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दीपिकानिर्युक्तिश्च अ० ३ ०९
मोहनीयकर्मण उत्तरकर्मनिरूपणम् ३८१
रस्य चिरकालेन प्रशमो भवति, इत्येवं रीत्या चारीत्रमोहनीयं पञ्चविंशतिविधं प्ररूपितम्, त्रिविधञ्च दर्शनमोहनीयं प्रागेव निरूपितम् इत्यष्टाविंशतिविधं मोहनीयं कर्म - उत्तप्रकृतित्वेन सम्पन्नम् ।
तत्राऽनन्तानुबन्धी क्रोधादिकषायोदयः सम्यग्दर्शनमुपहन्ति तदुदयात् सम्यग्दर्शनं नोत्पद्यते पूर्वोत्पन्नमपि तत् परिपतति, अप्रत्याख्यानक्रोधादिकषायोदयाद् सर्वदेशलक्षणायाः विरतेरभावः संजायते, प्रत्याख्यानक्रोधादिकषायोदयाद् देशविर तिर्भवति, किन्तु - उत्तमचारित्रस्य लाभो न भवति सर्वस्मात् प्राणातिपाताद् विरमामीति रूपस्य लाभो न भवतीति भावः ।
संज्वलन कषायोदये पुनरकषायचारित्रलाभो न भवति । तत्र - क्रोध, मान, माया, लोभानां चातुर्णामपि प्रत्येकमनन्ताऽनुबन्ध्यप्रत्याख्यान - प्रत्याख्यानसंज्वलनानामेकैकस्य चातुर्विध्यक्रमेण क्रोधादेस्तीत्र—-मध्य विमध्य - मन्दभावान् प्रदर्शयति तत्र - तीव्रस्तावद अनन्तानुबन्धी क्रोधः पर्वतराजसदृशो भवति, यथा- पर्वतानां शिलादिविभागरूपपाषाणखण्डानां राजिभिर्दारुरूपा - उत्पद्यते स च शिलायामुत्पन्नाराजिर्यावत्कालं शिलारूपं तावत्कालपर्यन्तमवतिष्ठते, नहि तस्याः सन्धानं भवति । के दाह की अग्नि के समान या छाणों की आग के समान भीतर ही भीतर खूब धधकती रहती है । उसकी उपशान्ति चिर कालमें होती है ।
इस प्रकार पच्चीस तरह के चारित्रमोहनीय कर्म का निरूपण किया गया। तीन प्रकार के दर्शन मोहनीय कर्म का निरूपन पहले किया जा चुका है यों मोहनीय कर्म की अट्ठाईस ही प्रकृतियों का प्रतिपादन हो चुका ।
अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय सम्यग्दर्शन का घात करता है जब तक उसका उदय रहता है तब तक सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति नहीं होती । सम्यग्दर्शन यदि पहले उत्पन्न हो चुका हो और बाद में अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय हो तो वह नष्ट हो जाता है । अप्रत्यख्यानावरण कषाय के उदय से देशविरति भी उत्पन्न नहीं हो पाती, सर्वविरति तो होगी ही कैसे ! प्रत्याख्यान कषाय के उदय से देशविरति में तो रुकावट नहीं होती किन्तु सर्वविरति रूप उत्तम चारित्र की प्राप्ति नहीं होती । तात्पर्य यह है कि 'सब प्रकार के प्राणातिपात से विरत होता है ' इस प्रकार के सकलसंयम का लाभ नहीं होता ।
संज्वलन कषाय के उदय से वीतराग चारित्र की प्राप्ति नहीं होती ।
अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन, इन चारों के क्रोध, मान, माया और लोभ यह चार-चार भेद हैं । अनन्तानुबधी आदि चार प्रकार के क्रोधमें, इसी प्रकार मान, माया और लोभ में परस्पर जो तारतम्य है अर्थात् तीव्रभाव, मध्यभाव, विमध्यभाव और मन्दभाव है, उसे दिखलाते हैं
।
चारों प्रकार के क्रोधों में अनन्तानुबन्धी क्रोध तीव्र होता है के समान है । जैसे पर्वत में या पाषाणशिला आदि में जो दरार
वह पर्वत में
पड़ जाती है,
पड़ी हुई दरार वह जब तक