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तस्वार्थसूत्रे प्रतिपत्तव्यः । तत्र-वर्षसहस्रत्रयमबाधाकालो बोध्यः, यावत्कालपर्यन्तं बद्धं कर्म नाऽनुभूयते उदयेनाऽऽयाति, तावान् कालो बाधाकालपदेनोच्यते । बाधाकालस्तु-यत्प्रभृतिज्ञानावरणादिकर्म उदयावलिकाप्रविष्टं सत् निःशेषमुपक्षीणं भवति तावान्काल उच्यते । तथाचैतद् ज्ञानावरणादिकर्मचतुष्टयं बन्धकालादारभ्य त्रिषु वर्षसहस्रेषु व्यतीतेषु उदयावलिकां प्रविशतीति भावः ।
एवञ्च-ज्ञानावरण-दर्शनावरण-वेदनीया-ऽन्तरायकर्मणां त्रिंशत्सागरोपमकोटिकोटीरूपोत्कृष्टास्थितिः संज्ञिनो मिथ्यादृष्टेः पञ्चेन्द्रियस्य पर्याप्तकस्य जीवस्यावगन्तव्या ।
उक्तञ्चोत्तराध्ययनसूत्रे ३३ अध्ययने "उदहीसरिसनामाण, तीसईकोडिकोडीओ- । उक्कोसिया ठिई होई, अंतोमुहत्तं जहन्निया- ॥१९॥ आवरणिज्जायदुण्डंपि, वेयणिज्जे तहेव य-। अंतराए य कम्मम्मि, ठिई एसा वियाहिया- ॥२०॥ छाया-उदधिसदृशनाम्नाां त्रिंशत्कोटिकोटयः ।
उत्कर्षिका स्थितिर्भवति, अन्तर्मुहूर्त जघन्यिका ॥ "आवरणीययोद्वयोरपि वेदनीये तथैव च- । अन्तराये च कर्मणि स्थितिरेषा व्याख्याता- ॥१४॥ इति । मूलसूत्रम्-"मोहणीजस्स सत्तरि कोटिकोडीओ- ॥१५॥
छाया--"मोहनीयस्य सप्ततिः कोटिकोटयः ॥१५॥ पम का समझना चाहिए इन चारों कर्मों का अबाधाकाल तीन हजार वर्ष का है । बन्ध होने के पश्चात् जितने काल तक कर्म का उदय नहीं होता, उतना काल अबाधाकाल कहलाता है । अबाधाकाल व्यतीत हो जाने के पश्चात् ज्ञानावरण आदि कोई कर्म जब उदयावलिका में प्रविष्ट होता है, तब से आरंभ करके उसको पूर्णरूप से क्षय होने तक के काल को बन्धकाल कहते हैं। तात्पर्य यह हुआ कि ज्ञानावरण आदि उक्त चारों कर्म बन्ध काल से लेकर तीन हजार वर्ष व्यतीत हो जाने पर उदयावलिकामें प्रविष्ट होते हैं।
ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय कर्म की तीस कोड़ा कोड़ी सागरोपम की जो उत्कृष्ट स्थिति बतलाई गई है, वह संज्ञी, मिथ्यादृष्टि पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव की अपेक्षा से समझनी चाहिए । उत्तराध्ययनसूत्र के ३३ वे अध्ययन में कहा गया है---
दो आवरणों की अर्थात् ज्ञानावरण और दर्शनावरण की, वेदनीय की तथा अन्तराय कर्म की तीस कोड़ा कोड़ी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति कही गई है। इन चारों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है ॥ १९-२० ॥१४॥
सूत्रार्थ-'मोहणिज्जस्स सत्तरि' इत्यादि । सूत्र-१५ मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ा कोड़ी सागरोपम की है ।। १५ ॥