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दीपिकानियुक्तिश्च अ० ३ सू. ९
मोहनीयकर्मण उत्तरकर्मनिरूपणम् ३८५ तत्र क्रोधस्य प्रतिघातहेतुः क्षमा-१ मानस्य प्रतिघातहेतुर्दिवम्-२ मायाया अनार्जवादिरूपायाः प्रतिघातहेतुरार्जवम्-३ लोभस्य प्रतिघातहेतुः सन्तोषो भवति । इतिभावः
इदमत्रावधेयम्-मोहनीयप्रधानानि खलु कर्माणि भवन्ति, तानि च सर्वदेशोपघातद्वारा प्राणिनां नरकादिभवप्रपञ्चप्रापणे बीजानि सन्ति, तत्र--मोहस्तावत् कषायजनितो भवति, कषायवशात्खलु बन्धस्थितिविशेषः सकलदुःखप्राप्तिश्च, तस्मात् कर्मणां लाघवैषिणा मुमुक्षुणा क्रोधादिकषायमोहसंवरणोपायाः क्षमादयः सततमभ्यसनीयाः उक्तञ्च --
यदतिदुःख लोके यच्च सुखमुत्तमं त्रिभुवनेऽपि । तद्विद्धि कषायाणां वृद्धिक्षयहेतुकं सर्वम् ॥ २॥ जं अइदुक्खं लोए, जं च सुहं उत्तमं तिहुयणमि ।
तं जाण कसायाणं, वुढिक्खयहेउयं सव्वं ॥ १ ॥ इति ॥९॥ मूलसूत्रम्-"आउए चउव्विहे, नारग-तिरिक्ख-मणुस्स-देव-भेयओ-" ॥१०॥
छाया "आयुष्यं चतुर्विधम्, नारक तैरश्व-मानुष्य देवभेदतः-" ॥१०॥ तात्पर्य यह है कि क्रोध के प्रतिघात का कारण क्षमा है । मान के प्रतिघात का कारण मार्दव है । माया के प्रतिघात का कारण आर्जव (सरलका) है । लोभ के प्रतिघात का हेतु सन्तोष है।
यहाँ समझने योग्य वस्तु यह है कि ये सब कर्म मोह प्रधान हैं, अर्थात् आठों को में मोहनीय कर्म ही प्रधान है । इन कर्मों में कोई-कोई सर्वघाती और कोई-कोई देशघाती हैं, अर्थात् कोई आत्मा के गुण का पूर्ण रूप से घात करते हैं तो कोई आंशिक रूप से घात करते हैं। ये कर्म ही नरकभव आदि के प्रपंच को प्राप्त कराने में कारणभूत हैं । मोह कषाय से उत्पन्न होता है । कषाय की विशेषता से कर्म की स्थिति में विशेषता होती है । कषाय से ही समस्त दुःखों की प्राप्ति होती है । अत एव जो मुमुक्षु कर्मों की लघुता चाहता है उसे क्रोध आदि कषायों का संवरण करने के उपाय क्षमा आदि सद्गुणों का निरन्तर अभ्यास करना चाहिए । कहा भी है ..
इस लोक में जो भी घोर दुःख है और तीनों लोकों में जो भी उत्तम सुख है, वह सब कषायों की वृद्धि और नाश के कारण ही समझना चाहिए । तात्पर्य यह हैं कि ज्योंज्यों कषायों की वृद्धि होती है, त्यों-त्यों दुःख की वृद्धि होती है और ज्यों-ज्यों कषायों का नाश होता है, त्यों-त्यों दुःख का नाश होता है । अतएव कषायों के बिनाश के लिए सदैव प्रयत्नशील रहना चाहिए ॥९॥
"आउए चउबिहे” इत्यादि ॥१०॥
आयुष्य कर्म चार प्रकार का है—(१) नारकायु (२) तिर्यंचायु (३) मनुष्यायु और (४) देवायु ॥१०॥
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