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दीपिकानियुक्तिश्च अ० ३ सू०१
बन्धस्वरूपनिरूपणम् ३४३ "क्रोधश्च मानश्च अनिगृहीतौ माया च लोभश्च प्रवर्धमानौ । चत्वार एते कृत्स्नाः कषाया सिञ्चन्ति मूलानि पुनर्भवस्य ॥ १॥ "यदतिदुःखं लोके यच्च सुखमुत्तमं लोके ।
तज्जानीहि कषायाणां, वृद्धिक्षयहेतुजं सर्वम् ॥ २ ॥
स च कषायपरिणामः परिणन्ता चेदात्मा तदा-तस्य सम्भवति, न तु-अपरिणतुः सर्वगतस्याऽक्रियस्यात्मनः । तस्मात्-परिणन्तुरात्मनः कषायपरिणामः । उक्तञ्च
जीवस्तु कर्मबन्धनबद्धो वीरस्य भगवतः कर्ता । सन्तत्याऽनाद्यं च तदिष्टं कर्मात्मनः कर्तुः ॥ १॥ "संसारानादित्वाद-बन्धस्यानादिता भवति सिद्धा । अतएव कर्ममूत्तै-नाऽमूते बन्धकं हीष्टम् ॥ २॥ "न च निर्हेतुक मिष्टं-देहग्रहणं यदादिम नणाम् । सतिचाप्यहेतुकत्वे-न स्यात् संसारनिर्मोक्षः ॥३॥ "तस्मान्मूत कर्मष्यतेऽईता यच्च तस्य परिणामः ।
दृष्टोमूर्तिदृष्टौ च-येन तदुदीरणोपशमौ ॥ ४ ॥
क्रोध और मान अगर निगृहीत न किये गये और माया तथा लोभ अगर बढ़ते रहे तो ये चारों कषाय पुनर्भव के मूल का सिंचन करते हैं और भी कहा है
'लोक में जो अत्यन्त दुःख है और तीनों लोकों में जो उत्तम सुख है, वह कषायों की वृद्धि और क्षय के कारण ही जानना चाहिए। तात्पर्य यह है कि कषायो की वृद्धि से दुःख और क्षय से उत्तम सुख की उपलब्धि होती है ।
आत्मा में कषाय-परिणाम तभी संभव है जब कि उसे परिणमनशील माना जाय । अगर आत्मा को अपरिणामी, सर्वव्यापी और निष्क्रिय माना जाय तो उसमें कषायपरिणाम नहीं हो सकता । इस कारण परिणमन शील आत्मा में ही कषायपरिणामका संभव है कहा भी है
_ 'भगवान् महावीर के मतानुसार जीव कर्मबन्धन से बद्ध है और कर्ता आत्मा के साथ कर्म प्रवाह की अपेक्षा अनादि काल से लगे हुए हैं ॥१॥
संसार अनादि काल से है अतः कर्मबन्ध भी अनादिकालीन ही सिद्ध होता है इसी कारण कर्म मूर्त है; जो अमूर्त होता है वह बन्धकर्ता नहीं होता ॥२॥
मनुष्य प्रारम्भ में जो देह को ग्रहण करता है, वह निर्हेतुक नहीं । उसका कोई न कोई कारण तो होना ही चाहिए। अगर बिना कारण ही देह का ग्रहण माना जाय तो संसार से कभी मोक्ष ही नहीं हो सकता ॥३॥
__अर्हन्त भगवान् कर्म को मूर्त मानते हैं, क्योंकि कर्म का फल (देह आदि) मूर्त दिखाई देता है, और उसकी उदीरणा तथा उपनाम का होना भी देखा गया है ॥४॥