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तुल्लं वित्थडबहुलं, उस्सेहबहुंच मडहकोच । हिडिल्लकायमड हं, सव्वत्था संठियं हुंड || इति ॥ " तुल्यं विस्तृतबहुलम, उत्सेधबहुलञ्च मडमकोष्ठञ्च । अधस्तनकायमडमं, सर्वत्रासंस्थितं हुण्डम् ॥ १॥ इति
तत्वार्थ सूत्रे
अजीव परिगृहीतं संस्थानं वृत्त - त्र्यत्र चतुरस्रा -ऽऽयत-परिमण्डलभेदात् पञ्चविधं भवति, तत्र वृत्तं संस्थानं द्विविधं भवति, युग्मायुग्मभेदात् । युग्ममपि पुनर्द्विविधम् प्रतर - घनभेदात्, एवमन्य दपि संस्थानमवसेयम् - अनित्थंस्थपर्यन्तम् । इत्थमुक्तेन वृत्तादिना प्रकारेण यन्न प्ररूपयितुं शक्यं तदनित्थंस्थलक्षणं संस्थानमवगन्तव्यमिति भावः सर्वमिदं संस्थानं पौद्गलिकं वर्तते ।
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एवमेकत्वद्रव्यपरिणतिविश्लेषलक्षणो भेदः पञ्चविधो भवति, औत्करिक- चौर्णिक - खण्डप्रतरा - ऽनुतटभेदात् स च भिद्यमानपुद्गलद्रव्यविषयत्वात् पुद्गलपरिणामलक्षणः पौद्गलिक उच्यते । भिद्यमानपुद्गलद्रव्यव्यतिरेकेणाऽनुपलब्धेर्भिन्नवस्तुद्वयमेव भेदो व्यपदिश्यते । तत्रौत्करिको भेदस्तावत् समुत्कीर्यमाणदारुप्रस्थकादिविषयो बोध्यः १
अवयवशश्चूर्णनं तावत् चौर्णिको भेदः क्षिप्तमुष्ट्यादिवत् - २ खण्डभेदस्तु - खण्डशो विशरणं क्षिप्तमृत्पिण्डादिवत्-३ प्रतरभेदः पुनः - अभ्रपटलभूर्जपत्रादिषु बहुविधपुटोच्छोटनलक्षणो बोध्यःजीव हैं, उनका संस्थान हुंडक होता है । पंचेन्द्रियों का यथायोग्य नाम कर्म के उदय से उत्पन्न होने वाला छह प्रकार का संस्थान होता है - समचतुरस्र, न्यग्रोध, सादि, कुब्जक, वामन और हुण्डक । कहा भी है
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जो संस्थान चौकोर हो अर्थात् जिसमें चारों ओर से नापने पर समान मान हो, वह समचतुरस्र कहलाता है । जिसमें ऊपर के अवयव बड़े हों वह न्यग्रोध संस्थान, जिसमें नीचे के अवयव बड़े हों वह सादि संस्थान, जिसमें पेट भीतर घुसा हो अर्थात् जो कुबड़ा हो वह कुब्जकसंस्थान, जो बौना हो वह वामन संस्थान और जो सभी जगह विषम होबेढङ्गा हो वह हुंडक संस्थान कहलाता है ।
अजीव का संस्थान पाँच प्रकार का होता है - वृत्त, त्रिकोण, चतुष्कोण, आयत (लम्बा) और परिमण्डल वृत्त संस्थान युग्म और अयुग्म के भेद से दो प्रकार का होता है । युग्म संस्थान भी दो तरह का है - प्रतर और घन इसी प्रकार अन्य संस्थान भी समझ लेने चाहिए । जो संस्थान वृत्त आदि किसी रूप में भी न कहा जा सके वह अतित्थंस्थ कहलाता है । ये सभी संस्थान पौगलिक हैं ।
किसी वस्तु के एकत्व का भंग हो जाना भेद कहलाता है । भेद पाँच प्रकार का है - औत्करिक, खण्ड, चौर्णिक प्रतर और अनुत्तर । भेद विभक्त होने वाले पुद्गलद्रव्य में ही होता है, अतएव वह पौद्गलिक है । वह पुद्गल के अतिरिक्त किसी भी अन्य द्रव्य में नहीं होता ।