसूत्रम् - ओरालिए दुविहे समुच्छिमे - गन्भवक्कति य ॥ ३२ ॥
छाया - "औदारिकं द्विविधम् सम्मूच्छिम - गर्भव्युत्क्रान्तिकं च - " ॥३२॥ उत्तर - गौतम ! जिसको तैजस शरीर होता है उसको कार्मण शरीर नियम से होता है और जिसको कार्मण शरीर होता है उसको तैजस शरीर नियम से होता है ||३०||
सूत्र - 'कम्मगं उपभोग वज्जिए' ॥ ३१ ॥
मूलसूत्रार्थ - कार्मण शरीर उपभोग से रहित है ॥ ३१ ॥
तत्त्वार्थदीपिका - पूर्व सूत्र में औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण के भेद से पाँच प्रकार के शरीरों का निरूपण किया गया । अब कार्मण का प्रकरण होने से उसके विषय में कुछ विशिष्टता का प्रतिपादन करते हैं
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कर्म से उत्पन्न होने वाला; पूर्वोक्त स्वरूप वाला कार्मण शरीर उपभोग से रहित है । - इन्द्रियों के द्वारा शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श आदि की उपलब्धि होता उपभोग कहलाता है । कार्मण शरीर इस उपभोग से रहित है । विग्रहगति में कार्मण शरीर के विद्यमान रहने पर भी और लब्धि रूप भावेन्द्रिय के होने पर भी द्रव्येन्द्रियों का अभाव होने से शब्द आदि भोगा उपभोग नहीं होता है ।
औदारिक आदि : शरीरों के सद्भाव में सुख-दुःख रूप विषयों का उपभोग तो प्रत्यक्ष सद्ध है, किन्तु जब विग्रह गति में कार्मण शरीर होता है तब इस शरीर से शब्द आदि विषयों का उपभोग नहीं हो सकता । इस कारण कार्मण शरीर को उपभोग से रहित कहा गया है ॥ ३१ ॥