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तत्त्वार्थसूत्रे “यदि रूपि कर्म न स्यात्-न स्यात्मसहवर्त्यबद्धत्वात् ।
बर्द्ध वा सति कर्मणि-ननु सिद्धा रूपिता तस्य ॥ ५॥ तथाच-कर्मणा मूर्तत्वे सिद्धे सति न सर्वे एव पुद्गलाः कर्मणो योग्या भवन्ति, अपितु-वर्गणा क्रमेण, तत्र -मनोवर्गणायोग्यपुद्गलराशेरुपरि भूयस्त्वादयोग्यवर्गणामतीत्या-त्यल्पत्वाच्च कार्मणशरीरायोग्यवर्गणामतिक्रम्य-आत्मा कर्ता-अस्थगितास्रवद्वारः अतिसूक्ष्मान् अतिस्थूलांश्च पुद्गलस्कन्धान अयोग्यान् परित्यज्य, अनन्तावयवानपि पुद्गलस्कन्धान कर्मभावप्राप्तियोग्यानेवा-ऽऽदत्ते । तथाचोक्तम् --- "न स आदातुं स्कन्धानतिसूक्ष्मान् बादरांश्च शक्नोति ।
खादेन न बध्यन्ते जात्वणवः शकेराश्च तथा ॥१॥ "अणवः स्कन्धाश्चैकोत्तरपरिवृद्धाः सुसूक्ष्मपरिणामाः । केचिदनन्तावयवा अप्यग्राह्या जिनरुक्ताः ॥२॥ एभ्यस्तु पराः स्कन्धाः एकोत्तरवृद्धिवर्धिताः सूक्ष्माः । पञ्चरसपञ्चवर्णा स्तथा द्विगन्धाश्चतुः स्पर्शाः ॥३॥ अगुरुलधववस्थिताश्च क्षेत्रकत्वेन वर्तमानाश्च ।
प्रायोग्याः कर्मतया ग्रहीतुमुक्ताः परिणमय्य ॥४॥ अगर कर्म रूपी न होते तो आत्मा के साथ बद्ध न होने से आत्मा के साथ रह नहीं सकते थे। जब कर्म बद्ध है तो उसका रूपीपन भी सिद्ध हो सकता है ॥५॥
इस प्रकार कर्म का मूर्त होना सिद्ध हो जाता है । किन्तु सभी पुद्गल कर्म के योग्य होते हैं; ऐसा नहींसमझ लेना चाहिए । सिर्फ कार्मण वर्गणा के पुद्गल हो, जो अन्य समस्त वर्गणाओं की अपेक्षा सूक्ष्म होते हैं । वही कर्म रूपमें ग्रहण किये जाते हैं । जिस आत्मा ने कर्मोके आगमन के द्वारों को-मिथ्यात्व, अविरति आदि को-नहीं रोका है, वह अति सूक्ष्म और अति स्थूल, पुद्गलों को, जो कि बन्ध के योग्य नहीं होते, छोड़ कर अनन्त प्रदेशी कर्म योग्य पुद्गलस्कन्धों को ही कर्म के रूप में ग्रहण करता है। कहा भी है
___ जीव अत्यन्त सूक्ष्म और अत्यन्त बादर पुद्गल स्कन्धों को ग्रहण करने में समर्थ नहीं होता। अणु और शर्करा कभी इस रूप से जीव के साथ बद्ध नहीं होते हैं ॥१॥
कोई पुद्गल अणुरूप और कोई स्कन्धरूप होता है । अत्यन्त सूक्ष्म परिणाम वाले कोई-कोई पुद्गल एक-एक प्रदेश की वृद्धि होते-होते अनन्तप्रदेशी हो जाते हैं । जिनेन्द्र भगवन्तों ने कहा है कि कितनेक अनन्त प्रदेशी स्कन्ध भी अग्राह्य होते हैं ॥२॥
उन स्कन्धों में भी एक-एक प्रदेश की वृद्धि हो कर जो पाँच रस, पाँच वर्ण, दो गंध और चार स्पर्श वाले अगुरु लघु, अवस्थित और जीव प्रदेशों के साथ एक ही क्षेत्र में अवगाढ़ हों और कर्मरूप में परिणत होने के योग्य हों, वही पुद्गल कर्मरूप में ग्रहण किये जाते हैं ॥४॥