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दीपिकनियुक्तिश्च अ ३ सू. ११ नामकर्मणो द्विचत्वारिंशभेदनिरूपणम् ३१५
३० ३१ ३२ ३३ ३४ ३५ ३६ ३७ ३८ ३९ ४० ऽस्थिर-शुभा-ऽशुभ-सुभग-दुर्भग-सुस्वर-दुःस्वरा--ऽऽदेया-ऽनादेय-यशः किर्त्य यशःकीर्ति-नि
४१ ४२ र्माण-तीर्थकरनामानि द्वाविंशतिसंख्यकान्येकैकविधानि सन्ति २२(९३) इत्येवं रीत्या नामकर्मण एक सप्ततेविंशतेश्च संमेलने भवन्ति त्रिनवतिभेदास्तासां मूलोत्तरप्रकृीतनामिति सविस्तरं विविच्यते
तत्र-नमयति-प्रापयति जीवं नारकादिभवान्तराणीति नाम-यहा-नमयति-प्रहृयति जीवप्रदेशसम्बन्धिपुद्गलद्रव्यविपाकसामर्थ्यात् नामेति यथार्थसंज्ञा यथा-शुक्लादिगुणोपेतद्रव्येषु चित्रपटादिव्यपदेशप्रवृत्तिर्नियतसंज्ञाहेतुर्भवति, तत्र-गतिनाम्नः पिण्डप्रकृतेश्चत्वारो भेदा नरकगतिनामादयो भवन्ति यदुदयात्-नारक इति व्यपदिश्यते तन्नारकगतिनाम, एवं तिर्यग् गतिनामादयोऽप्यवगन्तव्याः।
एवं जातिनाम्नः पिण्डप्रकृतेः पञ्चभेदाः एकेन्द्रियजातिनाम-द्वीन्द्रियजातिनाम-त्रीन्द्रियजातिनाम-चतुरिन्द्रियजातिनाम-पञ्चेन्द्रियजातिनामसंज्ञकाः। तत्रैकेन्द्रियजातिनामकर्मोदयादेकेन्द्रिय इति व्यपदिश्यते, एकेन्द्रियसंज्ञाव्यपदेशहेतुरेके-न्द्रिय जातिनाम, एवं द्वीन्द्रियजातिनामादिष्वप्यवग न्तव्यम्. ।
___ तत्रैकेन्द्रियजातिनामा-ऽनेकविधम्, पृथिवीकायिका-ऽप्कायिक--तेजस्कायिक-वायुकायिकवनस्पतिका यकजातिनामभेदात्, द्वि-त्रि-चतु-प्पञ्चेन्द्रियजातिनामान्यपि शङ्ख-शुक्तिका-युपदेसुभग, ३४ दुर्भग, ३५ सुस्वर, ३६ दुःस्वर ३७ आदेय, ३८ अनादेय, ३९ यश:कीर्ति, ४० अयशःकीर्ति, ४१ निर्माण और ४२ तीर्थङ्करनामकर्म का एक-एक ही भेद है । इस प्रकार (७१+२२-९३) इकहत्तर और ये बाईस सब मिलाकर पूर्वोक्त (नामकर्मकी) वयालीस प्रकृतियों के तिरानवे (९३) भेद होते हैं ।
अब यहाँ नामकर्म का सविस्तर विवेचन किया जाता है--
जो कर्म जीव को नरकभव आदि में ले जाता है अथवा जो कर्म जीवप्रदेशों से संबद्ध पुद्गलद्रव्य के विपाक के सामर्थ्य से जीव को नमाता है, वह नामकर्मकहलाता है । 'नाम' यह यथार्थ संज्ञा है, अर्थात् जैसा इस कर्म का नाम है, उसी प्रकार का उसका स्वभाव भी है । जैसे शुक्ल आदि गुणों से युक्त द्रब्यों में 'चित्रपट' ऐसा व्यवहार होता है, यह नियत संज्ञा का कारण है।
गतिनामक पिण्डप्रकृति के चार भेद हैं-नरकगति आदि । जिस कर्म के उदय से जीव नारक कहलाता है, वह नरकगतिनामकर्म कहलाता है । इसी प्रकार शेष भी समझ लेना चाहिए ।
जातिनामक पिण्डप्रकृति के पाँच भेद हैं-एकेन्द्रियजातिनामकर्म, द्वीन्द्रिजातिनामकर्म, त्रीन्द्रियजातिनामकर्म, चतुरिन्द्रियजातिनामकर्म और पंचेन्द्रियजातिनामकर्म । एकेन्द्रियजातिनामकर्म के उदय से जीव एकेन्द्रिय कहलाता है अर्थात् 'एकेन्द्रिय' ऐसे व्यवहार का कारण एकेन्द्रियजातिकर्म है । इसी प्रकार द्वीन्द्रियजातिनामकर्म आदि के विषय में भी जानना चाहिए।
एकेन्द्रियजातिनामकर्म भी अनेक प्रकार का है-पृथिवीकायिक-एकेन्द्रियजातिनामकर्म, अपकायिक-एकेन्द्रियजातिकर्म, तेजस्कायिक–एकेन्द्रियजातिनामकर्म, वायुकायिक–एकेन्द्रियजातिनाम