________________
४३०
AAAAAAAM
तत्वार्थसूत्रे सम्वेसिं चेव कम्माण-पएसग्गमणंतर्ग-। गंठिय सत्ताईयं-अंतो सिद्धाण आउयं- ॥१॥ सव्वजीवाणकम्मंतु-संगहे छदिसागयं-। सव्वेसु वि पएसेसु-सव्वं सव्वेण बद्धगं-॥२॥ इति, सर्वेषाञ्चैव कर्मणां-प्रदेशकमनन्तकम् । ग्रथित सत्त्वादिकम्-अन्ते सिद्धाना मायुष्कम् - ॥१॥ सर्वजीवानां कर्मतु-संग्रहे षड दिशागतम्-।
सर्वेष्वपि प्रदेशेषु-सवे सर्वेण बद्धकम्- ॥२॥ इति,
यत्र यत्र षट्स्वपि दिक्षु लोका भवन्ति, तत्र षड्भ्य एव दिग्भ्यः कर्माणि गृह्यन्ते, पुनः यत्र तिसृषु चतसृषु पञ्चसु वा दिशासु लोका भवन्ति तत्र क्रमशः तिसृभ्यश्चतसृभ्यः पञ्चभ्यो दिग्भ्य एव कर्माणि गृह्यन्ते । शेषदिशासु, लोकाऽभावभवनात् न सन्ति पुद्गलाः । अतः कर्माण्यपि न गृह्यन्ते ॥सू०२२॥ इति श्री विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदश भाषाकलितललितकलापालापक प्रविशुद्ध गबपद्यानैकग्रन्थनिर्मापक शाहुच्छत्रपति कोहापुरराजप्रदत्त 'जैन
शास्त्राचार्य' पदभूषित जैनधर्मदिवाकर पूज्य श्री घासीलाल व्रतिविरचितस्य दीपिकानियुक्ति टीकाद्वयोपेतस्य तत्वार्थ
सूत्रस्य तृतीयमध्ययनं समाप्तम् ॥३॥
सभी कमों के प्रदेशों का परिमाण अनन्त होता है।
सभी जीव छहों दिशाओं से आगत कर्म पुद्गलों को ग्रहण करते हैं और समस्त आत्मप्रदेशों से ग्रहण करते हैं। इस प्रकार जीव के साथ कर्मपुद्गलों का 'सर्व से सर्व का' बन्ध होता है ॥१-२॥
जहां छहों दिशाओं में लोक होता है, वहां छहों दिशाओं से कर्म गृहीत होते हैं और जहां तीन चार या पांच दिशाओं में लोक हो वहां क्रमशः तीन-चार और पांच दिशाओं से ही कर्मों का ग्रहण होता है । शेष दिशाओं में अलोक होने से पुद्गल नहीं हैं। इसलिये कर्मों का ग्रहण भी नहीं होता है ॥सू०२२॥ श्री जैनशास्त्राचार्य, जैनधर्मदिवाकर पूज्य श्री घासीलालजी महाराज
विरचित तत्वार्थ सूत्रकी दीपिका एवं नियुक्ति नामक व्याख्याका तीसरा अध्ययन
समाप्त ॥३॥