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दीपिकानिर्युक्तिश्च अ० ३ ० ६
ज्ञानावरणकर्मणः मेदनिरूपणम् ३६७
भवति । अनिन्द्रियं पुनर्मनोवृत्तिः - ओधज्ञानश्चेति, तदेतन्मतिज्ञानमात्रियते येन तन्मतिज्ञानावरणं देशघातिनयनपटलवत्-चन्द्रप्रकाशाभ्रादिवदवा । श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिः - श्रुतं, शेषेन्द्रियमनोविज्ञानञ्च श्रुतशास्त्रानुसारिस्वार्थाऽभिधानसमर्थं श्रुतज्ञानम् । तदनेकविधम्
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तथाचोक्तम् — “ जावंति अक्खराई, अक्खरसंजोयगा जेत्तिया लोए । एवइया पगडीओ, सुयनाणे होंति नायव्वा ॥ १ ॥
" यावन्ति - अक्षराणि अक्षरसंयोगा यावन्तो लोके । एतावत्यः प्रकृतयः श्रुतज्ञाने भवन्ति ज्ञातव्याः ॥ १ ॥ इति ।
तस्य श्रुतज्ञानस्या-ऽऽवरणं श्रुतज्ञानावरणम् एतदपि देशघाति भवति । अन्तर्गतबहुतर पुद्गलद्रव्यावधानादवधिरुच्यते, पुद्गलद्रव्यमर्यादयैव वाऽऽत्मनः क्षयोपशमजन्यः प्रकाशाविर्भावोऽवधिः इन्द्रियनिरपेक्षः साक्षात् — ज्ञेयग्राहीलोकाकाशप्रदेशमानप्रकृतिभेदः ।
तस्याऽवधिज्ञानस्यावरणम् - अवधिज्ञानावरणम्, एतदपि देशघात्येव भवति । एव मात्मनो मनोद्रव्यपर्यायान् निमित्तीकृत्य जायमानः प्रतिभास: [ संज्ञि - ] मनुष्यक्षेत्राभ्यन्तर वृत्तिपल्योपमाऽसंजनित होता है वह ज्ञान योग्य देश में स्थित अपने विषय को ग्रहण करना - जानता है । अनिन्द्रिय मनोवृत्ति और ओघज्ञान है यह मतिज्ञान जिसके द्वारा आच्छादित किया जाता है, वह मतिज्ञानावरण कर्म कहलाता है । यह कमें देशघाति है । नयनपटल के समान है या चन्द्रमा के प्रकाश को रोकने वाले मेघ के समान है । श्रोत्रेन्द्रिय से होने वाली उपलब्धि को श्रुत कहते हैं, शेष इन्द्रियों से और मन से होने वाला ज्ञान जो श्रुत-शास्त्र का अनुसरण करता हो और अपने विषय के प्रतिपादन में समर्थ हो वह श्रुतज्ञान कहलाता है । श्रुत ज्ञान अनेक प्रकार का है । कहा भी है- 'लोक में जितने अक्षर हैं और अक्षरों के संयोग हैं, उतनी श्रुतज्ञान की प्रकृतियाँ जानना चाहिए ।
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श्रुतज्ञान को आवृत्त करने वाला कर्म श्रुतज्ञानावरण कहलाता है । यह कर्म भी देशघाति है ।
अन्तर्गत बहुत-से पुद्गल द्रव्यों के अवधान से अवधि कहलाता है, अथवा पुद्गलद्रव्यों को ही जानने की मर्यादा के कारण अवधि कहलाता है । यह क्षयोपशम से उत्पन्न होता है इसमें इन्द्रियों के व्यापार की अपेक्षा नहीं रहती, साक्षात् ज्ञेय पदार्थों को जानता है और लोकाकाश के प्रदेशों के बराबर असंख्यात भेद हैं ।
इस अवधिज्ञान को आच्छादित करने वाला कर्म अवधिज्ञानावरण कहलाता है । यह कर्म भी देशघाति ही है ।
जो ज्ञान आत्मा के मनोद्रव्य के पर्यायों को अवलम्बन करके उत्पन्न होता है, मनुष्य क्षेत्र अढ़ाई द्वीप तक ही जिसका व्यापार होता है, पल्योपम के असंख्यात भाग परिमित